जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में 5 जनवरी 2019 के घटनाक्रम ने नववर्ष के प्रथम सप्ताह में खुशियां मना रहे करोड़ों भारतवासियों को झकझोर कर रख दिया। मीडिया की सरगर्मियों ने इसे उछाल कर जन-जन तक पहुँचा दिया। छात्र हित में देश के विभिन्न कोने से मुट्ठी भर लोग सड़कों पर उतर आए। अगले दिन भीड़-तंत्र के बाजारवाद ने दीपिका पादुकोण को अपनी फिल्म ‘छपाक’ के प्रोमोशन के निमित्त विश्वविद्यालय में आंदोलनरत छात्रों के बीच पहुँचा दिया। कुछ डिजाइनर पत्रकारों के द्वारा खबरों की ऐसी ड्रेसिंग की गयी कि लगा ‘जयप्रकाश नारायण आंदोलन’ की पुनरावृति होने वाली हो। देश में ऐसा माहौल बनाया गया, ऐसा भ्रम जाल फैलाया गया कि छात्रों को लगा कि सरकार उनके खिलाफ है और हाल ही में बने ‘नागरिक संशोधन अधिनियम 2019’ का खिलाफत करना उनका धर्म है। वामपंथियों के चाल के तहत कई क्षेत्रों में छात्रों ने ‘मौलाना राजनीति’ के तहत मुस्लिमों के साथ मिलकर सरकार की खिलाफत की। अब वामपंथी की सुर को दिल्ली में प्रियंका गांधी आवाज दे रही थी और मुंबई में बसे बॉलीवुड के वासेयपुर गिरोह। चुपके से हिप्पी संस्कृति और वाम सोशल मीडिया से प्रभावित कुछ युवतियों ने आजाद कश्मीर का नारा भी झोंक दिया। इन आंदोलनकारियों ने अर्बन नक्सल के नेतृत्व में डफली के थाप पर हिचकोले खाते भारत विरोधी नारे लगाए।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में ‘शिक्षण’ तथा ‘छात्रावास’ शुल्क में वृद्धि की घटना हमारे सामने एक ऐसा स्पेक्टिकल बनकर सामने आया जिसके नैरेटिव ने विश्वविद्यालय के 50 वर्ष के इतिहास को पोस्टमार्टम कर दिया। वैकल्पिक विचारधाराओं को पनपने तथा क्षेत्रीय स्तर पर सामाजिक शोध को अंजाम देने हेतु अधिकतर विभागों की स्थापना की गयी। स्वतंत्रता उपरांत जर्जर भारत को विश्व समाज से किस प्रकार सहयोग प्राप्त होता रहे, इस संदर्भ में बनने वाले विदेशी नीति और अंतरराष्ट्रीय संबंध की जमीन तलाशने के लिए ‘अंतरराष्ट्रीय अध्ययन संस्थान’ शीघ्र ही विश्वविद्यालय का आभूषण बना। सामाजिक विज्ञान, मानविकी तथा विज्ञान के अध्ययन व् अध्यापन के क्षेत्र में विश्वविद्यालय ने विश्व में कीर्तिमान स्थापित किये। जवाहरलाल नेहरू शुरुआत से ही ‘फेबियन समाजवादी’ थे, इसी आग्रह को इंदिरा जी ने विश्वविद्यालय के रूप में मूर्त रूप दिया। भारतीय-सोवियत रूस संबंध ने इसे और प्रखर बनाया। इसके ज़र्रे-ज़र्रे में पहले समाजवाद’ और फिर ‘साम्यवाद’ की रंगत चढ़ने लगी। यहाँ के छात्रों के आदर्श माओ, कास्त्रो तथा चैगुवेरा बने, क्यूबा की बरसात ने यहाँ के वामपंथी छात्रों को भिंगोया। यहाँ के आचार्यों ने क्षेत्र अध्ययन के नाम पर शोध छात्रों को नक्सल आंदोलन को प्राणवायु देने के लिए देश के कोने-कोने तक भेजा। अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार के नाम पर यहाँ के शिक्षक तथा छात्रगण विदेशी भूमि पर कश्मीरी अलगाववादी नेताओं से मिलते रहे और यहाँ कश्मीर में मानवाधिकार हनन की बात करते रहे। इस परंपरागत देश भारत में ‘नारी तू नारायणी’ की अवधारणा को तार-तार कर जेएनयू के छात्राओं को यह बताया गया आपकी आजादी का बाधक आपकी शुचिता, नारी सदृश्य कपड़े तथा मनुवादी सोच है, इसको त्याग कर पुरुषों की बराबरी करो और सामंतवादी और पूंजीवादी समाज को बदल डालो। पीअरे बोर्दिओ के कथन ‘शिक्षा शोषण का माध्यम है’ और यह पूंजीवाद को बढ़ावा देता है जेएनयू में धड़ल्ले से प्रसारित हुआ। 80 के दशक के अंतिम वर्षों में संपूर्ण विश्व से वामपंथ तेजी से ओझल हो रहा था, ‘निगमित पूंजीवाद’ ने इसके अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया था, वामपंथ का अंतिम साँप जनमेजय यज्ञ के दौरान राजा परीक्षित के आसन में शरण पा गया और शीघ्र ही ‘नव वामपंथ’ के नए शरीर को लेकर अमेरिका से शुरू होकर भारत तक पहुँच गया। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में नव वामपंथ के सभी संस्करण को हृदय से लगाया और सरकार के खर्चे पर योग्य मेधावी और निर्धन छात्रों को प्रोत्साहित करने वाले संस्थान की जगह वामपंथी शिक्षक तथा छात्रों का आरामगाह बना। प्रशासनिक व शैक्षणिक व्यवस्था ऐसी बनाई गयी जिससे राष्ट्रवादी सोच हतोत्साहित हो तथा वामपंथी छात्रों को विश्वविद्यालय में स्थान मिल सके। नव वामपंथ के नाम पर यहाँ के शिक्षक तथा छात्र समुदाय द्वारा सरकार के खिलाफ सैकड़ों आंदोलनों को जन्म दिया गया। कभी ईसाई मिशनरियों को साथ देना, नक्सल किसान-मजदूरों को समर्थन देना, दलितों को आंदोलनरत करना आदि इनका राष्ट्रधर्म बन गया था।
सन 2014 में भाजपा की सरकार आने पर नव वामपंथ को अस्तित्व का संकट महसूस होने लगा, पहली कतार में शिक्षाविदों और लेखकों को खड़ा कर ‘पुरस्कार वापसी समारोह’ को अंजाम दिया गया बाद के वर्षों में ‘मॉब- लिंचिंग’, ‘ईवीएम में फ्रॉड’, ‘सेना पर शक’ जैसे कृत्य कर सरकार को बदनाम करने के अथक प्रयास किए गए । नव वामपंथियों की यह आदत रही है कि भले सत्ता उनके हाथ में ना रहे पर संस्थानों को इस प्रकार से अपने कब्जे में रखते हैं कि सत्ता पर सदैव उनका दबाव बना रहता है। अरुंधति जैसी देशद्रोही को उकसा कर कश्मीर को भारत का हिस्सा ना मानना, नेशनल पापुलेशन रजिस्टर में अपने नाम की जगह रंगा-बिल्ला लिखवाना, अखलाक की हत्या गौ-मांस खाने पर करना जैसे झूठे अफवाहों से नव वामपंथ उन्मुक्त युवा मन को प्रभावित करने का घिनौना प्रयास करता है। अनैतिक संबंधों तथा नशीली द्रव्यों का धड़ल्ले से प्रयोग इन युवाओं के मध्य आम बात है, हुक्का बार में थिरकते युवा “वि शेल फाइट, वी शेल फाइट” तथा “पीपुल्स यूनाइटेड पीपुल्स फाइट” का नारा मजबूत करते रहते हैं। नव वामपंथ वह भेड़िया है जिसके मुँह में तो खून लगा है पर वह राम नाम की गांधीजी वाली खद्दर ओढ़ चलता है।
वर्तमान सरकार ने जब गरीब जनता की कमाई पर पल बढ़ रहे नव वामपंथियों के समाज के प्रति उनके योगदान की समीक्षा की तो निल बटे सन्नाटा पाया। रोमिला थापर, सी.पी.भावरी, इरफ़ान हबीब जैसे प्रोफेसर एमरेटस ने विश्वविद्यालय से प्राप्त होने वाली राशि तथा सुविधाओं का ब्यौरा देने से इनकार कर दिया, वामपंथी शिक्षाविदों ने इनके समर्थन में जुलूस निकाला यह किस्सा कुछ ऐसा ही था जैसे कश्मीर में अलगाववादी सरकारी खर्च पर आलीशान जिंदगी जी रहे थे। स्वतंत्रता उपरांत विचारधाराहीन कांग्रेस थाली के बैंगन की तरह नव वामपंथ का तेजी से दामन थाम लिया। सन 2019 का आम चुनाव सभी राजनीतिक दलों ने भाजपा के खिलाफ लड़ी और मुंह की खायी। राष्ट्र धर्म से अभिभूत भाजपा और अन्य विचारधारा परिवार राष्ट्र धर्म के मार्ग पर सशक्त भारत के निर्माण के लिए अनुच्छेद 370 को हटाया शीघ्र ही राम जन्मभूमि को मुक्त कर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को दृढ़ करते हुए ‘नागरिक संशोधन अधिनियम 2019’ को संसद से स्वीकृत कराया। विरोधी राजनीतिक दल हाशिए पर चले गए और सब मिलकर तेरह-चौदह मुस्लिमों की आबादी पर रोटी सेकने लगे ।
कांग्रेसियों तथा क्षेत्रीय दलों ने सड़क पर उतरकर मुस्लिम समाज को मौलाना राजनीति से उकसा कर देशव्यापी हिंसा को अंजाम दिया, नव वामपंथियों ने शिक्षण संस्थाओं के माध्यम से छात्र-राजनीति को गलत दिशा में मोड़ कर सरकार की खिलाफत की। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, जामिया मिलिया इस्लामिया, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, हैदराबाद विश्वविद्यालय, ओसमानिया विश्वविद्यालय आदि में सरकार द्वारा पारित ‘नागरिक संशोधन अधिनियम’ तथा ‘एनआरसी’ के खिलाफ आंदोलन हुए। ममता बनर्जी ने सड़क पर उतर संविधान का मजाक उड़ाया, अधिनियम का विरोध किया।
जेएनयू में विगत 75 दिनों से चल रहा छात्र आंदोलन एक सामान्य आंदोलन था जिसे वामपंथियों ने कैंपस के बाहर की राजनीति से जोड़कर भयावह बना दिया। ‘लिंगदोह कमिटी’, ‘पुनैया कमिटी’ आदि रिपोर्ट के उपरांत छात्रों के आंदोलन विश्वविद्यालय में होते रहे, स्थिति सामान्य रही और काम-काज चलता रहा। कांग्रेस के दुलारे नेता पी चिदंबरम के वित्तीय प्रबंधन ने देश में रोजगारों को घटाया, शिक्षण शुल्क व छात्रावास शुल्क में बढ़ोतरी की, भारत के सभी विश्वविद्यालय में तार्किक ढंग से सभी प्रकार के शुल्क वृद्धि का समायोजन किया गया परन्तु जेएनयू में सालों से यह तुष्टिकरण की राजनीति के तहत यह मुद्दा टलता रहा। वर्तमान वाईस चांसलर ने अपनी लोकप्रियता की परवाह न करते हुए शुल्क वृद्धि को समायोजित करने का प्रयास किया। ध्यातव्य है कि हाल के वर्षों में विश्वविद्यालय में कई नए विभागों तथा संकायों की शुरुआत की गयी। मंत्रालय के दबाव में युक्तिसंगत फैसले लेने का समय आ गया था इसी दौरान वाईस चांसलर की सभी शैक्षणिक नीतियों का लगातार विरोध वामपंथी शिक्षकगण तथा छात्रगण करते रहे, वाईस चांसलर के कार्यालय तथा आवास पर पहुंचे, उनके खिलाफ नाकेबंदी की उनके आवास के अंदर घुस कर उन्हें प्रताड़ित करने का प्रयास किया जाता रहा। इच्छा रहते हुए भी वाईस चांसलर शुल्क वृद्धि के निमित्त पूर्व सहमति बनाने में असफल रहे। नई छात्रावास नीति के तहत जब छात्रावास के नए नियम तथा शुल्क की घोषणा की गयी तो छात्रगण विशेषकर वामपंथियों ने हिंसक आंदोलन की शुरुआत की, गरीब और दलित के नाम शुल्क वापसी के लिए आंदोलन तीव्र किए गए, सेमेस्टर की शैक्षणिक गतिविधियों को प्रभावित किया गया, परीक्षा का पूर्ण रूप से बहिष्कार किया गया। वाईस चांसलर ने अपनी सूझबूझ का प्रयोग करते हुए शुल्कों में कटौती की तथा व्हाट्सएप के जरिए परीक्षाएं आयोजित की ताकि छात्रों के कैरियर पर असर ना पड़े, सब कुछ पटरी पर वापस आ ही रहा था छात्र उमंग और उम्मीद के साथ विंटर सेमेस्टर में अपना नामांकन करा रहे थे, इधर वामपंथियों की जमीन खिसक रही थी। वामपंथियों के गुंडों ने हिंसा को जन्म दिया, 3 जनवरी को छात्रों द्वारा किए जा रहे रजिस्ट्रेशन के विरोध में वामपंथी छात्रों ने मेन सर्वर को तोड़ दिया और धरना-प्रदर्शन पर बैठ गए, 5 जनवरी को छात्रों ने हिंसा को खुलेआम हॉस्टलों में, सड़कों पर टीचर्स के घरों पर अंजाम दिया, 35 छात्र-छात्राओं को बुरी तरीके से घायल किया गया। ठीक उसी वक्त लोगों की आंखों में धूल झोंकने के लिए मृदुला मुखर्जी के नेतृत्व में वामपंथी शिक्षक गण का शांति मार्च निकला, इतना ही नहीं उसी क्षण जेएनयू मुख्य द्वार पर अर्बन नक्सल योगेंद्र यादव के नेतृत्व में हजारों की भीड़ जेएनयू वामपंथी छात्रों के समर्थन में आ खड़ी हुई थी। वामपंथी छात्रों ने सरकार से जोड़कर भाजपा को देखा और इससे संबंधित विद्यार्थी परिषद के छात्रों को चुन- चुन कर बुरी तरीके से घायल किया टूटे हाथ-पैर, माथे पर टांके स्पष्ट नजर आ रहे थे। उपद्रवियों ने कार तोरे, बाईक तोड़े, प्रोफेसरों को पीटा और धमकाया तथा सुरक्षा बल पर नकाब पहन पत्थर फेंके, ऐसा लग रहा था जैसे हमास के कार्यकर्ता सड़कों पर उतर आए हो। हिंसा तेज हुई, प्रशासन को पुलिस से आग्रह करना पड़ा स्थिति को संभालने के लिए और अंततः बल प्रयोग के द्वारा स्थिति पर काबू पाया गया और शीघ्र ही स्थिति को नियंत्रण में लाया गया। इसके कुछ दिन पूर्व ही आइक्यूएसी के पूर्व प्रमुख प्रोफेसर जोहरी को मोटरसाइकिल से उतारकर सरेआम सड़कों पर पीटा। प्रशासन सदैव जेएनयू के अंदर होने वाली हिंसक घटनाओं के प्रति संवेदनशील होता है और यह चाहता है की अंत तक ऐसी परिस्थिति का निर्माण ना हो जिससे कैंपस के अंदर पुलिस बल को बुलाकर विद्यार्थी उनके हवाले कर दिया जाए। ऐसा इस बार भी हुआ, सर्वर के तोड़े जाने के बावजूद भी प्रशासन ने धैर्य रखा परंतु जब हिंसा परवान चढ़ने लगी और कई लोग घायल हो गए पुलिस फोर्स को बुलाना पड़ा। हिंसा करने वाले अंदर और बाहर के तत्व पहचान लिए गए हैं, शीघ्र ही उन पर कार्यवाही भी होगी यह निश्चित है। वामपंथियों को शायद पता नहीं था कि विगत कुछ वर्षों से उनके द्वारा किए जाने वाला हिंसा उन्हें गर्त में मिला देगा, भारतीय आंदोलन में हिंसा का कोई स्थान नहीं रहा, स्वयं गांधीजी ने अहिंसा का प्रयोग कर भारत को स्वतंत्र कराया
वामपंथियों को लेनिन, स्टालिन तथा मऊ की हिंसा में विश्वास है, हिंसा को यथार्थ बनाने वाले यह लोग अपने अंतिम चरण में है। वर्तमान नवभारत में भारत की अवहेलना व् आलोचना कर कोई बच नहीं सकता। जेएनयू में वामपंथ का स्रोत यहाँ के शिक्षक तथा शैक्षणिक गतिविधियां रही हैं। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के तत्कालीन राष्ट्रीय संगठन मंत्री श्री सुनील आंबेकर जी ने राष्ट्र विरोधी, देशद्रोही, टुकड़े-टुकड़े गैंग के नब्ज को समय रहते पहचाना और सही मायने में विश्वविद्यालय को राष्ट्रवादी विश्वविद्यालय बनाने का प्रयास किया। लगातार प्रयास में वामपंथी विभाग छोड़ सड़क पर हिंसा की राजनीति पर उतारू हो गए और आज देश के सामने शर्मसार हुए हैं। नव वामपंथी दिल्ली के आलीशान स्टूडियो में बैठ वामपंथ के पक्ष में मीडिया ट्रायल कर रहे हैं, जनता सब जान चुकी है। जेएनयू हिंसा में विद्यार्थी परिषद के छात्रों तथा शिक्षकों को जो चोट पहुँची है उसकी पीड़ा जे.एन.यू. में वामपंथ के किले के ढ़हने की खुशी से काफी कम है।
( लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की कोर्ट मेंबर हैं एवं बसंत महिला महाविद्यालय, वाराणसी में एसोसिएट प्रोफेसर हैं । ये लेखक के निजी विचार हैं।)