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अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की विकास यात्रा

अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (अभाविप) की स्थापना एक ऐसी ऐतिहासिक परिघटना है, जिसे शब्दों में समेट पाना मुश्किल है। लगभग 1200 वर्षों की दासता के पश्चात 15 अगस्त 1947 को खंडित भारत विदेशी दासता से स्वाधीन हुआ। खंडित आजादी मिलने के बाद भारतीय जनमानस में खुशी के साथ गम के आंसू भी थे। आजादी की इस ऐतिहासिक क्षण के गवाह बने महापुरुषों के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती वर्षों की गुलामी के बाद मिली स्वतंत्रता का उत्सव कहीं उन्माद न बन जाये, इसको लेकर थी।  ठीक इसी समय आंशकाओं के समाधान की अनिवार्यता को लिये हुए राष्ट्रीय पुनर्निमार्ण के महान लक्ष्य के साथ अभाविप का जन्म हुआ। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत को स्वावलंबी बनाने के साथ – साथ वैश्विक स्तर पर उनकी भूमिका की चुनौती राष्ट्र के समक्ष थी। इस हेतु सर्वाधिक अपेक्षा उस वर्ग से थी जो शिक्षित होने के साथ – साथ ऊर्जावान भी था। युवाओं की असीम ऊर्जा को परिवर्तन का सशक्त माध्यम मानते हुए अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् की स्थापना की गई। अभाविप ने 1948 से ही कार्य करना शुरू कर दिया लेकिन छात्रों की ऊर्जा के नियोजन हेतु नौ जुलाई 1949 को विद्यार्थी परिषद् का विधिवत पंजीयन हुआ। भारत की चिति का अभिव्यक्त रूप यहां की संस्कृति के प्रति अनुराग, राष्ट्र की एकता और अखण्डता के सर्वोपरि होने का विश्वास तथा भारत को सशक्त, समृद्ध और स्वावलम्बी राष्ट्र के रूप में विश्वमालिका में उसे यथोचित स्थान दिलाने की महत्वाकांक्षा ने अभाविप के संगठन को गढ़ा है। राष्ट्र की अंतर्निहित चेतना को स्वर देने का काम परिषद ने अपनी स्थापना के साथ ही शुरू कर दिया था। यही कारण था कि भारतीयकरण उद्योग से प्रारंभ हुई विचार यात्रा का निरंतर प्रवाहमान रही।

छात्र संगठन होने के कारण विद्यार्थियों की नयी पीढ़ियां आती रहीं और पुरानी जाती रहीं। किन्तु विद्यार्थी परिषद् का विकास यात्रा जारी रहा। राष्ट्र की मुख्य धारा के साथ तादात्म्य निरंतर बना रहा जिसके कारण संगठन सतत वर्धमान बना रहा। विचारवंत शिक्षकों की श्रृंखला भी बनी रही जिसने विद्यार्थियों का योग्य मार्गदर्शन किया साथ ही उनके व्यक्तिगत विकास की भी चिन्ता की। समाजजीवन के अनेकानेक क्षेत्रों में आज जो अभाविप के पूर्व कार्यकर्ताओं की जो मालिका दिखायी देती है उसके पीछे कार्यकर्ता विकास की अनूठी पद्धति का ही योगदान है। इस पद्धति के अनमोल कड़ी  स्व. भाऊराव देवरस, दत्तोपंत ठेंगड़ी, रामशंकर अग्निहोत्री, ओमप्रकाश बहल, गिरिराज किशोर, प्रा. यशवंतराव केलकर, एम. बी. कृष्णराव, दत्ताजी डिडोलकर, नारायण भाई भंडारी, प्रा. बाल आप्टे, वेदप्रकाश नंदा आदि युवाओं ने अपने उद्यम से राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के पुनित अभियान को अखिल भारतीय व्यापी स्वरूप प्रदान किया।

आज सात दशक बाद सिंहावलोकन करने पर अभाविप के खाते में अनेक उपलब्धियां दिखायी देती हैं। इन्हें हम दो भागों में बांट सकते हैं – प्रथम, राष्ट्र के दिशा निर्धारण में हमारा योगदान और द्वितीय, एक संगठन के रूप में हमारी उपलब्धियां।  किसी राष्ट्र अथवा समाज को प्रभावी दिशा देने का कार्य कुछ व्यक्ति, संस्थाएं अथवा व्यक्ति समूह किया करते हैं। वैसे तो समाज की दिन प्रतिदिन की गतिविधियां किसी न किसी  प्रकार से चलती रहती है परंतु विद्यार्थी परिषद् ने असंगठित युवा शक्ति को संगठित व सुसंस्कारित कर देश को नई दिशा देने का काम किया है। परिषद् में एक सूत्र वाक्य है जिसे कार्यकर्ता बार – बार सुनते हैं – ‘सभी कार्यकर्ता महत्वपूर्ण, अपरिहार्य कोई नहीं…।’ यह वाक्य कार्यकर्ता पद की गरिमा को स्थापित करता है एवं कार्यकर्तापना के अहंकार पर चोट मारता है। जब संगठन में कोई कार्यकर्ता अपने को अपरिहार्य मानने लगता है या जाने अनजाने में अपने को अपरिहार्य बना लेता है। ये दोनो ही स्थितियां संगठन के लिए ठीक नहीं है । अभाविप ने अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सौद्धांतिक भूमिका अपनाई, जिसमें सबसे महत्वपूर्ण थी रचनात्मकता। रचनात्मक कार्य प्रथम पुरूषी मानसिकता से संभव होता है। प्रथम पुरूषी मानसिकता अर्थात पहले कोई कार्य स्वयं करना फिर दूसरों को करने के लिए कहना। रचनात्मक कार्य का प्रत्यक्ष रूप होता है रचनात्मक गतिविधियां।

लोकतंत्र पर काला धब्बा आपातकाल

1973 के अंत में गुजरात में नवनिर्माण आंदोलन प्रारंभ हुआ। एक इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्रावास में की गई भोजन शुल्क वृद्धि के विरूद्ध प्रारंभ हुआ आंदोलन आनन – फानन में महंगाई, भ्रष्टाचार व कुशासन के विरूद्ध प्रदेशव्यापी आंदोलन बन गया, जिसका नेतृत्व विद्यार्थी परिषद् ने किया। गुजरात के पश्चात कुछ ही महीनों में फरवरी – मार्च 1974 में बिहार आंदोलन शुरू हो गया। महंगाई, भ्रष्टाचार, कुशासन, बेरोजगारी, शिक्षा आदि के विरोध में यह आंदोलन अभाविप के प्रयासों से ही शुरू हुआ। यही आंदोलन आगे चलकर राष्ट्रीय आंदोलन में परिवर्तित हो गया और जयप्रकाश नारायण के सक्रिय सहभाग और नेतृत्व के कारण यह आंदोलन जयप्रकाश आंदोलन कहलाया। सत्तर – अस्सी के दशक में अभाविप के क्षेत्रीय संगठन मंत्री एवं राष्ट्रीय मंत्री रह चुके प्रख्यात पत्रकार रामबहादुर राय बताते कि इंदिरा सरकार के तानाशाही रवैये के खिलाफ संपूर्ण क्रांति की पटकथा तो कर्णावती(अहमदाबाद) अधिवेशन में लिख दी गई थी। अभाविप की तीन दिवसीय अधिवेशन चार, पांच और छः नवबंर को देश भर से आए प्रतिनिधियों ने व्यापक प्रश्नों पर सतत आंदोलन का संकल्प लिया।

राष्ट्रीय स्तर पर जब एक नीति निर्धारित हो गई तो उसे अपने – अपने क्षेत्र में कार्यरूप देने की जिम्मेदारी राज्य संगठन पर आई। अभाविप, बिहार ने इसकी अगुवाई की। 23, 24 दिसंबर 1973 को तत्कालीन बिहार के धनबाद (अब झारखंड में है) में प्रांत स्तरीय सम्मेलन आयोजन किया गया, जिसमें लगभग बारह सौ प्रतिनिधियों ने भाग जो किसी भी प्रांत स्तरीय की यह उपस्थिति अपने आप में एक भविष्यगत आश्वासन थी। वह परिवर्तन की आकुलता का प्रतीक भी थी। लोकनायक जयप्रकाश नारायण की समग्र क्रांति के आह्वान पर आपातकाल जैसी परिस्थितयों से लड़ने की कोई सुव्यवस्थित योजना नहीं थी। हां, एक खाका जरूर था। उसमें अन्य संगठनों की तुलना में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् की भूमिका सबसे अहम थी। अपनी सरकार के खिलाफ बढ़ते जनाक्रोश को देखते हुए इंदिरा गांधी ने दबाव डालकर 25 जून 1975 की आधी रात को अनिच्छापूर्वक तत्कालीन राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद से आपातकाल पर हस्ताक्षऱ करवा लिया और 26 जून को पूरे भारत में आपातकाल लग गया यानी भारतीय लोकतंत्र का सरेआम गला घोंटा गया। प्रदर्शनकारियों को नजरबंद कर लिया गया, प्रेस पर पाबंदी लगा दी गई, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ समेत छब्बीस संगठनों पर पाबंदी लगा दी गई। हांलाकि परिषद् पर कोई पाबंदी नहीं लगाई गई थी परंतु कार्यकर्ताओं को कार्य करने की छूट नहीं थी, परिषद् के कार्यकर्ताओं ने भूमिगत होकर भारतीय जनमानस में लोकतंत्र के प्रति चेतना जगाने का काम किया। इस दौरान कई कार्यकर्ता जेल भी गये। अन्य संगठनों की अपेक्षा विद्यार्थी परिषद् अपेक्षाकृत अधिक संगठित और सुसंबंद्ध था, जिस कारण सुनियोजित तरीके से आंदोलन चलता रहा। आखिरकार 21 मार्च 1977 को लोकतंत्र का सूरज फिर निकला। आम चुनाव हुए क्रांग्रेस पार्टी की करारी हार हुई जनता पार्टी की सरकार बनी। कई संगठनों ने सरकार में सहभाग लिया, विद्यार्थी परिषद् को भी सरकार में शामिल होने का निमंत्रण मिला लेकिन विद्यार्थी परिषद् ने अपनी प्रतिबद्धता को दोहराते हुए कहा कि हम दलगत राजनीति से ऊपर रहने वाला छात्र संगठन हैं। इस प्रकार विद्यार्थी परिषद् ने पूरे आंदोलन को चलाने के बाद भी राजनीति से अपने – आप को अक्षुण्ण  रखा, उसी का परिणाम है कि आज देश के अधिकतर विश्वविद्यालय में परिषद् का नेतृत्व है।

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सामाजिक समरसता और अभाविप

अभाविप का स्पष्ट मानना है कि समरस समाज के बिना राष्ट्र का विकास असंभव है। भारतीय पुरातन परंपरा पर अगर नजर डालें तो पता चलता है कि भारतीय समाज आरंभ से ही समरस रहा है। कालांतर में विदेशी आक्रांताओं के द्वारा हमारी सामाजिक समरसता के ताने बाने को तोड़ने का प्रयास किया था। इन आक्रांताओं ने न केवल हमारी समरसता को तोड़ा बल्कि हमारे समाज को जातिगत भेद में बांट दिया और इसका ठिकरा भी धर्म पर फोड़ने का कुत्सित प्रयास किया ।  स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात अपने स्थापना काल से अभाविप ने इसे चुनौती के रूप में लिया। आजादी के बाद देश में आरक्षण के विरोध में अनेक आंदोलन हुए, लेकिन अभाविप ने आरक्षण का पक्ष लिया, आरक्षण विरोध की दहकती ज्वाला को देखते हुए विद्यार्थी परिषद् ने 1981 में पटना में आरक्षण पर एक बड़ी संगोष्ठी आयोजित की। संगोष्ठी में समाज के सभी वर्गों के चिंतक, साहित्यकार, बुद्धिजीवी, पत्रकार, राजनेता और विद्यार्थी वर्ग ने सहभाग लिया। इस दौरान सभी ने सर्वसम्मति से आरक्षण के पक्ष में प्रस्ताव पारित किये। इसी प्रकार मराठवाड़ा विश्वविद्यालय के नाम परिवर्तन को लेकर समाज, दो धड़े में विभाजित हो चुका था। अभाविप ने स्थिति को भांपते हुए समाज को टूटने से बचाने के उद्देश्य से 1978 से 1993 तक लगातार आंदोलन किये एवं महाराष्ट्र प्रांतीय अधिवेशन में प्रस्ताव पारित कर 1986 में वीर सावरकर के जन्म शताब्दी के उपलक्ष्य पर पूरे प्रदेश में समता ज्योति यात्रा निकाला। 1990 में नाम परिवर्तन तथा सामाजिक समता का विषय लेकर पूरे मराठवाड़ा में संवाद स्थापित करने का काम किया गया।  1990 में  मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करने के बाद 19 सितंबर 1990 में दिल्ली विश्वविद्याल के छात्र एस.एस. चौहान ने आरक्षण के विरोध में आत्मदाह किया। चौहान के आत्मदाह की घटना पूरे देश में आग की तरह फैल गई। देश जल रहा था, अकेले बिहार में सैकड़ों लोगों की जानें जा चुकी थीं। विरोधरूपी भीष्ण ज्वाला की लपटों में शांति रूपी मूसलाधार बारिश की कोशिश सर्वप्रथम परिषद् के द्वारा की गई फलस्वरूप समाज में फैले वैमनस्य पर बहुत हद तक काबू पाया गया।

नब्बै के दशक में बिहार में जंगल राज स्थापित हो चुका था। डकैती, लूट-पाट, अपहरण तो नित्य का विषय बन चुका था उस समय मानवता को लहूलुहान कर देने वाली घटना सामने आने लगी, सामूहिक नरसंहार और विशेष रूप से जातीय नरसंहार ने भयानक रूप ले लिया। जहानाबाद में घटी घटना ने सबको तो स्तब्ध कर दिया। जातीय हिंसा की आग में झूलस रहे बिहार में सबसे पहले अभाविप ने जाति-तोड़ो, हिंसा छोड़ो के नाम से सप्ताह भर गांव गांव में पदयात्रा निकाल कर सामाजिक सद्भाव को पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया। अभाविप के प्रयास के कारण समाज में फिर सौहार्द्र स्थापित हो पाया। इस तरह से अनेकों उदाहरण है जिससे पता चलता है कि परिषद् ने समरस समाज के लिए अकथनीय प्रयास किए। वर्ष 2007 में अभाविप की याचिका पर उच्च न्यायालय द्वारा निजी तकनीकी व्यावसायिक शिक्षा संस्थानों में अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्ग के छात्रों को आरक्षण देने का प्रावधान किया गया। कुछ वामपंथी तत्त्वों के द्वारा 2016 में रोहित वेमूला प्रकरण को हवा देकर अभाविप को बदनाम करने की कोशिश की गई, लेकिन जांच रिपोर्ट सामने आने के बाद सबके मुंह सिल गये। बता दें कि 6 दिसंबर यानी बाबा साहेब के महापरिनिर्वाण दिवस को अभाविप सामाजिक समरसता दिवस के रूप में मनाती है। सूचना है कि अभाविप समाज को समरस बनाने के लिए वर्ष 2018-19 को  सामाजिक समरसता वर्ष के रूप में मनाने वाली है।

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बांग्लादेशी घुसपैठ के खिलाफ अभाविप का हल्ला बोल

बीसवीं शताब्दी का आठवां दशक चल रहा था। दशक के अंत में ही असम आंदोलन भी प्रारंभ हो गया। फिर उसके बाद केन्द्र सरकार द्वारा बोफोर्स तोप से सौदे से दलाली खाए जाने, कश्मीर में छाए आतंकवाद तथा राजनीतिक भ्रष्टाचार व अपराधिकरण जैसे मुद्दों पर कुछ आंदोलन हुए। विश्व के अन्य  भागों में सातवें दशक के पश्चात भी कई आंदोलन हुए। चीन की प्रजातंत्र की स्थापना के लिए राजधानी पेईचिंग में 1989 में थ्यानमेन चौक पर छात्रों ने अभूतपूर्व प्रदर्शन किया। देश विश्व के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने के लिए प्रयत्नशील था, देश के युवा अपने राष्ट्र को वैश्विक पंक्तियों में अग्रणी स्थान पर देखना चाहते थे। इसी दौरान देश के सीमावर्ती राज्यों में बहुतायत मात्रा में बांग्लादेशी घुसपैठ कर देश में घुस रहे थे। बांग्लादेशी घुसपैठियों के कारण सभी सीमावर्ती राज्यों से सटे जिले मुस्लिम बहुल होने लगे। सरकार अपनी धुन में मस्त थी, अभाविप को चिंता सताने लगी कि यह क्रम लगातार जारी रहा तो देश को पुनः खंडित होने से कोई रोक नहीं सकता।  अभाविप ने 1979 से बांग्लादेशी घुसपैठ का विरोध करना शुरू कर दिया। इधर असम में बांग्लादेशी घुसपैट के विरूद्ध AASU द्वारा वृहद आंदोलन छेड़ा गया तो विद्यार्थी परिषद् ने इसे राष्ट्रीय समस्या बताते हुए जनजागरण अभियान शुरू कर दिया। अक्टूबर 1983 में हजारों से ज्यादा संख्या में गुवाहाटी के जजेज फिल्ड में सत्याग्रह किया गया। सत्याग्रह के दौरान  किये गये लाठीचार्ज में अनेकों कार्यकर्ता गंभीर रूप से घायल हो गये। बाद में पुलिस द्वारा तत्कालीन  राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं राष्ट्रीय महामंत्री को गिरफ्तार कर लिया गया। वर्ष दर वर्ष आंदोलन चलते रहे…. वर्ष 2006 में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की जयंती पखवाड़े पर राष्ट्रीय जनजागरण अभियान चलाकर लोगों को जागरूक करने का प्रयास किये गये। इतने आंदोलन बाद भी जब सरकार के  ‘कान में जूं नहीं रेंगी’ तब अभाविप ने बांग्लादेशी घुसपैठ के खिलाफ शंखनाद कर “चलो चिकेन नेक”  नारा दिया। बिहार के किशनगंज स्थित चिकेन नेक में हजारों – हजार छात्र, आम जनता, बुद्धिजीवी, शिक्षाविद ने भाग लिया। सबसे बड़ा रोचक विषय यह रहा कि इस रैली में बड़ी संख्या में मुस्लिम समुदाय के लोंगो ने भाग लिया। मुस्लिम समुदाय से जब मीडिया ने सवाल किया कि आपलोग इस आंदोलन में कैसे आये? इस आंदोलन को तो कुछ लोग मुस्लिम के खिलाफ बता दे रहे हैं, इस पर स्थानीय युवकों ने जवाब दिया कि यह राष्ट्र की अस्मिता का सवाल है, बांग्लादेशी घुसपैठिये हमारे देश के संसाधनों को लूट रहे हैं अगर ऐसा ही रहा तो आप ही बताईये हमलोग कहां जायेंगे। अभाविप ने यह आंदोलन देश हित के लिए किया न की समुदाय विशेष के विरोध में…स्थानीय युवक का जवाब सुनकर प्रायोजित मीडिया के बंधु बैरंग वहां से लौट गये, क्योंकि वहां उन्हें कोई न्यूज मशाला नहीं मिला। अभाविप के प्रयास से पहली बार तत्कालीन गृहमंत्री पी.चितंबरम ने बांग्लादेशी घुसपैठ की बाद स्वीकार की। आज देश के हरेक वर्ग के लोग बांग्लदेशी घुसपैठ के बारे में जान रहे हैं और सरकार के द्वारा इसे रोकने के लिए प्रयास भी किये जा रहे हैं फलस्वरूप आज असम में एनआरसी के तहत लाखों अवैध बांग्लादेशी नागरिकों की पहचान की गई, लेकिन कुछ राज्य सरकारें वोट बैंक की लालच में आज भी बांग्लादेशी घुसपैठिये को प्रश्रय दे रही है।

देशविरोधी ताकतों को अभाविप ने किया बेनकाब

अभाविप ने कभी राष्ट्र की एकता, अखंडता और संप्रभुता के साथ समझौता नहीं किया। जब भी देश की एकता और अखंडता के विरोध में स्वर उठे उसका परिषद् ने कड़ा प्रतिकार किया। हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय (एचसीयू) में याकूब मेनन की फांसी के विरोध में वामपंथी प्रेरित छात्र संगठन ‘अंबेडकर स्टूडेंट एसोसिएशन’ के द्वारा विश्वविद्यालय परिसर में नवाज अदा की गई। परिषद् के कार्यकर्ताओं ने जब इसका विरोध किया तो इसके साथ मारपीट की गई। इसी दौरान रहस्यमय तरीके से रोहित वेमुला ने आत्महत्या कर ली, रोहित वेमुला के सुसाइड नोट से कई सवाल खड़े होते हैं। वामपंथी और  सेक्यूलर बुद्धिजीवियों के द्वारा पूरे देश में परिषद् को खलनायक के रूप में परोसने का काम किया गया लेकिन एक कहावत है न! – ‘सांच को आंच नही’। वामपंथी अपने ही बूने जाल में फंस गये। एचसीयू मामले में ‘मुंह की खाने’ के बाद नौ फरवरी 2016 को अभिव्यक्ति की आजादी के आड़ में देश के सुप्रसिद्ध विश्वविद्यालय जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) परिसर में देशविरोधी नारे लगे, परिषद् के कार्यकर्ताओं ने जब इसका प्रतिकार किया तो उसके साथ हाथापाई भी की गई। देशविरोधी नारे के इस कुकृत्य से जेएनयू शर्मसार हो गया, वामपंथ की पूरे देश में थू-थू होने लगी। वामपंथियों की इस बौखलाहट को सहज देखा जा सकता था। जेएनयू में हुए इस घटना ने देशविरोधी ताकतों को बेनकाब करने का काम किया, जिसका पूरा श्रेय परिषद् को जाता है।

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सामाजिक अनुभूति के माध्यम से संवेदना जगाने की अनोखी कोशिश

अभाविप के द्वारा गत कुछ वर्षों से सामाजिक संवेदना स्थापित करने  के उद्देश्य से सामाजिक अनुभूति कार्यक्रम चलाई जा रही है। इस कार्यक्रम के तहत कार्यकर्ता समाज के साथ आत्मीय संबंध स्थापित कर रहे हैं। कार्यकर्ता ग्रामीण इलाकों में जाकर लोगों से चर्चा कर रहे हैं और उनका हालचाल ले रहे हैं। इस अनोखी पहल से कार्यकर्ताओं को समाज को करीब से देखने व जानने का मौका मिल रहा है। दिनभर लैपटॉप और मोबाईल से चिपके रहने वाले वर्तमान युवा पीढ़ी के लिए यह अभियान प्रेरणादायी साबित हो रहा है। सबसे बड़ी बात यह है कि जिस गांव को युवा – पीढ़ी गूगल, अखबार, टेलीविजन, इंटरनेट इत्यादि के माध्यम से जान रहे थे वे स्वयं गांव पहुंचकर रोमांचित हो रहे हैं। गांव में रहने वाले परिवार के जनजीवन का प्रत्यक्ष अनुभव कर रहे हैं। गांव में बरगद के पेड़ के नीचे बैठना, गीली – डंडा खेलना, नदियों तालाबों में स्नान करना इनलोगों के लिए किसी आश्चर्च से कम नहीं है। अनुभूति में शामिल कार्यकर्ताओं ने महसूस किया कि अनेकों परेशानी होने के बावजूद ग्रामवासी आपस में मिलकर रहते हैं, अपने यहां आने हर अतिथि को भगवान समझकर उसका सत्कार करते हैं, जबकि शहरों में ये सब न के बराबर है।

भाजपा की छात्र शाखा नहीं है अभाविप

अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् को कुछ लोग मुर्खतावश भाजपा की छात्र शाखा कहते हैं, जानकारी के लिए बता दूं कि अभाविप की स्थापना भाजपा और पूर्व में जनसंघ से पहले हुई है। अभाविप राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से प्रेरित एक स्वतंत्र छात्र संगठन है जो राष्ट्र की एकता, अखंडता और संप्रुभता के लिए कृतसंकल्प है। अभाविप आज देश में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में सबसे बड़ा छात्र संगठन के रूप में स्थापित है। अभाविप कभी भी दलगत राजनीति पर विश्वास नहीं करती, अभाविप का उद्देश्य राष्ट्र के पुनर्वैभव को स्थापित करना एवं भारत को पुनः विश्व गुरू बनाना है। भारतीय जनता पार्टी और अभाविप के बीच केवल वैचारिक समानता है। वर्ष 2017 में अभाविप के मुखपत्र ‘राष्ट्रीय छात्रशक्ति’ के विशेषांक विमोचन के मौके पर वरिष्ठ भाजपा नेता और केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने भी स्पष्ट किया कि विद्यार्थी परिषद्  भाजपा की छात्र शाखा नहीं है। विद्यार्थी परिषद् राष्ट्र हित के लिए कार्य करने वाल एवं छात्रों के हित के लिए सदैव खड़ा रहने वाला राष्ट्रभक्त संगठन है।

अभाविप में छात्रा सहभाग

कई संगठनों में देखा जाता है कि छात्राओं की सहभागिता कम होती है या फिर न के बराबर होती है। महिला सशक्तिकरण का दंभ भरने वाले वामपंथी संगठनों में छात्राओं का नेतृत्व नगण्य है लेकिन अभाविप में छात्रों के साथ छात्राओं का सहभाग प्रारंभ से रहा है। परिषद् के स्थापना के समय जो परिस्थितियां थी उस समय छात्र-छात्राओं को एकत्रित करना आसान नहीं था। छात्राओं के स्वतंत्र विद्यालय काफी मात्रा में थे जिस कारण दोनों को एक साथ काम करने की आदत कम थी फिर भी अभाविप ने छात्राओं को संगठन में जोड़ा और उसे अहम जिम्मेदारी दी।  प्रारंभिक दौर में छात्राओं की सहभाग गिनी – चुनी जिम्मेदारियों तक सीमित रहा लेकिन धीरे – धीरे यह चित्र बदलने लगा। छात्रों की तरह पूर्णकालिक जीवन के लिए छात्राएं भी निकलने लगी। छात्राएं ने छात्र कार्यकर्ता के साथ कंधे से कंधा मिलाकर पहली पंक्ति में कार्य करने लगीं।  छात्राओं द्वारा आंदोलन का नेतृत्व करना, संगोष्ठी आयोजित करना, नुक्कड़ नाटक करना, भाषण देना आम बात हो चुका है। अभाविप कार्य के लिए पूर्णकालिक निकलने वाली ऐसी भी छात्राएं थीं, जिन्होंने अपनी शिक्षा पूर्ण करने के बाद भी संगठन कार्य के लिए अपना घर छोड़कर समाज में रहीं। सुश्री गीताताई जी ने अपना संपूर्ण जीवन संगठन कार्य के लिए समर्पित कर दिया।  परिषद् में आज, छात्राएं राष्ट्रीय महामंत्री, राष्ट्र मंत्री, राष्ट्रीय उपाध्यक्ष, कई राज्यों में प्रांत मंत्री, प्रांत अध्यक्ष/उपाध्यक्ष, आयाम प्रमुख के रूप में दायित्व का निर्वहन कर रही है। परिषद् एक ऐसा अभिनव छात्र संगठन है जिसमें संपूर्ण व्यक्तित्व का विकास किया जाता है।

उल्लेखनीय है कि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् अपने विविध आयामों  जैसे – विश्व विद्यार्थी युवा संगठन (WOSY), राष्ट्रीय कला मंच, एग्रीविजन, मेडीविजन, स्पर्धा-डिपैक्स, सृजन, सृष्टी, साविष्कार लाइव, विद्यार्थी विकास, छात्र विकासार्थ(SFD), सील (SEIL), थिंक इंडिया, आदि के जरिये पूरे देश को एक सूत्र में बांधने का काम कर रही है। चाहे  देश के लोगों के बीच राष्ट्रवाद की भावना विकसित करने का काम हो, वन्देमातरम का उद्घोष का काम हो, भारतीय अनुरूप शिक्षा की बात हो, राष्ट्रीय प्रश्नों पर आंदोलन करने की जरूरत, या फिर शैक्षिक परिवार की संकल्पना की बात हो अभाविप हर मुद्दे पर प्रखर होकर कार्य कर रही है या यूं कहें तो विद्यार्थी परिषद् लोकतंत्र के प्रहरी की भूमिका निभा रही है। अभाविप की स्वीकार्यता पूरे देश के छात्रों के बीच स्थापित है। वर्तमान परिदृश्य में अभाविप छात्रसंगठन की भूमिका से आगे निकलकर एक सामाजिक संगठन के रूप स्थापित हो चुकी है। स्वाधीन भारत के जीवन में जिन्होंने सार्थक एवं प्रभावी भूमिका निभाई है और आज भी निभा रहे हैं, उन संगठनों में से एक है अभाविप।

 

 

 

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