तमिलनाडु में 10 जनवरी को लावण्या नामक एक स्कूली छात्रा ने जहरीला पदार्थ पी लिया जिसके कारण जिंदगी और मौत से जूझते हुए 19 जनवरी को उसने अस्पताल में दम तोड़ दिया। लावण्या तमिलनाडु के तंजावुर जिले के एक मिशनरी बोर्डिंग स्कूल की होनहार छात्रा थी। लावण्या की गलती यह थी कि उसने अपने छात्रावास की सिस्टर के मत-परिवर्तन के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था। सहाय मैरी और रॉकलिन मैरी नामक छात्रावास की दो ननों ने लावण्या को प्रलोभन देते हुए यह कहा कि यदि तुम ईसाई धर्म मे परिवर्तित हो जाओगी तो हम तुम्हारी आगे की सहायता करेंगे। जैसा कि लावण्या की मृत्यु के बाद यह खुलासा की ये नन लावण्या को पिछले 2 सालों से मतान्तरण के लिए बाध्य कर रही थीं और कुछ दिन पहले लावण्या के माता पिता पर भी इस बात के लिए दबाव बनाया गया था। 9 जनवरी को जब स्कूल में पोंगल की छुट्टी हुई तो लावण्या को घर जाने से मना कर दिया गया और उससे बाथरूम की सफाई एवं छात्रावास के अन्य अनिर्दिष्ट कार्य करवाये गए। इतनी प्रताड़ना के बाद भी लावण्या ने अपने स्वाभिमान पर अडिग रहते हुए उनके कुत्सित प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया लेकिन उनके द्वारा दी गयी मानसिक प्रताड़ना को सहन न कर सकने की वजह से वह स्कूल के गार्डन में रखा कीटनाशक पी गयी जिसके चलते 19 जनवरी को चेन्नई के असपताल में उसकी मृत्य हो गयी। लावण्या ने मृत्यु से पहले एक वीडियो में अपने साथ हुई पूरी घटना का वर्णन किया है जिसमें यह यह साफ साफ खुलासा होता है कि स्कूल किस हद तक लावण्या की मृत्यु के लिए जिम्मेदार है। उस वीडियो में लावण्या यह कह रही है कि “उन्होंने (स्कूल) मेरी उपस्थिति में मेरे माता-पिता से पूछा कि क्या वे मुझे ईसाई धर्म में परिवर्तित कर सकते हैं, वे आगे की पढ़ाई के लिए उनकी मदद करेंगे। जब से मैंने स्वीकार नहीं किया, वे मुझे प्रताड़ित करते रहे।” यह घटना किसी को भी अंदर से झकझोर देने वाली है। लेकिन उससे भी अधिक आश्चर्यजनक है कि लावण्या के साथ इस तरह का बर्ताव करने वाली ननों या स्कूल प्रसाशन के विरुद्ध कोई कारवाई नहीं होती है।
अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (अभाविप) लावण्या को न्याय सुनिश्चित कराने हेतु पूरे जोर-शोर से लगा हुआ है क्योंकि ईसाई मिशनरियों द्वारा संचालित स्कूलों में मतान्तरण का कार्य प्रछन्न तौर से संचालित होता है। स्कूलों के पाठ्यक्रम एवं सांस्कृतिक गतिविधियां इसी इरादे से बनाई जाती हैं कि विद्यार्थियों के मष्तिस्क को ईसाई मूल्यों एवं सिद्धान्तों की तरफ उन्मुख किया जा सके जो कि किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है और न ही आधुनिक शिक्षा-मानकों के अनुरूप है। विद्यार्थी परिषद का मानना है कि स्कूली शिक्षा किसी भी निहित स्वार्थ से परे हो एवं आज की जरूरतों के अनुसार वर्तमान पीढ़ी को लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप शिक्षित किया जाय। परिषद इस मुद्दे को लेकर अखिल भारतीय स्तर अभियान चला रही है। छात्र समुदाय को जागरूक एवं सतर्क करने का कार्य कर रही है।
इस मामले का सबसे आश्चर्यजनक पहलू यह है कि लावण्या के लिए न्याय की मांग कर रही अभाविप की राष्ट्रीय महामंत्री निधि त्रिपाठी एवं अन्य कार्यकर्ताओं को चेन्नई में गिरफ्तार करके गैरकानूनी तरह से आठ दिन की न्यायिक हिरासत में भेज दिया जाता है। यह इस बात का प्रमाण है कि किस हद तक ईसाई मिशनरियां लोकतान्त्रिक सरकार को अपने नियंत्रण में की हुई हैं अथवा मिशनरी और तमिलनाडु सरकार का आपस में गठजोड़ है?
विद्यालय नई पीढ़ी के समाजीकरण की संस्था होती है। इन्हीं के द्वारा नई पीढ़ी में नैतिक मूल्यों और सिद्धान्तों के संस्कार दिए जाते हैं। फिर क्यों शिक्षा एवं स्वास्थ्य सुविधायों के नाम पर आम जनमानस को मतान्तरण के लिए मजबूर किया जाता है? क्या मिशनरी शिक्षा और स्वास्थ्य का एकमात्र उद्देश्य मतान्तरण है? जो स्कूल और कॉलेज आधुनिक शिक्षा और मूल्यों के लिए जाने जाते हैं असल में वह क्यूँ इतने रुढ़िवादी प्रवृत्ति के होते हैं। ईसाई मिशनरियाँ क्यों पूरे विश्व को एकरूप (होमोज़ेनाइज) करना चाहते हैं इतनी विविधता और विभिन्नता को दर किनार करते हुए
जब आज अकादमिक जगत (करेंट पैराडाइम) और बौद्धिक जगत इस बात को लेकर चिंतित है कि विश्व भर की विविधता और अतिसंवेदनशील (वल्नरेबल) समुदाय की किस तरह से रक्षा की जाय, उनको जीवित रखा जाय, वहीं दूसरी तरफ ईसाई मिशनरियां इन पर कुठाराघात कर रहीं है, इसको किसी भी पैमाने पर न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता है। अब सवाल यह उठता है कि क्यों ईसाई मिशनरियाँ इक्कीसवीं सदी के युग में भी अपने से इतर मत रखने वाले लोगों की पहचान और सम्मान को दरकिनार कर अपना मत थोपने पर तुली हैं?
भारत के दक्षिण के अंचल में ईसाई धर्म के प्रचार एवं प्रसार के लिए तरह-तरह के किस्से और मिथ्या प्रचलित की गयी। जिसमें से प्रमुख है सेंट थॉमस की मिथ्या, यह धारणा स्थापित की गयी कि सेंट थॉमस 52 ईस्वी में आये और उनके प्रभाव से दक्षिण भारत की सभ्यता और संस्कृति विकसित हुई जो उत्तर भारत की सभ्यता और संस्कृति से बिल्कुल अलग थी। उनके अनुसार उत्तरी भारत की आर्य संस्कृति भेदभावपूर्ण एवं दमनकारी है। इसलिए अगर स्वतंत्रता एवं स्वच्छंदता (एमंसीपेसन) को प्राप्त करना है तो उत्तर भारतीय आर्यों की रीति-नीति एवं मूल्यों का त्याग करना होगा और अपने को सेंट थॉमस का वंशज मानते हुए ईसाई धर्म को स्वीकार करना होगा। इस प्रकार की मनगढंत बातों का प्रचार-प्रसार ईसाई मिशनरियों द्वारा एक लम्बे अरसे से किया जा रहा है और यही धारणा लोगों पर थोपी जा रही है इसलिए आज तमिलनाडु समेत पूरे दक्षिण अंचल में ईसाई मिशनरियों का प्रभुत्व अधिक है और लोग इससे प्रभावित भी हैं। इसलिए लावण्या जैसे अति संवेदनशील मुद्दे पर अधिकतर लोग चुप्पी साधे हुए हैं।
कोरोना महामारी में भी ईसाई मिशनरियों के अमानवीय क्रियाकलाप सामने आये हैं। जब पूरा देश एकजुट होकर कोरोना महामरी से उबरने का प्रयास कर रहा था उस विभीषिका से एकजुट होकर लड़ रह था तो उस संकट काल में भी मिशनरियों ने महामारी का नाजायज फायदा उठाकर मासूम लोगों को अपना निशाना बना रही थीं। एक रिपोर्ट के अनुसार कोरोना काल में ईसाई मिशनरियों द्वारा एक लाख से अधिक लोगों का मतांतरण किया गया। महामारी के दौरान गाँव, शहर, जंगल और पहाड़ हर जगह ईसाई मिशनरी के मौजूद होने के प्रमाण मिले हैं। इस संकटकाल में भी इनका प्राथमिक एजेंडा धर्म परिवर्तन ही रहा है जो कि परोपकार और मानव-कल्याण की आड़ में चला है। और इसी कड़ी में तमिलनाडु के तिरुवन्न्मालाई जिले के की एक 13 वर्षीय जनजातीय छात्रा का उसके गाँव से अपहरण कर एक पादरी द्वारा उसका मतांतरण कर दिया जाता है। कोरोनाकल की परिस्थिति का फायदा का उठाकर पादरी स्कूली बच्चों को मुफ्त में पढ़ाने के उद्देश्य से उस गाँव में रुके थे। अभी कुछ ही दिन पहले जॉन एलन चाऊ नामक अमेरिकी मिशनरी ने अंडमान की एकान्तप्रिय एवं अछूती सेंटिनल जनजातीय के परिवेश में जबरन घुसने का प्रयास किया था हालांकि उन लोगों ने अपनी सुरक्षा में उस पर प्रहार करके अपने रस्ते से हटा दिया था लेकिन मिशनरी संस्था द्वारा उसे शहीद का दर्जा दिया गया जो कि ईसाई मिशारियों की मतांतरण के प्रति प्रतिबद्धता एवं मतान्तरण को न्यायोचित मानने की प्रवृत्ति को दर्शाता है।
आज हमारे संविधान में जब किसी भी धर्म के प्रचार एवं प्रसार की स्वतंत्रता दी गयी है तो यह भी सुनिश्चित होना चाहिए की इस अधिकार का दुरूपयोग न हो। क्योंकि इसी प्रावधान का फायदा उठाकर ईसाई और इस्लाम धर्म के प्रचारक आम जनता का बलपूर्वक या झांसा देकर बड़े पैमाने पर मतांतरण कर रहे हैं और इस प्रचारित और प्रसारित करने के अधिकार को ‘मतांतरण के अधिकार’ के रूप में प्रदर्शित कर रहे हैं। इस सन्दर्भ में पिछले वर्ष नवंबर माह के उत्तर प्रदेश की उमर गौतम की घटना का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा। मौलाना उमर गौतम नामक व्यक्ति ने उत्तर प्रदेश की पुलिस के समक्ष यह स्वीकार किया कि वह उत्तर प्रदेश समेत अन्य राज्यों में एक हजार से अधिक लोगों का मतान्तरण षडयंत्र के तहत करा चूका है। इस घटना में हवाला नेटवर्क के पैसे एवं अन्य बड़े कारोबारी के सम्मिलित होने के प्रमाण भी पाए गए हैं। अब प्रश्न यह उठता है की सरकारें और नीति निर्माता कब बलपूर्वक और छलपूर्वक अमानवीय कृत्य के खिलाफ कानून यूनिवर्सल कानून का प्रावधान करेंगे। आज एक लावण्या की दास्तां हमारे सामने आयी है लेकिन न जाने कितनी लावण्या की कहानी अखबार की सुर्खियाँ नहीं बन पाती है इसलिए इस सन्दर्भ में कानूनी प्रावधान अति आवश्यक है।
(लेखक, अभाविप जेएनयू इकाई के अध्यक्ष हैं एवं उपरोक्त वर्णित तथ्य लेखक के निजी राय हैं।)