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छात्र आंदोलनों में हिंसा की स्वीकृति उचित है क्या ?

देश – दुनिया में छात्र आंदोलनों का लंबा इतिहास रहा है। आजादी के पूर्व भारत छोड़ो आंदोलन हो या निरकुंशता के खिलाफ संपूर्ण क्रांति हो,सभी आंदोलनों में छात्रों की महत्ती भूमिका रही है  लेकिन पिछले कुछ दिनों से जो जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में हो रहा है उसे देखकर कोई भी विचलित हो सकता है । जिस देश में गुरु को भगवान से भी ऊपर माना गया है, जिसकी पूजा की जाती है उसी देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में रात के 1 बजे उनके घरों पर कुछ छात्रों के समूह द्वारा हमला किया जाता है और कहा जाता है आप हमारे साथ होस्टल मेस में चलें। जब वार्डन दबाव में मेस में जाता हैं तो उसे ख़ूब बेइज्जत किया जाता है और जबरन उनसे इस्तीफ़े की मांग की जाती है। विश्वविद्यालय के डीन छात्र कल्याण की अचानक तबियत ख़राब हो जाती हैं तो उनकी एम्बुलेंस को ज़बरन रोका जाता है। 32 घंटों तक एक महिला डीन को बंधक बना कर रखा जाता है । फिर जब पुलिस उनको निकालने की कोशिश करती हैं तो महिला डीन के कपड़े फाड़ने तक का प्रयास किया जाता है । इसके अलावा बीते 14 नवम्बर को जेएनयू के प्रशासन परिसर के समीप लगी स्वामी विवेकानंद जी की प्रतिमा को कुछ छात्रों के द्वारा क्षतिग्रस्त करने का प्रयास हुआ प्रतिमा के इर्द-गिर्द भगवा हो बर्बाद, भगवा जलेगा जैसे नारों को लिखा गया वहीं प्रशासन बिल्डिंग में घुस कर कुलपति,प्रति-कुलपति के ऑफ़िस की दीवारों पर विभिन्न भाषाओं में अपशब्द लिखे गए । क्या इसको हम छात्र आंदोलन कह सकते हैं ? छात्रों आंदोलनों में हिंसा की स्वीकृति उचित है क्या ? उपरोक्त विषय पर ‘राष्ट्रीय छात्रशक्ति’ के संवाददाता द्वारा देशभर के लोगों से बात की और उनके विचार जाने । प्रस्तुत है कुछ चुनी हुई प्रतिक्रियाएं –

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छात्र आंदोलनों का लंबा इतिहास रहा है लेकिन आंदोलन की आड़ में हिंसा की स्वीकृति नहीं दी जा सकती है । साथ ही अभिव्यक्ति की आजादी के आड़ में महापुरूषों का अपमान भी बर्दाश्त से बाहर है । जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पिछले दो सप्ताह से पढ़ाई के अलावा सब कुछ हो रहा है । यहां के कुछ छात्रों पर देश विरोधी नारों का आरोप है । गरीबी और पिछड़ापन की दुहाई देने वाले जेएनयू के वामपंथी छात्रों से मैं पूछना चाहती हूं कि क्या पिछड़ापन हिन्दू प्रतीकों का अपमान करना सिखाता है। शिक्षकों के साथ मारपीट करना सिखाता है, आतंकवादी का बरसी मनाना सिखाता है ।

– प्रगति दूबे, रांची (झारखंड)

ध्यातव्य हो कि पिछले कुछ दिनों से भारत के सबसे प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थान जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में अनेकों घटनाएं देखने को मिली जिसे सुनियोजित तरीके से छात्र आन्दोलन के माध्यम से किया गया । यह आन्दोलन पहले शुल्क दर में वृद्धि तथा परिसर से संबंधित अन्य समस्याओं पर आधारित था जिसमे छात्र आंदोलन के नाम पर शिक्षकों से दुर्व्यवहार करना तथा तोड़ फोड़ करना शामिल था । लेकिन लोकतंत्र के नाम पर सरकार के खिलाफ प्रदर्शन करते करते सरकार ये लोग भारत के गौरव को ठेस पहुंचा रहे हैं । जेएनयू के वामपंथी छात्रों द्वारा स्वामी विवेकानंद जी के प्रतिमूर्ति से छेड़खानी की गई,साथ ही मूर्ति के आस पास ” भगवा जलेगा “, Fassism will die” तथा अन्य अभद्र गलियाँ लिखी गयी थी । स्वामी विवेकानंद भारत के युवाओं के आदर्श है ऐसे मे कुछ तथाकथित वामपंथी विचार के लोग मिल कर पूरे युवा वर्ग को कैसे अपमानित कर सकता है । एक्टिविज़्म के नाम पर दीवारों को गंदा किया जाना अशोभनीय है । मुझे आशा है की आरोपित गुंडो पर सरकार द्वारा उचित कारवाई की जाएगी ।

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-प्रियांक पाठक, छात्र, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, दिल्ली

राष्ट्र की प्रगति एवं उन्नति में युवाओं का महत्वपूर्ण योगदान होता है। जेएनयू में जो कुछ हो रहा है वह नया नहीं है । याद कीजिए 2016 की घटना को, जिसमें अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर भारत तेरे टुकड़े होंगे के नारे लगाए गए । इसके बाद उन्हें खूब चर्चा बटोरने और राजनीतिक लाभ मिला । ये लोग उन्हीं चीजों से प्रेरित होकर इस तरह के कृत्य कर रहे हैं । किसी भी आंदोलन का उद्देश्य सकारात्मक होना चाहिए जिसे समाज एवं देश उन्नति की ओर अग्रसर हो सके । अपने व्यक्तिगत विचार के लिए किसी भी तरह का आंदोलन सकारात्मक नहीं हो सकता ।

प्रशांत सिंह कश्यप, नागपुर

विद्या ददाति विनयम… विद्या से विनय आती है, उसी विनय से सकारात्मक समाज का निर्माण होता है लेकिन जब विद्या ग्रहण करते हुए हिंसा का रास्ता अपनाया जाए तो यह विद्या का अपमान है । उस विद्या के आश्रम का अपमान है जहां विद्या ग्रहण की जाती है। लोकतांत्रिक देश में अधिकारों के लिए लड़ने से कोई मना नहीं करता लेकिन रास्ते भी सभ्य होना चाहिए । शिक्षकों पर तंज कसना, महापुरूषों के प्रतिमाओं का अपमान करना, दीवारों पर अपशब्द लिखना कहां तक उचित है । सभ्य समाज में इन सब चीजों का कोई स्थान नहीं होता ।

– गौरव रंजन, शोधार्थी ( केन्द्रीय विश्वविद्यालय, बिहार )

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