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“सुखदेव थापर”  आज़ादी की मशाल

सौरभ पाण्डेय

भारत को आज़ाद कराने के लिये अनेकों भारतीय देशभक्तों ने अपने प्राणों की आहुति दे दी। ऐसे ही देशभक्त बलिदानी में से एक थे, सुखदेव थापर, जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन भारत को अंग्रेजों की बेंड़ियों से मुक्त कराने के लिये समर्पित कर दिया। सुखदेव महान क्रान्तिकारी भगत सिंह के बचपन के मित्र थे। दोनों साथ बड़े हुये, साथ में पढ़े और अपने देश को आजाद कराने की जंग में एक साथ भारत माँ के लिये बलिदान हो गये।

सुखदेव का प्रारम्भिक जीवन लायलपुर में बीता और यही इनकी प्रारम्भिक शिक्षा भी हुई। बाद में आगे की पढ़ाई के लिये इन्होंने नेशनल कॉलेज में प्रवेश लिया। नेशनल कॉलेज की स्थापना पंजाब क्षेत्र के काग्रेंस के नेताओं ने की थी, जिसमें लाला लाजपत राय प्रमुख थे। इस कॉलेज में अधिकतर उन विद्यार्थियों ने प्रवेश लिया था जिन्होंने असहयोग आन्दोंलन के दौरान अपने स्कूलों को छोड़कर असहयोग आन्दोलन में भाग लिया था। इस कॉलेज में ऐसे अध्यापक नियुक्त किये गये जो राष्ट्रीय चेतना से पूर्ण इन युवाओं को देश का नेतृत्व करने के लिये तैयार कर सके। लाहौर कॉलेज में ही सुखदेव की मित्रता भगत सिंह, यशपाल और जयदेव गुप्ता से हुई। एक जैसे विचार होने के कारण ये बहुत घनिष्ठ मित्र बन गये। हर एक गतिविधि में ये एक दूसरे को पूर्ण सहयोग और परामर्श देते थे।

सुखदेव स्पष्टवादी थे। उनका मानना था कि चाहे जो भी कार्य किया जाये उसका उद्देश्य सभी के सामने स्पष्ट होना चाहिये। ये वहीं करते थे जो इन्हें उचित (ठीक) लगता था। यही कारण है कि जब साण्डर्स की हत्या की गयी तो इस हत्या के पीछे के उद्देश्यों को पर्चें लगा कर लोगों तक पहुँचाया गया। इनकी स्पष्टवादिता का प्रमाण इनके द्वारा गाँधी को लिखे गये खुले पत्र के द्वारा प्राप्त होता है। इन्होंने मार्च 1931 में गाँधी को एक पत्र लिखकर उनसे से उनकी नीतियों को जनता के सामने स्पष्ट करने के लिये कहा।

सुखदेव को लाहौर षड़यंत्र केस में गिरफ्तार किया गया। इसके बाद इन पर मुकदमा चला इस मुकदमें का नाम “ब्रिटिश राज बनाम सुखदेव व उनके साथी” था क्योंकि उस समय ये क्रान्तिकारी दल की पंजाब प्रान्त की गतिविधियों का नेतृत्व कर रहे थे। इन तीनों क्रान्तिकारियों (भगत सिंह, सुखदेव व राजगुरु) को एक साथ रखा गया और मुकदमा चलाया गया। जेल यात्रा के दौरान इनके दल के भेदों और साथियों के बारे में जानने के लिये पुलिस न इन पर बहुत अत्याचार किये, किन्तु उन्होंने अपना मुँह नहीं खोला।

1929 में राजनैतिक कैदियों के साथ दुर्व्यवहार के विरोध में जब भगत सिंह ने भूख हड़ताल का आयोजन किया तो सुखदेव ने भी अपने साथियों का साथ देने के लिये भूख हड़ताल में भाग लिया। इन्होंने मरते दम तक अपनी दोस्ती निभाई। जब भी भगत सिंह को इनके साथ की आवश्यकता होती ये सब से पहले उनकी मदद करते थे तो इतने बड़े आन्दोलन में उन्हें अकेला कैसे छोड़ सकते थे। यदि भगत सिंह दल का विचारात्मक नेतृत्व करते और सुखदेव दल के नेता के रुप में कार्य करते थे। यहीं कारण है कि साण्डर्स की हत्या में सुखदेव के प्रत्यक्ष रुप से शामिल न होने के बाद भी इन्हें इनके दो साथियों भगत सिंह और राजगुरु के साथ फाँसी की सजा दी गयी। 23 मार्च 1931 की शाम 7 बजकर 33 मिनट पर सेंट्रल जेल में इन्हें फाँसी पर चढ़ा दिया गया और खुली आँखों से भारत की आजादी का सपना देखने वाले ये तीन दिवाने हमेशा के लिये सो गये।

(लेखक, अभाविप गुजरात प्रांत के प्रांत कार्यालय मंत्री हैं।)

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