संभवतः कोरोना-संकट द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद विश्व-व्यवस्था में उथल-पुथल मचाने वाली सबसे बड़ी दुर्घटना है। इस आपदा ने जन-धन की अपार हानि की है। इसने जन-जीवन को भी ठप्प कर दिया है और मानव समाज के जीवन-व्यवहार को बदल डाला है। इस विश्वव्यापी परिघटना ने समाज के सभी व्यक्तियों, समुदायों, व्यवस्थाओं और संस्थाओं को व्यापक स्तर पर प्रभावित किया है। निश्चय ही, कोरोना नामक महामारी का प्रभाव और उसके परिणाम युगांतकारी और सर्वव्यापी रहे हैं।
ऑनलाइन शिक्षण की आँधी कोरोना संकट की आकस्मिक उपलब्धि है। भारत में कोरोना-संक्रमण की पदचाप सुनते ही केंद्र सरकार और तमाम राज्य-सरकारों ने एहतियातन स्कूल,कॉलेज और विश्वविद्यालय बंद कर दिए थे। शिक्षण-संस्थानों में छात्र-छात्राओं की भारी और बहुलतापूर्ण संख्या होती है। वे समाज के विभिन्न वर्गों और क्षेत्रों से आते हैं। वे संक्रमण के सहज,सर्वप्रमुख और सर्वाधिक संवाहक हो सकते थे। इसलिए शिक्षण-संस्थानों को बंद करने का निर्णय दूरदर्शी और समीचीन ही था। लेकिन संक्रमण के क्रमशः खतरे के निशान को छूते चले जाने और ‘लॉकडाउन’ के लम्बा खिंचते चले जाने से न सिर्फ सरकारों की चिंता बढ़ी बल्कि पढ़ाई-लिखाई को लेकर शिक्षण-संस्थानों के कर्ता-धर्ताओं, शिक्षकों और अभिभावकों के साथ-साथ छात्र-छात्राओं की भी चिंता बढ़ने लगी। इसी चिंता के समाधानस्वरूप ऑनलाइन शिक्षण के विकल्प को अपनाया गया। यूँ पहले भी यदा-कदा और यत्र-तत्र ऑनलाइन शिक्षण होता रहा है। कुछ ऑनलाइन पाठ्यक्रम भी संचालित हो रहे थे। मूक कोर्स, स्वयम पोर्टल, ई-पी जी पाठशाला और ज्ञान-दर्शन जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से ऑनलाइन शिक्षण का काम चल रहा था। लेकिन इस अल्पज्ञात और अल्प-प्रयुक्त शिक्षण-माध्यम का कोरोना संकट ने अभूतपूर्व नियमितीकरण और संस्थानीकरण किया है। इस संकट ने इस माध्यम को बहु-प्रयुक्त और अत्यधिक लोकप्रिय बना दिया है। यह असाधारण परिस्थिति की तकनीकी उपज है। इस अंधाधुंध प्रयोग और आपातकालीन उपयोगिता ने इस आकस्मिक व्यवस्था के स्थायित्व की आशंका पैदा कर दी है। जबकि ध्यान देने की बात यह है कि शिक्षण और अधिगम की यह प्रक्रिया तात्कालिक व्यवस्था मात्र है। हालाँकि, सूचना-तकनीक और संचार-क्रांति के कुछ पैगम्बर इस वैकल्पिक व्यवस्था को ही मूल व्यवस्था बनाने के मंसूबे पाल रहे हैं। उन्हें यह समझने और समझाने की आवश्यकता है कि अनुपूरक व्यवस्था कभी भी मूल व्यवस्था का स्थानापन्न नहीं हो सकती है और न ही होनी भी चाहिए। भारत जैसे देश में नवोदित ऑनलाइन शिक्षण द्वारा परम्परागत कक्षा-शिक्षण को अपदस्थ करने का विचार खयाली पुलाव ही समझा जाना चाहिए।
सन् 1991 में भारत और भारतीय अर्थ-व्यवस्था में उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण की शुरुआत हुई। इस नयी व्यवस्था का दुखद परिणाम यह हुआ कि राज्य ने नागरिकों की शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने के अपने संवैधानिक दायित्व से भी पल्ला झाड़ना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे सार्वजनिक संस्थान ढहने लगे और जहाँ-तहाँ निजी संस्थान कुकुरमुत्ते की तरह उगने-पनपने लगे। फलस्वरूप शिक्षा का व्यवसायीकरण प्रारम्भ हुआ। स्कूली शिक्षा का ढांचा सिमटने लगा और 21वीं सदी आते-आते अपनी विश्वसनीयता खोकर पूरी तरह तबाह हो गया। अब उच्च-शिक्षा भी उसी राह पर चल निकली है। ऑनलाइन शिक्षा का पूरा स्वरूप और संरचना शिक्षा के व्यापारीकरण के सर्वथा अनुकूल है। यह व्यवस्था शिक्षण-प्रक्रिया में शिक्षकों की संख्या और भूमिका को क्रमशः सीमित करते हुए लगभग समाप्त ही कर डालेगी। इसप्रकार यह व्यवस्था सर्वप्रथम शिक्षक के भविष्य को संकटग्रस्त करेगी। फिर शिक्षार्थी और शिक्षा के भविष्य को भी तबाह करके पूरे-के-पूरे समाज,राष्ट्र यहाँ तक कि मानव-सभ्यता तक को मूल्यहीनता और महामारी के दलदल में धकेलेगी। ऑनलाइन शिक्षण के अधिसंख्य प्रवक्ता और पैरोकार स्वयं ‘वेबिनारिया’ ग्रस्त हैं और दूरदृष्टि-दोष से पीड़ित हैं। आजकल वेबिनारों की धूम-धाम है। वेबिनारों के सूचना-संदेशों से सोशल मीडिया अंटा पड़ा है। इधर वेबिनारों की भरमार ने सिद्ध किया है कि बेतहाशा भागती–हांफती ज़िन्दगी मनुष्य का स्थायीभाव बन चली है। इसलिए मानव-समाज के ‘तकनीक आक्रांत’ होने के दूरगामी प्रभावों को नहीं देख पा रहे हैं। कोमल मानवीय भावनाओं और संवेदनाओं का क्रमिक लोप तकनीक आच्छादित मानव-जीवन की स्वाभाविक नियति है। कोमलता और सहजता का यह लोप मानव-जीवन को मशीनी बना डालेगा। यूँ भी एलेक्सा जैसे रोबोट की उपस्थिति उत्तर-आधुनिक सभ्यता का अनिवार्य अध्याय बना जाता है। अतः ऑनलाइन शिक्षण की चकाचौंध से चमत्कृत तकनीक-दक्ष आचार्यों को तनिक ठहरकर शिक्षा के उद्देश्य, उसमें शिक्षक की भूमिका और प्रत्यक्ष शिक्षण (कक्षा-शिक्षण) के ऐतिहासिक दाय पर विचार करना चाहिए।
भारत देश विकास और बदलाव के तमाम प्रयासों और दावों के बावजूद अभी भी एक अपेक्षाकृत अल्पविकसित और अभावग्रस्त देश ही है। यहाँ सुविधाओं और संसाधनों की उपलब्धता सीमित है। इन सुविधाओं और संसाधनों का वितरण भी असमान है। यह वितरण न्यायपूर्ण न होकर विषमतापूर्ण और विभेदक है। देश का बहुत बड़ा तबका अभी भी संचार-क्रांति और सूचना-तकनीक उपकरणों की परिधि से बाहर है। कोरोना आपदा ने भारत देश में मौजूद भयावह ‘डिजिटल डिवाइड’ से न सिर्फ नीति-नियंताओं बल्कि हम सबको परिचित कराया है। डिजिटल डिवाइड विषमता और भेदभाव का सर्वथा नया रूप है। कोरोना संकट ने भेदभाव की इस खाई को और भी गहराया है। दलित, आदिवासी, किसान-मजदूर, ग्रामीण परिवारों से आने वाले छात्र-छात्राओं के पास स्मार्टफोन,लैपटॉप, टेबलेट, ईयरफ़ोन, प्रिंटर, फोटोकॉपियर और स्कैनर जैसे तकनीकी उपकरण नहीं हैं। जिनके पास ये उपकरण हैं भी उन्हें या उनके माता-पिता तक को उनका सही उपयोग या सञ्चालन करना नहीं है। सूचना-तकनीक उपकरणों के अति उपयोग और उनपर शिक्षा जैसी आधारभूत आवश्यकता ने ‘डिजिटल डिसेबिलिटी’ वाला एक बहुत बड़ा वर्ग खड़ा किया है। स्वयं की या माता-पिता की डिजिटल डिसेबिलिटी मस्तिष्क में हीनता-बोध पैदा कर रही है। करोड़ों बच्चे महज मध्याह्न भोजन के आकर्षण में स्कूल जाते हैं। उनके पास न तो ये उपकरण हैं, न इन्टरनेट या बिजली है और न ही एकांत में बैठकर ऑनलाइन शिक्षण का लाभ उठाने की जगह है। इसके अलावा उनके पास इन्टरनेट की उपलब्धता भी अत्यंत सीमित या नगण्य ही है। इन्टरनेट की उपलब्धता ही नहीं उसकी स्पीड भी विषम है। 2G और 4 G का भेद बड़ा ख़तरनाक है। 5 अगस्त, 2019 को अनुच्छेद 370 के प्रावधानों को समाप्त किये जाने के बाद से जम्मू-कश्मीर में इन्टरनेट सुविधा बंद कर दी गयी थी। लॉकडाउन के आसपास ही वहाँ 2G इन्टरनेट सेवा बहाल हुई। 2 G इन्टरनेट में स्पीड और कनेक्टिविटी की भारी समस्या रहती है। ऑनलाइन शिक्षण के मामले में इसने जम्मू-कश्मीर के छात्र-छात्राओं को “विशेष रूप से वंचित समूह’ बनाया है।
कोरोना काल में किये गए एक सर्वे में यह तथ्य सामने आया है कि अभी भारत देश के महज एक तिहाई लोगों के पास ही स्मार्ट फ़ोन हैं। इसी दौरान यह तथ्य भी सामने आया है कि अभीतक आधे लोगों तक ही इन्टरनेट और एक चौथाई लोगों तक ही बिजली की अबाध और नियमित उपलब्धता है। इसीतरह डिजिटल साक्षरता की दर तो और भी चिंताजनक है। जिस देश की साक्षरता दर बड़ी कोशिशों के बावजूद सरकारी आंकड़ों तक में अभी दो तिहाई तक पहुँची है, उस देश की डिजिटल साक्षरता का सहज आकलन किया जा सकता है। डिजिटल उपकरणों और डिजिटल ढांचागत सुविधाओं की उपलब्धता में जाति,वर्ग,क्षेत्र,धर्म,भाषा और लिंगाधारित कारक बड़े विभेदक हैं। गाँव-शहर, लड़का-लड़की, दलित-सवर्ण, लड़का-लड़की, शिक्षित माता-पिता –अशिक्षित माता-पिता इस डिजिटल डिवाइड के परस्पर विरोधी युग्म हैं। उल्लेखनीय है कि डिजिटल डिवाइड परम्परागत विषमता और भेदों को न सिर्फ बढ़ाता है; बल्कि उन्हें स्थायित्व भी प्रदान करता है। डिजिटल युग की अ-डिजिटल पीढ़ी रोजमर्रा के जीवन-व्यवहार में यह भेदभाव झेलने को अभिशप्त है। हालाँकि, कुछ सुधीजन ऑनलाइन शिक्षण के चलते इन विभेदों की समाप्ति के दावे भी कर रहे हैं। जबकि उपरोक्त सच्चाइयां ऑनलाइन शिक्षण की वस्तुस्थिति और वास्तविकता का उद्घाटन करती हैं। ऑनलाइन शिक्षण नेटवर्क से जुड़ने में समाज के इन वंचित वर्गों को अभी दशकों लग जायेंगे। विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या ऑनलाइन शिक्षण के वकीलों के पास इस खाई को मेटने लायक धैर्य,संसाधन और सामर्थ्य है?
डिजिटल माध्यमों की सहज भाषा अंग्रेजी है। भारत अन्य बहुविध विविधताओं के अलावा भाषिक विविधताओं वाला देश भी है। ‘कोस-कोस पर पानी बदले, चार कोस पर बानी’ यहाँ की ज़मीनी सच्चाई है। यहाँ डिजिटल साक्षरता की तरह अंग्रेजी साक्षरता भी बहुत सीमित और सुविधा-संपन्न वर्गों तक ही सीमित है। जबकि अनेक शोधों और अधिगम रिपोर्टों में बारम्बार बताया गया है कि शिक्षण का माध्यम मातृभाषा होनी चाहिए। मातृभाषा और स्थानीय भाषाओं को शिक्षण माध्यम बनाकर अधिगम-प्राप्ति में गुणात्मक वृद्धि की जा सकती है। अभी हाल में ही में केन्द्रीय मंत्रिमंडल द्वारा अनुमोदित की गयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति में मातृभाषा अथवा स्थानीय भाषा में शिक्षा देने पर विशेष बलाघात है। हालाँकि, वह कितना फलीभूत होगी, यह देखना शेष है। शिक्षा के माध्यम का चुनाव करते समय उसके लक्षित समूह और उद्देश्य का ध्यान रखना आवश्यक है। ऐसा करके ही अपेक्षित अधिगम परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं। दरअसल, महत्वाकांक्षी भारत की डिजिटल पीढ़ी मात्र को ध्यान में रखकर शिक्षण-पद्धति, शिक्षण-प्रक्रिया एवं ज्ञान-प्रवाह के आवश्यक माध्यम का चुनाव नहीं करना चाहिए, बल्कि हाशिए पर ठिठकी खड़ी वंचित भारत की अवाक् पीढ़ी को भी चिंतन और चिंता के केंद्र में रखा जाना जरूरी है। उल्लेखनीय है कि अंग्रेजी भाषा और अत्याधुनिक तकनीक सामाजिक खाई को और गहरा करते हैं। दलित, पिछड़े, आदिवासी, महिलाएं और दिव्यांगजन इनके चपेट के सबसे पहले और कमजोर शिकार होते हैं। सर्वसमावेशी नीतियां और कार्यक्रम बनाकर और उसमें सभी स्टेकहोल्डर्स की भागीदारी सुनिश्चित करके ही भारतोदय हो सकता है।
आधुनिक शिक्षा का प्राथमिक उद्देश्य संस्कारवान और कौशलयुक्त नागरिक बनाना है। इस अर्थ में शिक्षा संस्कार और रोजगार प्राप्ति की सर्वाधिक विश्वसनीय प्रक्रिया है। शिक्षा चरित्र-निर्माण और कौशल-विकास की कुंजी है। शिक्षा शिक्षार्थी का समाजीकरण भी करती है। वह व्यक्ति में स्वतंत्रता,समानता और बंधुत्व जैसे आधुनिक जीवन-मूल्यों का परिपाक करती है। लोकतंत्र और लोकतान्त्रिक व्यवहार की सीख देती है। तमाम सीमाओं और संकीर्णताओं से मुक्त करके उसके अंदर ‘मनुष्य-भाव’ का बीजारोपण करती है। शिक्षा के माध्यम से संस्कार,सामूहिकता,सहकार, समरसता और संवेदनशीलता की आधारभूमि तैयार होती है। शिक्षा के इन लक्ष्यों की प्राप्ति में कक्षा-शिक्षण की अपरिहार्य भूमिका होती है। गौरतलब है कि शिक्षण सूचना-प्रवाह या सूचना-संग्रह मात्र नहीं है। यह एक पारस्परिक अंतःक्रिया है। यह पारस्परिक अंतःक्रिया अपने पूर्ण फलागम के साथ कक्षा में प्रत्यक्ष परिघटित होती है। शिक्षक इस अभिक्रिया का ‘केटालिस्ट’ होता है। शिक्षण जड़ प्रक्रिया न होकर गतिशील क्रिया है। शिक्षक रोल मॉडल भी होता है। प्रत्येक विद्यार्थी अपनी अध्ययन-अवधि में किसी-न-किसी अध्यापक से प्रभावित और प्रेरित होता है और वही उसका रोल मॉडल बन जाता है। छात्र-जीवन में ऐसे अभिप्रेरक रोल मॉडल का अकल्पनीय महत्व और योगदान होता है। प्रेरणा-विहीन जीवन में भारी ठहराव और दिशा-भ्रम होता है। शिक्षक की उपस्थिति में कक्षा की क्रियाओं में प्रत्यक्ष भागीदारी, इंटरैक्टिव वातावरण, सहपाठियों के साथ पठन-पाठन के दौरान वार्तालाप और व्यवहार, अन्य पाठ्येतर गतिविधियों यथा- संगीत,नृत्य,कविता,नाटक, खेलकूद, वाद-विवाद, भाषण,टूर–पिकनिक आदि का भी अपना ‘पाठ’ होता है। इस पाठ का ‘लर्निंग आउटकम’ भविष्य-निर्धारण और जीवन-निर्माण में सर्वाधिक काम का होता है।
अधिगम-प्रक्रिया का रोचक और पारस्परिक होना अपेक्षित अधिगम-परिणाम की प्राप्ति की आधारभूत शर्त है। ऑनलाइन शिक्षण में इन दोनों का ही न्यूनतम अवकाश होता है। नीरस और इकतरफा सूचनाओं की बमबारी ऑनलाइन शिक्षण की अनिवार्य स्थिति है। अधिगम की सही कसौटी सूचना-संग्रहण नहीं, बल्कि सन्देश और सन्दर्भ ग्रहण होता है। ऑनलाइन शिक्षण में इसका अभाव दिखता है। संवाद और संचार सिर्फ शब्दों के माध्यम से ही नहीं होता। शिक्षक और सहपाठियों के हाव-भाव, बोल-व्यवहार भी शैक्षणिक संवाद और संचार के बड़े लोकप्रिय और विश्वसनीय रूप हैं। इनकी अनुपस्थिति अधिगम प्रक्रिया को अरुचिकर और यंत्रवत बना देती है।
ऑनलाइन शिक्षण के चलते छात्र-छात्राओं का ‘स्क्रीन टाइम’ बहुत अधिक हो गया है। ‘स्क्रीन टाइम’ बच्चों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को ख़राब करता है। वह उनकी आदतों और व्यवहार को भी बड़ी तेजी से बदलता है। वे वास्तविक जीवन से कटते चले जाते हैं। वास्तविक दुनिया की जगह वर्चुवल दुनिया ही उनका वातायन होता है। जीवन का ‘आभासीकरण’ जीवन को निष्क्रिय भी बनाता है। मानसिक सक्रियता और शारीरिक निष्क्रियता से जीवन में विसंगति और विषाद का प्रवेश होता है। अवसाद,अकेलापन, चिड़चिड़ापन, मोटापा,मधुमेह और रक्तचाप आदि बढ़े हुए स्क्रीन टाइम के अनाहूत फलागम हैं। फेसबुक पर पाँच हजार ‘फ्रेंड्स’ और 20-30 व्हाट्सएप्प ग्रुप्स की सदस्यता के बावजूद व्यक्ति अकेला, उदास और अवसादग्रस्त इसलिए होता है क्योंकि वर्चुवल-जीवन वास्तविक जीवन का विकल्प नहीं है। आज कोरोना आपदा के चलते छोटे-बड़े बच्चे और वयस्क तक लैपटॉप और स्मार्टफोन में आँखें गढ़ाए रहते हैं। सीमित अवधि के लिए तो यह सब सह्य है, किन्तु अगर कोरोना-काल लम्बा खिंचता है या फिर कोरोना की समाप्ति के बाद भी इस शिक्षण पद्धति की निरन्तरता रहती है तो उसके परिणाम भयावह होने की आशंका है। कोरोना काल में भी ऑनलाइन शिक्षण को सीमित करने की आवश्यकता है। इस आपदा-काल में ऑनलाइन शिक्षण की अवधि को सीमित करने के लिए शिक्षा क्षेत्र में कार्यरत स्वयंसेवी संगठनों और सरकार को तत्काल पहल करनी चाहिए। स्थितियां सामान्य हो जाने के बाद पाठ्यक्रम का 25-30 प्रतिशत भाग ऑनलाइन माध्यम से पढ़ाने का नीतिगत निर्णय सरकार ले सकती है। साथ ही, सेमिनार,सम्मलेन और अकादमिक बैठकों आदि को भी ऑनलाइन माध्यम से आयोजित करने पर विचार किया जा सकता है। इससे सम्बंधित व्यक्तियों के समय, सार्वजनिक धन, पेट्रोल-डीजल की काफी बचत हो सकेगी। प्रदूषण और ट्रैफिक जाम जैसी समस्याओं से भी आंशिक राहत मिलेगी और कुछ हद तक पर्यावरण संरक्षण भी हो सकेगा।
नयी तकनीक और नवाचार का स्वागत तो किया जाना चाहिए किन्तु उसे स्वीकारने और सजाने के फेर में परंपरा से प्राप्त श्रेष्ठतम को नाली में बहा देना विवेकसम्मत नहीं है। ऑनलाइन शिक्षण एक आपातकालीन व्यवस्था है। यह आपद्-धर्म है, सनातन धर्म नहीं हो सकता। यह कक्षा-शिक्षण का पूर्ण-विकल्प भी नहीं है। यह अनुपूरक और तात्कालिक व्यवस्था भर है। इसका सीमित उपयोग ही श्रेयस्कर है। ऑनलाइन शिक्षण पर आंशिक निर्भरता ही भविष्य का मार्ग है। अन्य अनेक समस्याओं की तरह गौतम बुद्ध का मध्य-मार्ग इस मुँह बाये खड़ी समस्या का सही समाधान है। वस्तुतः, संतुलन ही समाधान है। हमारी ज्ञान-परम्परा का सूत्र-वाक्य ‘अति सर्वत्र वर्जयेत’ अकारण ही नहीं कहा गया है।
(लेखक केन्द्रीय विश्वविद्यालय जम्मू में छात्र कल्याण अधिष्ठाता हैं।)