‘द कश्मीर फाइल’ ने तीन दशक पहले जम्मू कश्मीर में हुए बर्बर घटनाक्रम को एक बार फिर देश के सामने ला दिया है। विशेष रूप से नयी पीढ़ी, जो इससे प्रायः अनजान थी, उसके लिये यह कल्पना से भी परे था कि स्वतंत्र भारत में इस प्रकार की घटनाएं हुईं और तत्कालीन सरकार ने इसे रोकने के कोई प्रभावी प्रयास नहीं किये।
स्वतंत्रता के बाद से ही जम्मू, कश्मीर और लद्दाख के निवासियों पर जो कुछ बीता, दो-ढ़ाई घंटे की फिल्म में उसका शतांश भी वर्णन नहीं किया जा सकता। इसलिये ‘द कश्मीर फाइल्स’ 1990 की घटनाओं का प्रतीकात्मक संकेत मात्र है। इससे अधिक दिखा पाना न तो इस समय सीमा में संभव है और न सेंसर नियमों के चलते इसे दिखाया जा सकता है।
फिल्म के रिलीज के बाद से ही किस तरह के आरोप-प्रत्यारोप और छिछली राजनैतिक टिप्पणियां की जा रही हैं, कैसे अर्धसत्य और झूठ को सच बना कर प्रस्तुत करने की कोशिश हो रही है, यह पूरा देश देख रहा है। मानवता को शर्मसार करने वाली इन घटनाओं को नकारने तथा इसके अपराधियों का बचाव करने का दुस्साहस आज भी जो राजनैतिक दल कर रहे हैं, तब आतंकवादियों का संरक्षण भी यही राजनैतिक दल करते थे।
विभाजन की विभीषिका के साथ आयी स्वतंत्रता लाखों लोगों के नरसंहार और करोड़ों के विस्थापन की गवाह बनी। जो कुछ जुलाई-अगस्त 1947 में पंजाब और बंगाल में हुआ, उसका और अधिक बर्बर दोहराव अक्तूबर 1947 से 1948 तक जम्मू कश्मीर में हुआ। अंग्रेजों के इशारे पर कबायली हमले के वेश में पाकिस्तानी सेना के नेतृत्व में जम्मू कश्मीर पर हुए आक्रमण ने हिंसा और अमानवीयता के नये अध्याय लिखे।
1947 हो अथवा 1990, जम्मू कश्मीर में पाकिस्तानी हस्तक्षेप, उसे स्थानीय राजनैतिक दलों का मौन अथवा मुखर समर्थन, केन्द्र की अकर्मण्यता के बावजूद राज्य में राष्ट्रवादी शक्तियां अपनी पूरी क्षमता भर प्रतिरोध कर रहीं थीं। 1947-48 में सीमाओं की रक्षा के लिये जिस तरह स्वयंसेवकों ने बलिदान दिये वह स्वर्णिम अक्षरों में लिखे जाने योग्य है। डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बलिदान ने जम्मू कश्मीर से परमिट व्यवस्था समाप्त करने और शेख अब्दुल्ला की मनमानी को रोकने के लिये उन्हें गिरफ्तार करने के लिये विवश किया। उसके बाद ही राज्य के भारतीय संघ के साथ एकीकरण की प्रक्रिया प्रारंभ हो सकी।
मौन साधना
अगले लगभग तीन दशक तक केन्द्र की सरकार जम्मू काश्मीर में राजनैतिक प्रयोग करती रही। इन प्रयोगों के दौरान भारत विरोधी गतिविधियों को अनदेखा करते हुए, और कभी-कभी तो उसे संरक्षण देते हुए कांग्रेस ने राज्य की राजनीति में अपनी जगह बनाये रखी। बांगला देश में पराजय के बाद जब पाकिस्तान ने अपनी रणनीति बदली तो अलगाववादियों ने भी अपने सुर बदल लिये। शेख अब्दुल्ला ने तो जम्मू काश्मीर के भारत में विलय को अंतिम बताना भी शुरू कर दिया। इससे प्रभावित होकर शेख को पुनः मुख्यमंत्री बनाया गया।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिये यह काल मौन साधना का था। उसे पता था कि राजनैतिक महत्वाकांक्षाएं राज्य को जिस दिशा में ले जा रहीं हैं वह लोकहित में नहीं है। इसलिये संघर्ष का एक नया दौर आयेगा ही, जिसमें एक बार फिर सारी राष्ट्रवादी शक्तियों को एकजुट करना होगा। जल्दी ही संघ की आशंका सच साबित हुई और संघ की नित्यसिद्ध शक्ति की भूमिका परिणामकारी सिद्ध हुई।
आतंकवाद के विरुद्ध
पाकिस्तान भारत को हजार घाव देने की अपनी रणनीति में जुट गया। घाटी में मौजूद अलगाववादी उसके हस्तक बन गये। मुख्य धारा के राजनैतिक दलों ने उनकी गतिविधियों की ओर से आंखें मूंद लीं। रामजन्मभूमि आंदोलन की आड़ में काश्मीर में मजहबी भावनाएं भड़कायी गयीं। काश्मीर में यह अफवाह फैलायी गयी कि जम्मू में मुसलमानों का नरसंहार हो रहा है जबकि जम्मू पूरी तरह शांत था। इसकी आड़ में कश्मीर में हिंसा का नंगा नाच हुआ।
1989 आते-आते आतंकवादियों के आगे प्रशासन पूरी तरह लाचार हो गया। मस्जिदों से निजामे-मुस्तफा की घोषणा होने लगी। हिन्दुओं को घाटी छोड़ने के लिये कहा गया। भाजपा उपाध्यक्ष श्री टीकालाल टपलू, संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता श्री प्रेमनाथ भट्ट, मकबूल भट्ट् को फांसी की सजा सुनाने वाले न्यायाधीश नीलकण्ठ गंजू, दूरदर्शन के निदेशक लसा कौल जैसे प्रतिष्ठित लोगों की आतंकवादियों ने नृशंस हत्या कर दी।
इस परिस्थिति में संघ की पहल पर जम्मू काश्मीर की सभी धार्मिक सामाजिक संस्थाओं को एकत्र कर ‘जम्मू काश्मीर सहायता समिति’ का गठन किया। समिति की ओर से विस्थापितों के पंजीकरण तथा उन्हें सुरक्षित स्थानों पर बसाने का काम किया गया। समिति के आह्वान पर देश भर में स्वयंसेवकों ने घर-घर जाकर अन्न, धन, वस्त्र और औषधियों का संग्रह किया और विस्थापितों के बीच वितरित किया।
कश्मीर मार्च
देश भर के लोगों को जम्मू कश्मीर की भयावह स्थिति का अनुभव हो सके इसके लिये आवश्यक था कि इसका प्रत्यक्ष अनुभव हो। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के आह्वान पर देश भर से 11 हजार से ज्यादा छात्र-छात्राएं जम्मू पहुंचे और वास्तविकता से साक्षात्कार किया। परिषद ने श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा फहराने की घोषणा की थी किन्तु जो प्रशासन लालचौक पर तिरंगे के अपमान को नहीं रोक सका उसने इन राष्ट्रवादी युवाओं को आगे बढ़ने से रोक दिया।
ऊधमपुर में तिरंगे के साथ गिरफ्तार इन युवाओं को एक दिन जेल में रखने के बाद छोड़ दिया गया। वहां से इन छात्रों ने दिल्ली पहुंच कर तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के निवास पर धरना दिया और लाल चौक पर फहराने की चुनौती के साथ उन्हें तिरंगा सौंपा।
जम्मू कश्मीर बचाओ अभियान
जनजागरण के उद्देश्य से 29 से 31 मार्च 1991 को महिलाओं के राष्ट्रवादी संगठन राष्ट्र सेविका समिति ने देश भर में ‘जम्मू काश्मीर बचाओ अभियान’ का आयोजन किया। 31 मार्च को जम्मू में एक विशाल जागरण यात्रा और जनसभा आयोजित कर जम्मू काश्मीर की परिस्थिति की ओर देश का ध्यान आकर्षित करने का प्रयत्न किया गया। बाद में विस्थापित शिविरों में जाकर इन बहनों ने वहां की स्थिति का भी अध्ययन किया।
एकता यात्रा
राज्य की परिस्थिति की जानकारी को जन-जन तक पहुंचाने के उद्देश्य से भारतीय जनता पार्टी ने ‘एकता यात्रा’ की घोषणा की। भाजपा के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ मुरली मनोहर जोशी के नेतृत्व में यह रथ यात्रा 11 दिसम्बर 1991 को कन्याकुमारी से प्रारंभ हुई। गांव-गांव, नगर-नगर को ‘भारत माता की जय’ के नारों से गुंजाते हुए यह यात्रा 26 जनवरी 1992 को तमाम बाधाओं को पार करते हुए श्रीनगर पहुंची जहां पूर्व घोषणा के अनुसार तिरंगा फहराया गया। इस अवसर का साक्षी बनने के लिये देशभक्ति से ओत-प्रोत 50 हजार से भी अधिक लोग जम्मू पहुंचे लेकिन सड़क मार्ग अवरुद्ध होने के कारण श्रीनगर जाना संभव नहीं हुआ। अंततोगत्वा लगभग 40 लोगों को विमान द्वारा श्रीनगर ले जाया गया। आतंकवादियों की धमकियां बेकार सिद्ध हुईं और राष्ट्रीय स्वाभिमान की जीत हुई।
जम्मू का प्रत्युत्तर
देश भर में आम धारणा यह है कि आतंक की पीड़ा केवल कश्मीर ने झेली। यह अधूरा सच है। कश्मीर से आतंक का सिलसिला शुरू हुआ लेकिन जल्दी ही जम्मू के विभिन्न जिलों में फैल गया। अंतर यह था कि घाटी में हुए घटनाक्रम ने समझने और संभलने का मौका नहीं दिया। एकाएक वहां के हिन्दू समाज को पलायन करना पड़ा और प्रतिकार का अवसर ही नहीं मिला। वहीं जम्मू में, विशेषकर उसके घाटी से लगने वाले इलाकों जैसे किश्तवाड़, डोडा, रामबन, राजौरी, पुंछ आदि में आतंकवादियों ने अनेक बड़ी घटनाओं को अंजाम दिया और वहां के हिन्दू समाज का सम्बल बनने वाले राष्ट्रवादियों पर नृशंस अत्याचार किया।
13 दिसंबर 1989 को डोडा जिला भाजपा अध्यक्ष मनमोहन गुप्ता के घर पर बम पेंका गया। तीन दिन बाद संघ के जिला कार्यवाह श्री चुन्नीलाल परिहार के घर पर बम विस्फोट हुआ। भद्रवाह के गुप्त गंगा मंदिर के पुजारी प्रेम शर्मा के बाजू पर जलती सिगरेट से पाकिस्तान जिंदाबाद गोद दिया।
संघ के स्वयंसेवक संकट की इस घड़ी में समाज का नेतृत्व कर रहे थे इसलिये आतंकवादियों का पहला निशाना भी वे ही बने। हिंदू रक्षा समिति के प्रदेश मंत्री सतीश भंडारी, डोडा के भाजपा जिला महामंत्री संतोष ठाकुर, भद्रवाह के भाजपा जिला उपाध्यक्ष स्वामीराज काटल, संघ के पूर्व जिला कार्यवाह रुचिर कुमार की जघन्य हत्याएं हुईं।
डोडा के तहसील कार्यवाह मोहन सिंह के पूरे शरीर पर घाव करने के बाद हलाल करके उनका गला काटा गया। उनका शव गांव की एक दुकान के बाहर रस्सी का फंदा बना कर लटका दिया गया। तीन दिनों तक किसी भी आदमी को घर से बाहर नहीं निकलने दिया गया और उनका शव तीन दिन तक लटका रहा। रामबन के प्रमुख संघ कार्यकर्ता विभीषण सिंह की आंखें निकाल कर हत्या की वहीं भद्रवाह के संघ कार्यकर्ता महेश्वर सिंह की गोली मार कर हत्या की।
उपरोक्त घटनाएं इस संघर्ष का केवल प्रतिनिधि उदाहरण है। मातृभूमि के लिये कष्ट सहने और बलिदान देने की लंबी श्रंखला है। विशेष बात यह रही कि जम्मू के लोगों ने किसी भी हालत में वहीं रहने और संघर्ष करने का हौंसला दिखाया जिसके कारण आतंकवादियों के इन क्षेत्रों को खाली करा लेने के मंसूबे ध्वस्त हो गये।
पूर्व सैनिक रैली
जम्मू कश्मीर में पूर्व सैनिकों की बड़ी संख्या है। आतंकवाद के विरुद्ध इन पूर्व सैनिकों को एक शक्ति के रूप में खड़ा करने के लिये पूर्व सैनिक सेवा परिषद ने दिसम्बर 1992 में किश्तवाड़ के चार चिनार नामक स्थान पर सम्मेलन का आयोजन किया। इसमें प्रशासन से पूर्व सैनिकों से जब्त की गयी 12 बोर की बंदूके वापस करने की मांग की गयी जिसे प्रशासन ने स्वीकार कर लिया। हथियार प्राप्त होते ही इन पूर्व सैनिकों ने आतंकवाद के विरुद्ध खुले संघर्ष की घोषणा कर दी। इससे प्रेरित क्षेत्र के युवाओं ने भी इस संघर्ष में भाग लेना शुरू कर दिया जो बाद में ‘ग्राम रक्षा समिति’ के गठन का आधार बना।
ग्राम रक्षा समिति
1990 के दशक के अंतिम वर्षों में सरकार द्वारा ग्राम रक्षा समितियों के गठन के कारण सारा चित्र ही बदल गया। उत्साही और देशभक्त युवाओं की पहचान कर उन्हें इन गांवों में ग्राम रक्षा समितियों से जोड़ा गया और उन्हें छोटे हथियार उपलब्ध कराये गये। इसने उन्हें आत्मविश्वास दिया और गांव-गांव में उन्हें चुनौती मिलने लगी। सैकड़ों आतंकवादियों को इन ग्रामीण युवाओं ने ही ठिकाने लगा दिया। परिणामस्वरूप आतंकवाद की कमर टूट गयी। अनेक पाकिस्तानी आतंकवादियों को जीवित पकड़ने का कारनामा भी ग्राम रक्षा समिति के ही नौजवानों ने कर दिखाया था।
अमरनाथ आंदोलन
अमरनाथ यात्रियों की निरंतर बढ़ती संख्या के कारण अमरनाथ के मार्ग में बालटाल स्थित कैम्प में स्थान छोटा पड़ने लगा था। सरकार ने श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को वन विभाग के अंतर्गत आने वाला भूमि का एक छोटा टुकड़ा अस्थायी कैंप बनाने के लिये हस्तांतरित करने का निर्णय किया। अलगाववादियों ने इसका तीव्र विरोध किया जिसके दवाब में राज्य सरकार ने भूमि हस्तांतरण का निर्णय बदल दिया।
जम्मू में इस पर तीखी प्रतिक्रिया हुई जिसे देश भर के हिन्दू समाज का समर्थन मिला। जम्मू में राष्ट्रवादी विचार के सभी लोगों ने एक मंच पर आ कर संघर्ष समिति का गठन किया जिसके अध्यक्ष कांग्रेस के तत्कालीन विधायक लीलाकरण शर्मा बने। भाजपा और विश्व हिन्दू परिषद सहित 35 से अधिक सामाजिक संगठनों का यह साझा मंच था। आंदोलन संघर्ष के विभिन्न चरणों से गुजरा जिसमें पुलिसिया अत्याचार और साम्प्रदायिक विरोध का भी सामना करना पड़ा।
26 जून 2008 को प्रारंभ हुए आंदोलन में 23 जुलाई को आंदोलनकारी युवा कुलदीपराज के आत्मबलिदान के बाद निर्णायक मोड़ आया। पुलिस द्वारा उसके शव के साथ की गयी अभद्रता ने पूरे जम्मू मण्डल में आंदोलन की आग भड़का दी। 61 दिन तक चले इस अभूतपूर्व आंदोलन में अंततः राष्ट्रवादी शक्तियों की निर्णायक जीत हुई और अलगाववादियों के विरोध के बावजूद प्रशासन को घुटने टेकने पड़े। यह आन्दोलन हालिया इतिहास में एक मीलपत्थर है जिसने न केवल जम्मू बल्कि देश और दुनियां को भी यह संदेश दिया कि यदि राष्ट्रवादी शक्तियां एकजुट हों तो अलगाववादियों, आतंकवादियों और उनके समर्थक मुख्यधारा के स्थानीय राजनैतिक दलों के गठजोड़ को घुटने टेकने पर विवश किया जा सकता है।
एकल विद्यालय
जम्मू कश्मीर की भौगोलिक परिस्थिति में सुदूर गांवों तक शिक्षा व्यवस्था अत्यंत कठिन है। एक ओर सरकारी व्यवस्था में शिक्षा का स्तर सुधारने का कोई आग्रह नहीं है वहीं आतंकवाद के चलते अनेक गांवों में विद्यालय या तो जला दिये गये अथवा शिक्षकों ने जाना ही छोड़ दिया। अनेक मामलों में तो पूरा गांव ही पलायन कर गया जिसके कारण उस गांव के बच्चों के लिये शिक्षा दुर्लभ हो गयी।
इस खाई को पाटने के लिये सेवा भारती, विद्या भारती और विश्व हिन्दू परिषद ने एकल विद्यालय की संरचना खड़ी की। किसी भी गांव में मौजूद 10 से 20 बच्चों के लिये एक शिक्षक नियुक्त कर उनको प्राथमिक शिक्षा के साथ-साथ भारतीयता से जोड़ने और संस्कार देने का काम प्रभावी रूप से चल रहा है। आज पूरे जम्मू काश्मीर राज्य में 3200 से अधिक एकल विद्यालय कार्यरत हैं।
विद्या भारती
राज्य भर में 50 से अधिक ऐसे स्थानों पर जहां विद्यार्थियों की संख्या अधिक है, विद्या भारती अपने प्राथमिक, उच्च प्राथमिक तथा माध्यमिक विद्यालय चलाती है। इनमें जंस्कार और लेह जैसे स्थानों पर चल रहे आवासीय विद्यालय भी हैं जो क्षेत्र के बच्चों के लिये उज्जवल भविष्य की एकमात्र किरण है।
बाढ़ राहत
सितम्बर 2014 में जम्मू कश्मीर को भयंकर प्राकृतिक आपदा का सामना करना पड़ा। जम्मू में जहां अतिवृष्टि के कारण अनेकों गांवों में भारी जन-धन की हानि ही वहीं कश्मीर घाटी में झेलम नदी ने भयावह रूप धारण कर लिया। परम्परागत जलप्रवाह के मार्गों में अतिक्रमण और निर्माण के कारण पानी को निकलने का मार्ग नहीं मिला और श्रीनगर सहित अनेक स्थान जलमग्न हो गये।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने सदैव की भांति राज्य के आपदा पीडितों के लिये बिना समय गंवाये बचाव तथा सहायता कार्य प्रारंभ कर दिये। देश भर से टनों सहायता सामग्री, औषधियां, सोलर लैम्प्स् , कम्बल, कपड़े, बच्चों के लिये पाठ्य सामग्री आदि एकत्र कर जम्मू व काश्मीर में पीडितों के बीच वितरित की। सेवा कार्य के लिये 500 से अधिक कार्यकर्ता और 200 से अधिक डॉक्टरों की टीम जम्मू कश्मीर पहुंची और लग-भग दो माह तक अपनी सेवाएं दीं।
पूर्ण एकात्मता की ओर
1990 और 2000 के दशकों में राष्ट्रवादी शक्तियों की परीक्षा का दौर था। आज आतंकवाद और अलगाववाद अपनेआप को बचाने की अंतिम लड़ाई लड़ रहा है। राष्ट्रवादी शक्तियां इसमें विजयी होकर उभरी हैं। एक समय था जब अधिकांश लोगों को और सरकार को भी लगता था कि कश्मीर हाथ से फिसल रहा है। कुछ लोगों का मानना था कि राज्य को तीन हिस्सों में बांट कर कम-से-कम जम्मू और लद्दाख तो सुरक्षित कर लिया जाय। बहुत से लोग नियंत्रण रेखा को ही अंतरराष्ट्रीय सीमा बनाने के पक्षधर थे। जम्मू कश्मीर की राष्ट्रवादी शक्तियों ने अपने जीवट के बल पर इस सारी नकारात्मकता को चीर कर अपना सामर्थ्य सिद्ध किया है।
आज का प्रश्न है कि नियंत्रण रेखा के उस पार स्थित भारतीय भू-भाग को वापस अपने नियंत्रण में कैसे लाया जाय। अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के चलते जम्मू कश्मीर के मुद्दे पर भ्रम का आवरण डाला गया उसे कैसे निरावृत किया जाय। छः दशकों तक केन्द्र सरकार की चुप्पी ने जिस झूठ को प्रतिष्ठित किया है उसे कैसे निरस्त कर सत्य को सामने लाया जाय।
जम्मू कश्मीर का विषय अब एक नये चरण में प्रवेश कर गया है जहां तथ्यों और तर्कों के आधार पर सत्य की प्रतिष्ठापना करनी होगी। वैचारिक संघर्ष की इस चुनौती को भी संघ ने स्वीकार किया है और इस दिशा में शोधपरक अध्ययन द्वारा तथ्यों को क्रमबद्ध और वैज्ञानिक रूप से समाज के सामने लाने का प्रयास निरंतर जारी है। गत कुछ वर्षों में जिस प्रकार जम्मू कश्मीर का प्रश्न केन्द्रीय मुद्दे के रूप में आया है उससे इन प्रयासों की सार्थकता स्वतः सिद्ध होती है।