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मणिपुर का शेर : बीर टिकेंद्रजीत सिंह

अजीत कुमार सिंह by प्रोफेसर रसाल सिंह
August 13, 2020
in लेख
मणिपुर का शेर :  बीर टिकेंद्रजीत सिंह

बलिदान दिवस विशेष

मणिपुर राज्य की सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराएं और  प्राकृतिक सौन्दर्य भारतवासियों के लिए गौरव के विषय हैं, तो उसका शौर्य, साहस एवं त्याग-बलिदान से परिपूर्ण इतिहास भारतवासियों के लिए प्रेरणास्रोत है। सन् 1891 के एंग्लो-मणिपुर युद्ध में मणिपुर के बहादुर लोगों ने औपनिवेशिक शक्तियों का प्रतिरोध जिस वीरता और साहस के साथ किया; वह इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित है। भारत माता की स्वतंत्रता और सम्मान के लिए सन् 1891 के युद्ध में शहीद होने वाले वीरों के हम सदा ऋणी रहेंगे।

आज हम उन असंख्य वीरों को श्रद्धांजलि दे रहे हैं जिन्होंने सन् 1891 में सर्वशक्तिमान ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध लड़ते हुए अपना जीवन दाँव पर लगा दिया था। सन् 1891 में ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ हुए एंग्लो-मणिपुर युद्ध में शहीद होने वाले राज्य के वीर नायकों को श्रद्धांजलि देने के लिए मणिपुर राज्य प्रत्येक वर्ष 13 अगस्त के दिन “देशभक्त दिवस” मनाता है। वीर टिकेंद्रजीत सिंह भारत माँ के लिए प्राण उत्सर्ग करने वाले ऐसे ही एक जांबाज सपूत थे। मणिपुर के तत्कालीन साम्राज्य के राजकुमार टिकेन्द्रजीत महान देशभक्त और ब्रिटिश साम्राज्यवादी योजना के घोर विरोधी तथा देश की एकता-अखंडता के कट्टर समर्थक थे। उन्होंने स्स्वातन्त्र्य-वेदी में सहर्ष अपनी सभी राजसी सुख-सुविधाओं और अंततः जीवन की आहुति दी। उनका जीवन वीरता की साक्षात प्रतिमूर्ति था और उनका विश्वास था कि –“वीरभोग्या वसुन्धरा” अर्थात् वीर ही इस भूमि को भोगने के सच्चे अधिकारी हैं। उन्होंने साहसपूर्वक ब्रिटिश साम्राज्यवादी शक्ति के कूटनीतिक और विस्तारवादी कृत्यों से जनमानस को अवगत कराया तथा अदम्य साहस और  निर्भीकता के साथ अंग्रेजी साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद के विरुद्ध युद्ध किया। इसी कारण उन्हें ‘मणिपुर का शेर’ कहा जाता है। यहां तक कि ब्रिटिश भारत की तत्कालीन सरकार ने उनकी वीरता, निडरता तथा पराक्रम की तुलना एक ‘खतरनाक बाघ’ से की थी। कहा जा सकता है कि वे दैवीय शक्तियों का संयोग थे। क्योंकि –“उद्यमः साहसं धैर्यं बुद्धिः शक्तिः पराक्रमः। षडेते यत्र वर्तन्ते तत्र दैवं सहायकृत्” अर्थात्

जहाँ उद्योग, साहस, धैर्य, बुद्धि, शक्ति और पराक्रम ये छः (गुण) होते हैं वहाँ दैव भी सहायक होते हैं। इस परम पराक्रमी और बुद्धिमान सपूत को आमने-सामने के युद्ध में अंग्रेजों द्वारा नहीं हराया जा सका तो छल-बल का सहारा लेकर एक औपनिवेशिक कानून की आड़ में विशेष अदालत द्वारा उन्हें दोषी ठहराया गया। और सन् 1891 में 13 अगस्त के दिन बीर टिकेंद्रजीत को सार्वजनिक रूप से मौत के घाट उतार दिया गया।

टिकेन्द्रजीत सिंह महाराजा चंद्रप्रकाश सिंह और चोंगथम चानु कूमेश्वरी देवी की चतुर्थ संतान थे। उनका जन्म 29 दिसंबर, 1856 को हुआ था।  उन्हें “कोइरेंग” भी कहते थे क्योंकि वे बचपन से ही लोकप्रिय तथा स्वतंत्रता प्रेमी थे। धैर्यवान होने के साथ-साथ वे कुशाग्र बुद्धि वाले थे। बाद में वे मणिपुरी सेना के कमाण्डर नियुक्त हुए थे। भारत के स्वतंत्रता-संग्राम में उनका अद्वितीय स्थान है।

 

          प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण मणिपुर का अपना प्राचीनतम एवं गौरवपूर्ण इतिहास रहा है। मणिपुर के राजाओं ने सन् 1891 में अंग्रेजों से पराजित होने तक अपनी स्वतंत्रता और संप्रभुता के लिए लगातार संघर्ष किया था। एक लंबे और अनवरत संघर्ष के बाद ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने मणिपुर पर अपना आधिपत्य स्थापित किया। मणिपुर के आंतरिक संकट और उसके बर्मा के साथ चले 18 वर्ष लंबे संघर्ष का लाभ उठाकर वे ऐसा करने में सफल हुए। प्रिंस गंभीर सिंह के नेतृत्व में प्रथम  एंग्लो-बर्मी युद्ध (1824-1826) में मणिपुर ने बर्मा पर विजय प्राप्त की। नतीजतन, मणिपुर तबाही से उबर गया और गंभीर सिंह को मणिपुर का राजा बनाया गया। परन्तु उस समय राज्य की सभी महत्वपूर्ण शक्तियां अंग्रेजों के हाथ में थीं। राजा ब्रिटिश हस्तक्षेप का विरोध नहीं कर सकता था। राजा चंद्रकांत सिंह के उत्तराधिकारी महाराजा सुरचंद्र सिंह के शासनकाल में अंग्रेजों का हस्तक्षेप बहुत अधिक बढ़ गया था। जिसके परिणामस्वरूप 24 अप्रैल, 1891 को खोंगजोम युद्ध (अंग्रेज-मणिपुरी युद्ध ) हुआ। जिसमें वीर सेनानी टिकेंद्रजीत और पाओना ब्रजवासी जैसे अनेक योद्धाओं के जबर्दस्त संघर्ष और जनसामान्य के मजबूत प्रतिरोध के बावजूद मणिपुर अंग्रेजों के पूर्णतया अधीन हो गया।


राजपरिवार का सदस्य होने के नाते टिकेंद्रजीत अंग्रेजों के कूट स्वभाव से परिचित थे। अत: वे मणिपुरवासियों को उनके वास्तविक दृष्टिकोण और अंतरतम दुर्भावनाओं के बारे में सचेत करते रहते थे। महाराज गंभीर सिंह की मृत्यु के उपरान्त उनके बड़े बेटे, सुरचंद्र ने  मणिपुर के सिंहासन का दायित्व संभाला। अन्य राजकुमारों को राज्याधिकारी, सेना के जनरल और पुलिस प्रमुख के रूप में नियुक्त किया गया। बाद में, झलकारी की मृत्यु के बाद टिकेंद्रजीत को सेना का जनरल नियुक्त किया गया था। लेकिन राजकुमारों के बीच आपसी गलतफहमी और मनमुटाव पैदा हो गया। इसने अंततः राज-परिवार को दो गुटों में विभाजित कर दिया। एक गुट टिकेन्द्रजीत के साथ था तो दूसरा पाकसाना के नेतृत्व में कार्यरत था।

राजा इस स्थिति से अनजान रहे और अराजकता बहुत ज्यादा बढ़ती चली गई। टिकेंद्रजीत को लगता था कि राजा पाकसाना के पक्षधर हैं। अंग्रेज सूदखोरी से अपने साम्राज्य का विस्तार करते थे। वे मोटी ब्याज पर राजा और राजपरिवार को कर्ज देकर धीरे-धीरे उनके राज्य के हिस्सों को हड़पते चले जाते थे। यही नीति उन्होंने मणिपुर के राजपरिवार के प्रति भी अपनायी। इसे राजकुमार टिकेंद्रजीत  ने स्वीकार नहीं किया। वे इस तथ्य से भी भलीभांति अवगत थे कि ब्रिटिश लोग मणिपुर को अपनी एक “कॉलोनी” बनाने के लिए अवसर की प्रतीक्षा कर रहे हैं। इसलिए उन्होंने अपने राज्य की संप्रभुता तथा स्वतंत्रता की रक्षा हेतु एक योजना बनाई। 22 सितंबर, 1890 को टिकेंद्रजीत ने दो अन्य राजकुमारों एंगुसन और जिलंगंबा के साथ सुरचंद्र सिंह के खिलाफ विद्रोह किया और राजा सुरचंद्र को सिंहासन से हटा दिया। सुरचंद्र सिंह ने ब्रिटिश निवास में शरण ले ली। तब कुलाचंद्र ने राज्यभार संभाला और टिकेन्द्रजीत उसके उत्तराधिकारी बने। इस घटना को मणिपुर के इतिहास में ‘पैलेस विद्रोह‘ के रूप में जाना जाता है।

बाद में, पूर्व शासक सुरचंद्र सिंह कलकत्ता के लिए रवाना हुए। लेकिन उन्होंने टिकेंद्रजीत को सूचित किया कि वे धार्मिक-यात्रा पर वृंदावन जा रहे हैं। कलकत्ता पहुंचने के बाद उन्होंने मणिपुर राज्य का अपना सिंहासन पुन: पाने के लिए ब्रिटिश सरकार को एक याचिका भेजी। उनकी इस याचिका के परिणामस्वरूप अंग्रेज मणिपुर की आतंरिक फूट और संकट से बखूबी अवगत हो गये। वास्तव में, इस याचिका ने ब्रिटिशों को मणिपुर के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने का मौका प्रदान किया। भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड लैंड्सडाउन ने कुलाचंद्र को राजा बनाए रखने का निर्णय लिया। लेकिन मणिपुर सिंहासन के उत्तराधिकारी पद से टिकेंद्रजीत को हटाने का आदेश दिया गया। क्योंकि अंग्रेज जानते थे कि टिकेंद्रजीत जैसा राष्ट्रवादी उनकी औपनिवेशिक योजनाओं में बहुत बड़ी अड़चन है। उसकी अनुपस्थिति में ही मणिपुर को ब्रिटिश उपनिवेश में रूपांतरित किया जा सकता है। अत: 22 मार्च, 1891 को मुख्य आयुक्त जे.डब्ल्यू. क्विंटन सैनिकों की टुकड़ी के साथ मणिपुर पहुंचा। टिकेंद्रजीत को गिरफ्तार करने के लिए अंग्रेजों द्वारा एक गोपनीय योजना बनाई गई थी। लेकिन उनकी यह गुप्त योजना उजागर हो जाने के कारण विफल हो गई। राजनीतिक एजेंट ग्रिमवुड ने तब राजा कुलाचन्द्र को टिकेंद्रजीत को अंग्रेजों को सौंपने के लिए कहा। राजा कुलाचंद्र ने इसके लिए साफ इनकार कर दिया। परिणामस्वरूप अंग्रेजों ने टिकेंद्रजीत को गिरफ्तार करने के लिए बल प्रयोग किया।

24 मार्च, 1891 की शाम को ब्रिटिश सैनिकों ने पैलेस कंपाउंड, विशेष रूप से टिकेंद्रजीत के निवास पर हमला किया। इस हमले में सांस्कृतिक कार्यक्रम देख रहे महिलाओं और बच्चों सहित अनेक निर्दोष नागरिक मारे गये। हालांकि, मणिपुरी सेना अपने आक्रामक प्रतिरोध में सफल रही और अंग्रेजों को पीछे हटना पड़ा। पांच अंग्रेज अधिकारियों- क्विंटन, ग्रिमवुड, लेफ्टिनेंट कर्नल सिम्पसन, कोसिन और बुलेर को भागकर तहखाने में शरण लेनी पड़ी। जिन मणिपुरवासियों  के निर्दोष बच्चों, पत्नियों और रिश्तेदारों को अंग्रेजों द्वारा मार दिया गया था, उनके मन में बदले की भावना इतनी प्रबल हो गई कि उन्होंने इन पांचों अंग्रेजों को मार डाला। इसके परिणामस्वरूप 1891 में एंग्लो-मणिपुरी युद्ध हुआ। इस भयानक युद्ध में अंग्रेजों ने मणिपुर को तहस-नहस कर दिया। 27 अप्रैल, 1891 को कंगला पैलेस को अंग्रेजों ने अपने कब्जे में ले लिया और मेजर मैक्सवेल मुख्य राजनीतिक एजेंट बन गया। ब्रिटिश भारत सरकार ने जाँच-पड़ताल और सजा-निर्धारण के लिए लेफ्टिनेंट कर्नल जॉन मिशेल के अधीन एक विशेष आयोग का गठन किया। इस जाँच में टिकेंद्रजीत को दोषी ठहराया गया और अंग्रेजी अदालत द्वारा उन्हें मौत की सजा सुनाई गई।

जानकारी मिलने पर स्वयं रानी विक्टोरिया ने बीर टिकेंद्रजीत को बचाने के प्रयास किये लेकिन वे असफल रहीं। टिकेन्द्रजीत अपने विलक्षण युद्ध-कौशल, अद्भुत पराक्रम तथा सक्षम प्रशासन  के कारण अत्यंत लोकप्रिय थे। कहा भी गया है कि – “प्रजासुखे सुखं राज्ञः प्रजानां च हिते हितम् । नात्मप्रियं हितं राज्ञः प्रजानां तु प्रियं हितम्” अर्थात् प्रजा के सुख में राजा का सुख निहित है; अर्थात् जब प्रजा सुखी अनुभव करे तभी राजा को संतोष करना चाहिए। प्रजा का हित ही राजा का वास्तविक हित है।

अत: मणिपुरवासियों ने अपने प्रिय राजकुमार की प्राण-रक्षा के लिए उनकी फांसी का पुरजोर विरोध किया। परन्तु लोगों की प्रबल भावना और उनके सक्रिय विरोध के बावजूद अंग्रेजों ने बीर टिकेन्द्रजीत को 13 अगस्त, 1891 को आम जनता के सामने एक खुली जगह पर फांसी लगायी ताकि लोगों में डर पैदा किया जा सके। मणिपुर राज्य की महिलाओं ने भी उनके बचाव में एक आन्दोलन शुरू किया था, परन्तु उनका यह आन्दोलन मणिपुर के भविष्य बीर टिकेन्द्रजीत को नहीं बचा सका। उनका बलिदान मणिपुर की स्वतंत्रता, सम्मान और जनकल्याण की भावना के लिए था। उन्होंने विदेशी शक्ति का विरोध करते हुए स्वदेश रक्षा हेतु अपने प्राण गंवाए। बीर टिकेंद्रजीत सिंह की यह उदात्त भावना आज की युवा पीढ़ी को भी राष्ट्र की स्वतंत्रता, सम्मान और जनकल्याण हेतु जीवन-बलिदान करने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित करती है। बीर टिकेन्द्रजीत सिंह जैसे बलिदानी योद्धाओं से प्रेरित हुए लाखों-करोड़ों युवाओं ने भारतमाता को 200 वर्ष लंबी अंग्रेजी दासता से मुक्त कराया। इसलिए भारतमाता के ऐसे सपूतों को स्मरण किये बिना स्वतंत्रता-दिवस समारोह अर्थहीन और अधूरा है। इस महानायक को सम्मानित करते हुए मणिपुर विधानसभा ने अगस्त, 2019 में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित कर तुलीहल अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे का नाम बदलकर ‘बीर टिकेंद्रजीत अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा’ कर दिया है।

(लेखक जम्मू केन्द्रीय विश्वविद्यालय के छात्र कल्याण अधिष्ठाता हैं।)

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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