स्वराज पखवाड़ा – इतिहासों में गुम क्रांतिकारियों की वीरगाथा
१९०० के दशक में अंग्रेजों के अधीन त्रस्त भारतवर्ष पूरा युद्धं देहि भाव से लगा हुआ था । उस समय माँ भारती की मुक्ति के लिये अनेकों राष्ट्रभक्त वीर अपने प्राणों की आहुति दे गये थे । १७०० ई० में आकर व्यापार के माध्यम से भारत में घुसने वाले ईस्ट इंडिया कंपनी ने जब छल से शासन की बागडोर अपने हाथों में लिया था तब सबसे अन्त में वह उत्तर पूर्वाञ्चल में शासन कर पाये थे । १८२६ में हुए इयाण्डाबु सन्धि के बाद ही अंग्रेजों के लिए उत्तर पूर्वाञ्चल में प्रवेश करना सहज हुआ था । अंग्रेजों द्वारा हो रहे अत्याचार के कारण देशभर में स्वाधीनता के लिए अगन जल उठी थी, जिस की गरम लपटों ने असम को भी उत्ताल कर दिया था । नर-नारी सभी अपनी मातृभूमि को मुक्त करने के लिये कमर कसकर लगे हुए थे ।
भारतवर्ष के स्वतन्त्रता संग्राम के अजस्र बलिदानियों के स्मरण के क्रम में असम के भी अनेक वीर-वीरांगनाओं के नाम सुवर्ण अक्षरों से लिपिबद्ध है । असम के छोटे-छोटे बालक-बालिकाओं के मुखारविन्द मे जिनके नाम सदा प्रस्फुटित होते हैं वैसे सेनानी जैसे-कनकलता बरुवा, कुशल कोँवर, भोगेश्वरी फुकननी, मणिराम देवान, मुकुन्द काकति, पियलि फुकन आदि सभीको इस लेख के प्रारम्भ में नतमस्तक होकर श्रद्धापूर्वक नमन । इन महान व्यक्तित्वों के मध्य नारी शक्ति की आदर्श, असम के युवतियों की प्रेरणा की उत्सरूपी भारतीय स्वाधीनता संग्राम की पहली महिला बलिदानी थी कनकलता बरुवा । वह सच में असाधारण थी । मातृभूमि के लिए उनका अदम्य साहस, असीम मनोबल और गंभीर देशप्रेम के कारण कनकलता का नाम आज भी प्रत्येक असमीया जन-जीवन के मन व प्राण में जीवन्त है ।
१९२४ ई० के २२ दिसम्बर को वर्तमान विश्वनाथ जिला तब के अविभक्त दरं जिले के गहपुर नामक तहसील के बरङाबारी गांव में कनकलता का जन्म हुआ था । उनके पिता का नाम बगाराम (कृष्णकान्त) बरुवा और माँ का नाम कनकेश्वरी (कर्णेश्वरी) बरुवा था । भाई रजनीकान्त और बहन थी देवबाला । पिता एक किसान थे । उनके दादाजी घनकान्त बरुवा दरं जिले के एक प्रख्यात शिकारी थे । वह आहोम शासन के दोला काषरीया वरुवा वंशोद्भूत है । बाद में उनके वंश द्वारा दोला काषरीया त्याग कर मात्र बरुवा लिखना शुरु किया गया । कनकलता की माँ उनकी पाँच साल के उम्र में ही गुजर गयी । पिता दूसरा विवाह करते हैं । जब तेरह साल की होती है तो पिता का भी देहावसान हो जाता है । तीसरी कक्षा तक पढ़ाई कर छोटे भाइ-बहन की देखभाल करने के लिए पढ़ाइ भी छोड़नी पड़ती है । बचपन में ही अनाथ हुए यह बच्चे अपने दादाजी और चाचाजी की निगरानी में बड़े हो रहे थे । पढ़ाई न होने के बाद भी कनकलता खेती-बाड़ी, सिलाई-कढ़ाई, रसोई आदि में प्रवीण थी । उनके स्वभाव में, बोली में जो मिठास थी उसके चलते केवल घर ही नहीं अड़ोस-पड़ोस में भी वह सबकी प्यारी थी ।
महात्मा गान्धी के नेतृत्व में १९४२ में जो भारत छोड़ो आन्दोलन चल रहा था उसमें असम के लोगों ने भी बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था । उसी आन्दोलन के प्रभाव से कनकलता के मन में भी देशप्रेम का भाव प्रगाढ़ हुआ था । उस आन्दोलन में ज्योतिप्रसाद आगरवाला के नेतृत्व में असम में ‘मृत्यु वाहिनी’ का गठन किया गया था । कनकलता भारत के इसी स्वाधीनता आन्दोलन की एक अग्रणी सेविका थी । कनकलता की इच्छा नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के आजाद हिन्द फौज में जाने की थी, परन्तु आयुवर्ष कम होने के कारण वह मृत्युवाहिनी (जो कांग्रेस की योजना से थी) से जुड़ गई । १९४२ के २० सितम्बर को इन रण-बाँकुरों ने अंग्रेज के विरुद्ध एक योजना बनाई । उनकी योजना थी कि २० सितम्बर के दिन प्रत्येक पुलिस चौकी में फ़हर रहे ब्रिटिश के झण्डे को उखाड़ फेंकना है और उसके स्थान पर भारत का राष्ट्रीय ध्वज फहराना है । उसी के लिये तैयार की गयी थी मृत्युपण वाहिनी की । यह वाहिनी भी गान्धीजी के ‘करो या मरो’ मन्त्र से दीक्षित थी ।
तय दिवस “वन्दे मातरम” की ध्वनि से आकाश गुञ्जायमान करते हुए वाहिनी पश्चिम की ओर से गहपुर थाना की ओर चल पड़ी थी । सबसे आगे नेतृत्व कर रही थी एक १७ साल की तरुणी । उसके हाथ में था भारत का तिरंगा । समूह के अन्य लोगों में शक्ति सञ्चार करने हेतु वह उदात्त स्वर से असमीया में देशभक्ति गीत गा रही थी । गीत दोहराते हुए वह दल जब थाने के सामने पहुंचा तब पुलिस ने उनका रस्ता रोक लिया और रेवती महन सोम नाम के पुलिस अफ़सर ने हुंकार कर रहा – “सावधान, और आगे मत बढ़ो, एक कदम भी आगे बढ़ाया तो गोली दाग दूंगा ।” इतना सुनते ही परिवेश गरम हो गया था । लेकिन हाथ में पताका लिये वह लड़की पुलिस के चेतावनी की तरफ ध्यान न देते हुए वीरतापूर्वक कहती है – “यह हमारा देश है, इसमें विदेशियों का कोइ अधिकार नहीं है । थाने में हम तिरंगा फहराके रहेंगे।” और ऐसे वह सभी आन्दोलनकारियों को आगे आने के लिए आह्वान करती है । थाने में घूसने की चेष्टा करते हुए अन्य लोगों के साथ साथ कनकलता की भी पुलिस से मुठ्भेड़ हो जाती है । ऐसे में भी जब साहस के साथ पताका फहराने के लिए कनकलता आगे बढ़ती है तभी सिपाही बगाइ कछारी कनकलता पर गोली चला देता है । गोली कनकलता का सीना भेद जाती है । वह वहीं गिर जाती है । पताका को सम्भालते हुए जब उसके पीछे खड़े मुकुन्द काकति तिरंगा को गिरने नहीं देते हैं और अपने हाथ में लेकर जब अग्रसर होते हैं तब पुलिस उनपर भी गोली चला देती है । और वह भी वहीं गिर जाते हैं । इसप्रकार कनकलता, मुकुन्द काकति आदि वीर शहीद हो गये हैं ।
१९४२ के २० सितम्बर को मात्र १७ साल की आयु में कनकलता बरुवा देश के लिये वीरतापूर्वक मृत्यु को स्वीकार कर लेती है । कनकलता बरुवा को इसिलिए बीरबाला और शहीद कनकलता बरुवा के नाम से भी जाना जाता है ।
कनकलता बरुवा के वीरत्व के प्रति श्रद्धा सुमन अर्पण करते हुए सरकार ने अनेक स्थानों में कनकलता की स्मृति में चिन्ह निर्माण किया है । उनमें से तेजपुर का कनकलता उद्यान उल्लेखनीय है । १९९७ में कमीशन किये Indian Coast Guard के First Patrol Vessel ‘ICGS कनकलता बरुवा’ का नामकरण बरुवा के नाम पर ही किया गया है । कनकलता ने जो पुलिस को कहा था वह जवाब आज भी लोगों के लिये प्रेरणादायी है । सांस्कृतिक क्षेत्र में ‘एपाह फुलिल एपाह सरिल’ नाम के चन्द्र मुदोइ निर्देशित असमीया चलचित्र में कनकलता के जीवन को दिखाया गया है । उसीका ‘पूरब की आवाज’ नामक हिन्दी संस्करण भी व्यापक रूप से दर्शकों के द्वारा सराहा गया है । पर यह बात भी गौर करने लायक है कि एक ओर जहां कनकलता जैसी वीरांगना के बारे में जानने को समाज में उत्सुकता का भाव है, वहीं पाठ्यपुस्तकों और अकादमिक जगत कनकलता के बारे में मौन दिखता है। कनकलता ने भारतमाता की सेवा में अपने प्राणों की आहुति दे दी थी, आज आवश्यकता है कि कनकलता को और उनके परम बलिदान को न सिर्फ असम में बल्कि पूरे भारतवर्ष में जाना और पहचाना जाए। आशा है यह लेख आपको कनकलता के बारे में और जानने को के लिए प्रेरित करेगा।
(लेखिका जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की शोध छात्रा हैं )