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Home लेख

स्वतंत्रता और विभाजन

आशुतोष भटनागर by आशुतोष भटनागर
August 14, 2022
in लेख
स्वतंत्रता और विभाजन

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद हारने वाले ही नहीं, जीतने वाले देश भी इस युद्ध में अपनी क्षमता खो चुके थे और अपने देश को फिर से खड़ा करने की गंभीर चुनौती इन देशों के सामने थी। अंग्रेज समझ गये थे कि इसके चलते उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति बिगड़ चुकी है। उद्योग, विश्व व्यापार और निवेश की दृष्टि से वे अमेरिका से निश्चित तौर पर पिछड़ चुके थे वहीं पूर्वी गोलार्ध में सोवियत संघ महाशक्ति बन चुका था। इसके परिणामस्वरूप एक नयी विश्वव्यवस्था आकार ले रही थी।

बदले हुए मानचित्र और बदलती विश्वव्यवस्था में जो उल्लेखनीय परिवर्तन हुए उनमें सबसे बड़ा था दुनियां के अनेकों उपनिवेशों का स्वतंत्र हो जाना। ब्रिटेन के लिये भी यह संभव नहीं रह गया था कि भारत जैसे विशाल देश पर अपना नियंत्रण रख सके। अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलनों के चलते भारत के सामान्य नागरिकों में भी स्वतंत्रता की भावना तीव्र हुई थी और इसके लिये ब्रिटिश भारत ही नहीं रियासतों के निवासियों में भी एक नयी चेतना का जागरण हुआ था।

20 फरवरी 1947 को हाउस ऑफ कॉमन्स में क्रिप्स ने कहा – ब्रिटिश सरकार के सामने दो विकल्प हैं। पहला, भारत में सिविल सर्विस बढ़ा कर और अधिक संख्या में भेज कर नियंत्रण रखा जाय, जिसके बल पर और 15-20 वर्षों तक भारत को दबाये रखा जाय। दूसरा, ऐसी घोषणा कर दी जाय कि एक अवधि के बाद अंग्रेज अपना उत्तरदायित्व छोड़ देंगे। उन्होंने यह भी कहा कि पहला विकल्प लोकमत के विरुद्ध है और राजनैतिक दृष्टि से अव्यावहारिक है। अगर ऐसा करने की कोशिश की गयी तो भारत में ब्रिटेन के विरुद्ध कटुता बढ़ेगी।

इसी दिन ऐटली ने भी जून 1948 से पहले उत्तरदायी सरकार के हाथों में शासन सौंपने की इच्छा जतायी किन्तु भारत में जारी राजनैतिक अनिश्चितता के लिये चिन्ता भी व्यक्त की। उन्होंने कहा कि यदि निश्चित तिथि से पहले सर्वसम्मत भारतीय संविधान नहीं बन सका तो सम्राट की सरकार सोचेगी कि केन्द्रीय सरकार की शक्तियाँ किसे सौंपी जायें- किसी प्रकार की केन्द्रीय सरकार को अथवा वर्तमान प्रांतीय सरकारों को, जो कुछ क्षेत्रों में काम कर रही हैं। इस वक्तव्य से ध्वनित होता था कि यदि मुस्लिम लीग और कांग्रेस सत्ता के किसी साझा स्वरूप पर सहमत हो जायें तो ठीक, अन्यथा भारत का असंख्य राज्यों में विभाजन का निर्णय भी हो सकता था।

महात्मा गाँधी और पं. नेहरू ने इस वक्तव्य में शीघ्र स्वतंत्रता की झलक देखी और उसका स्वागत भी किया। 8 मार्च को कांग्रेस कार्यसमिति के अधिवेशन में अंतरिम सरकार को डोमिनियन सरकार मान लेने और सेवाओं तथा प्रशासन का पूर्ण नियंत्रण उसे सौंप देने का आग्रह किया गया। यह भी स्पष्ट किया गया कि – संविधान सभा द्वारा बनाया गया संविधान उन्हीं क्षेत्रों पर लागू होगा जो उसे स्वीकार करेंगे। कार्यसमिति ने कहा कि जो प्रांत या उसका भाग संविधान को मंजूर करेगा और संघ में शामिल होना चाहेगा, उसे ऐसा करने से नहीं रोका जायेगा। पंजाब के दो भाग किये जाने का प्रस्ताव भी इस समिति में पारित किया गया। समिति ने मुस्लिम लीग के प्रतिनिधियों को कांग्रेस के प्रतिनिधियों से मिलने के लिये आमंत्रित किया जिससे नयी स्थिति पर विचार किया जा सके और उसके अनुकूल साधन सोचे जा सकें।

मुस्लिम लीग ने भी इस वक्तव्य में अपने लिये संभावना देखी। उन्हें यह विश्वास हो गया कि अंग्रेजों की सहायता से पाकिस्तान प्राप्त किया जा सकता है। जिन्ना ने न ऐटली के वक्तव्य पर टिप्पणी की और न ही कांग्रेस कार्यसमिति के निमंत्रण पर प्रतिक्रिया व्यक्त की।

उधर ब्रिटेन में भी विभिन्न दलों और राजनेताओं के बीच इस मुद्दे पर भारी मतभेद थे। पूर्व भारत सचिव टेंपलवुड ने ऐटली के वक्तव्य को हाउस ऑफ लॉर्ड्स में बिना शर्त आत्मसमर्पण बताया तो साइमन ने इससे अंग्रेजों का नाम कलंकित होने की बात कही। हैलीफैक्स ने समर्थन करते हुए भारत को नयी व्यवस्था के मार्ग पर ले जाने और इस संबंध में सदन की इस भावना को बताने वाला संदेश आज ही भारत भेजने का आग्रह किया। जॉन ऐंडरसन ने बिना संभावना तलाशे सत्ता हस्तांतरण की अंतिम तिथि निश्चित करने का विरोध किया।

सत्ता से बाहर हो चुके पूर्व प्रधानमंत्री चर्चिल ने आरोप लगाया कि सरकार अपने ही सिद्धांतों से हट गयी है। सरकार ने संविधान सभा का गठन कर अंतरिम सरकार मिस्टर नेहरू को सौंप दी है जो सवर्ण हिंदुओं के नेता हैं। उन्होंने यहां तक कहा कि मैं गहरे दुख के साथ ब्रिटिश साम्राज्य का विघटन होते देख रहा हूं। इसके वैभव का अंत हो रहा है और वह सब सेवाएं जो इसने मानव जाति के प्रति की हैं, विलीन हो रहीं हैं। हाउस ऑफ लॉर्ड्स में यह बहस क्रिप्स ने शुरू की थी जिस पर विपक्ष की ओर से ऐंडरसन ने संशोधन प्रस्ताव रखा था। प्रधानमंत्री ऐटली द्वारा इसका उत्तर दिया गया। 135 मतों के विरुद्ध 337 मतों से संशोधन प्रस्ताव गिर गया और भारत की स्वतंत्रता का संवैधानिक मार्ग खुल गया।

माउंटबैटन को भारत का नया वायसराय नियुक्त किया गया। 24 मार्च 1947 को उन्होंने पद की शपथ ली। उन्हें कैबिनेट मिशन की योजना के अनुसार भारत सरकार की स्थापना करने का काम सौंपा गया था। उन्हें कहा गया था कि अंतरिम सरकार के साथ डोमिनियन सरकार जैसा ही व्यवहार किया जाय और दैनंदिन प्रशासन में अधिक से अधिक स्वतंत्रता दी जाय। साथ ही शक्ति का हस्तांतरण करते समय भारत की सुरक्षा के साधनों का पूरा ध्यान रखा जाय। सेना का संगठन ज्यों का त्यों बना रहे और हिंद महासागर की रक्षा के मामले में सहयोग चलता रहे। माउंटबैटन ने भी नियुक्ति को स्वीकार करने से पहले निर्णय लेने और उन्हें लागू कराने के लिये पूरी शक्ति की माँग की, यहाँ तक कि उनको सम्राट की लंदन स्थित सरकार से बार-बार नहीं पूछना पड़े और न ही सरकार उनके काम में हस्तक्षेप करे। उनकी यह मांग स्वीकार की गयी।

भारत आते समय जो माउंटबैटन जून 1948 तक के समय को बहुत कम मान रहे थे, भारत आने के बाद वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि तत्कालीन परिस्थिति में यह काम नियत समय से जितना पहले हो सके उतना अच्छा होगा। वे इस निष्कर्ष पर भी पहुंच चुके थे कि भारत का विभाजन और पाकिस्तान का निर्माण अनिवार्य है। उनके सामने मुख्य चुनौती कांग्रेस को अपनी शर्तों पर मनाने की थी।

लम्बे समय तक कांग्रेस का चेहरा रहे महात्मा गाँधी निर्णय प्रक्रिया से अलग-थलग पड़ चुके थे। विभाजन और उससे जुड़ी घटनाओं पर उनकी निराशा भरी टिप्पणी थी – अब मेरी जरूरत न तो जनता को है और न सत्तारूढ़ लोगों को है। मेरे फोटो और मूर्तियों को माला पहनाने के लिये तो प्रत्येक व्यक्ति उत्सुक है परंतु मेरी सलाह वास्तव में कोई नहीं मानना चाहता। प्रार्थना सभा में उन्होंने कहा – मुझे ऐसा जान पड़ता है कि मेरा जीवन कार्य समाप्त हो गया है। मैं आशा करता हूँ कि परमात्मा कृपा करके मुझे और अपमान नहीं सहावेगा। उन्होंने कहा – यद्यपि इस विचार वाला चाहे मैं एक ही व्यक्ति हूँ परंतु मैं दोहराऊंगा कि भारत के विभाजन से भविष्य में देश की ही हानि होगी। जब मुझे यह ख्याल आता है कि विभाजन की योजना में बुराई के सिवाय कुछ नहीं है तो मुझे बड़ा दुख होता है। मुझ से यह भूल हुई थी कि मैंने निर्बल लोगों की अहिंसा को सच्ची अहिंसा समझा था। अब मैं देखता हूँ कि यह अहिंसा नहीं थी, यह तो विरोधाभास था। उस समय शायद ईश्वर ने मुझे अंधा कर दिया था।

कांग्रेस का नेतृत्व अब नेहरू और पटेल के हाथों में था। दोनों ने ही विभाजन और पाकिस्तान के निर्माण को स्वीकार कर लिया, हालांकि दोनों ने इसके लिये अपने-अपने तर्क दिये। नेहरू ने लियोनार्ड मोजले से बात-चीत में कहा – सच बात तो यह है कि हम थक गये थे और वृद्ध भी होते जा रहे थे। अब पुनः जेल में जाना हम में से थोड़े से लोग ही सहन कर सकते थे और यदि अपनी इच्छानुसार हम संयुक्त भारत की बात पर ही डटे रहते तो प्रत्यक्षतः हमारे लिये जेल तैयार थी। हमने देखा कि पंजाब में ज्वालाएं धधक रही हैं और प्रतिदिन हत्याकांड हो रहे हैं। देश का विभाजन ही एकमात्र सुरक्षित मार्ग था। हमने इसी को ग्रहण कर लिया।

दूसरी ओर पटेल ने अंतरिम सरकार में अपना अनुभव साझा करते हुए कहा – मैं एक वर्ष तक एक पद पर रहा हूँ। मुझे इस अनुभव से यह विश्वास हो गया कि जिस मार्ग पर हम जा रहे थे, वह हमको विपत्ति में ले जाता और एक पाकिस्तान की नहीं किंतु अनेकों पाकिस्तानों की रचना हो जाती। प्रत्येक कार्यालय में पाकिस्तान कक्ष बन जाते। संविधान सभा में भी उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा – अंग्रेजों ने कांग्रेस को अपने अभीष्ट आदर्श – भारत की एकता का जल्दी ही सत्ता सौंपने से सौदा करने पर विवश कर दिया था। इसके लिये अंग्रेजों ने अपनी आरक्षित शक्तियों का, सेवाओं पर अपने नियंत्रण का और देशी राज्यों पर अपनी सर्वोपरि सत्ता का उपयोग किया। प्रथम उपयोग का दृष्टांत यह है कि पंजाब के पांच जिले अंग्रेज अधिकारियों के हाथ में थे, वहाँ उन्होंने गजब ढ़ा दिया और गृहमंत्री उनको न तो अलग कर सके और न उनका तबादला कर सके।

एक अन्य घटनाक्रम में बस्तर राज्य के प्रभूत आर्थिक और भौगोलिक साधनों को हैदराबाद के निजाम को लंबी लीज पर देने का षड्यंत्र ईस्टर्न स्टेट एजेन्सी ने रचा जो खुद भारत से स्वतंत्र होने के मंसूबे ही नहीं पाल रहा था बल्कि स्वतंत्र देश के रूप में मान्यता पाने के लिये दुनिया के अनेक देशों से सम्पर्क भी कर रहा था। पटेल ने हस्तक्षेप करके इस राज्य को बचाया। इसके चलते पटेल के अनुसार – हमारे पास अंतिम उपाय यही रह गया था कि विभाजन को मंजूर करते। हम ऐसी स्थिति में जा पहुंचे थे कि यदि ऐसा नहीं करते तो हम सब कुछ खो बैठते।

माउंटबैटन पर यह भी दवाब था कि ब्रिटिश साम्राज्य के आर्थिक हित तो सुरक्षित रहें ही, व्यक्तिगत रूप से अंग्रेजों ने जो अकूत सम्पत्ति भारत में जुटा कर रखी है उसका भी संरक्षण हो।  उद्योग के क्षेत्र में खानों, सड़क और जल परिवहन, पंजाब में स्थित हजारों एकड़ के फॉर्म, आसाम में चाय के बागान, कॉफी, रबर और सन के व्यापार पर अंग्रेजों का प्रायः एकाधिकार था। कपास और अन्य उद्योग-धंधों में भी उनका बड़ा निवेश था। आंकड़ों के अनुसार इससे उन्हें लगभग 1 अरब 70 करोड़ डॉलर का प्रतिवर्ष लाभ होता था। तमाम तरह के निजी व्यवसायों के अतिरिक्त चर्च के नाम पर खड़ी की गयीं सम्पत्तियां भी थीं। यह तभी संभव था जब सत्ता हासिल करने वाले लोग अंग्रेजो के विश्वस्त हों, सत्ता हस्तांतरण शांतिपूर्वक हो और आगे भी जवाबदेही बनी रहे, इसके लिये दोनों डोमिनियन ब्रिटिश राष्ट्रमण्डल के सदस्य बने रहें। साथ ही मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की माँग स्वीकार करने के बाद यह भी जरूरी समझा जाने लगा था कि हिन्दुओं को भी संतुष्ट करने का कोई रास्ता निकाला जाय और इसके लिये पंजाब, बंगाल और आसाम के हिन्दू बहुल जिलों को अलग कर भारत में मिलाने की रूप-रेखा बनी।

4 जुलाई से 16 जुलाई 1947 के बीच 12 दिन की चर्चा में ही ब्रिटिश संसद ने भारतीय स्वतंत्रता विधेयक पारित कर दिया। 18 जुलाई को उस पर शाही अनुमति भी प्राप्त हो गयी। माउंटबैटन की निजी महत्वाकांक्षाएं भी अपनी भूमिका निभा रहीं थी। पहले वे ब्रिटिश नौसेना के प्रमुख बनना चाहते थे इसलिये अपना काम जल्दी निपटा कर वापस जाने के इच्छुक थे। बाद मे वे भारत और पाकिस्तान, दोनों के संयुक्त गवर्नर जनरल बनने के लिये प्रयास करते रहे। पं. नेहरू ने माउंटबैटन को अपनी ओर से स्वतंत्र भारत का गवर्नर जनरल बनने का आग्रह किया। उम्मीद थी कि नेहरू के प्रस्ताव के बाद जिन्ना भी इसके लिये तैयार हो जायेंगे। माउंटबैटन ने उन्हें यह समझाने की कोशिश की कि जनतांत्रिक व्यवस्था में शक्ति प्रधानमंत्री के हाथ में होती है, गवर्नर जनरल का पद केवल संवैधानिक प्रमुख का होता है और उसे प्रधानमंत्री की सलाह पर कार्य करने के लिये बाध्य होना पड़ता है। इस पर जिन्ना ने उनके प्रस्ताव को नकारते हुए कहा, मेरी स्थिति में मैं ही सलाह दूंगा और दूसरे को उसके अनुसार काम करना पड़ेगा।

भारत का विभाजन तात्कालिक परिस्थितियों से उपजी मांग अथवा अनिवार्यता नहीं थी। यह अंग्रेजों की नीति का हिस्सा थी जिसे हर जागरूक भारतीय समझता था। 1935 के कानून में मुस्लिमों के लिये किये गये विशेष प्रावधानों ने संकेत दे दिये थे कि वे साम्प्रदायिक आधार पर बंटवारे को मजबूत कर रहे हैं। सत्ता देने पर भी उसे पंगु बना देने के लिये विभाजन आवश्यक होता है। भारत के संविधान में विभाजन का वही सिद्धांत रूप बदल कर मौजूद था।

विभाजन के यह बीज 1935 के शासन विधान में मौजूद थे। अंग्रेजों को अपनी रणनीति को लागू करने के लिये किसी भारतीय की जरूरत थी और जिन्ना ने वह कमी पूरी कर दी। 1943-44 में चक्रवर्ती राजगोपालाचारी द्वारा हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिये किये गये सारे प्रयत्न निष्फल सिद्ध हुए। उनके द्वारा जिन्ना के सामने रखे गये प्रस्ताव एक प्रकार से पाकिस्तान के निर्माण को स्वीकार करने जैसे ही थे जिसे महात्मा गांधी की भी स्वीकृति प्राप्त थी। जिन्ना से उनकी अपेक्षा केवल इतनी थी कि यह समझौता ब्रिटेन द्वारा भारत को स्वशासन सम्बंधी अधिकार सौंपे जाने के बाद लागू हो। यह अधिकार जल्द से जल्द हस्तांतरित हों, इसके लिये दोनों मिल कर संघर्ष करें। किन्तु जिन्ना ने इस प्रस्ताव को नकार दिया। जिन्ना प्रायः इस बात के लिये भी तैयार थे कि अंग्रेजों के रहते ही पाकिस्तान बन जाये और उसके सर्वे-सर्वा वे स्वयं हों, फिर अंग्रेज भारत छोड़ें अथवा बने रहें, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।

इस पृष्ठभूमि में, जब प्रायः सभी पक्ष विभाजन स्वीकार करने के लिये मानसिक रूप से तैयार थे, विभाजन अवश्यंभावी था। किन्तु मुस्लिम लीग को छोड़ कर सभी यह उम्मीद कर रहे थे कि तात्कालिक उन्माद कम हो जाने के बाद विभाजन को अप्रासंगिक बनाया जा सकेगा। अंग्रेजों को भी कहीं न कहीं यह भय बना हुआ था इसलिये उन्होंने यह जरूरी समझा कि जाने से पहले कुछ ऐसे मुद्दे अनिर्णीत छोड़ जायें, कुछ विवादों को जन्म दे जायें, जो उसे लम्बे समय तक उलझाये रख सकें। कोई ऐसा समूह या भू-भाग हो जो उनके जाने के बाद भी उनकी कठपुतली की तरह काम करने को तैयार हो ताकि वे विश्व रंगमंच पर उनकी भूमिका को प्रभावी ढ़ंग से निभा सकें। यही उन्होंने किया भी। जम्मू कश्मीर में उन्हें यह संभावना नजर आयी और उन्होंने इसे न केवल विवादित बनाया बल्कि इस विवाद को जटिल बनाने में पर्याप्त भूमिका भी निभायी। भारत की स्वतंत्रता की घोषणा से एक दिन पहले ही ब्रिटिश भारत को दो राज्यों में विभाजित कर दिया गया था। यह मुस्लिम लीग के द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत को कांग्रेस की स्वीकृति की अनिवार्य परिणति थी।

15 अगस्त। भारत का स्वतंत्रता दिवस। हजार वर्ष की परतंत्रता और उसके विरुद्ध लड़े गये निरंतर संग्राम में से यह स्वतंत्रता प्रकट हुई थी। लेकिन यह स्वतंत्रता अपने साथ मुठ्ठी भर खुशियां लायी तो झोली भर पीड़ा। हजार साल की गुलामी में हमने भारत के जिस भू-भाग को कभी अपने से अलग नहीं माना, वह पल भर में पराया हो गया। इतना पराया कि वह कभी फिर से हमसे आ मिलेगा, यह उम्मीद भी नहीं रही।

14 अगस्त की भोर के साथ ही पाकिस्तान का उदय हुआ और भारत का एक भाग कट कर अलग हो गया। देश के तत्कालीन राजनेताओं के दिवास्वप्न टूट गये। एकता के लिये सब कुछ कुर्बान करने की बातें भी निरर्थक साबित हुईं। इस्लाम के नाम पर एक भावोद्रेक उमड़ा और सदियों की एकता को बहा ले गया। लाखों लोग मारे गये। महिलाओं की लाज लुटी और नरसंहार का जो भीषण दौर चला वह अभूतपूर्व था।

केवल 90 वर्ष पहले 1857 के स्वातंत्र्य समर में कंधे से कंधा मिला कर लड़ने वाले मुस्लिम समाज को पाकिस्तान के जनक मुहम्मद अली जिन्ना यह समझाने में सफल रहे कि मुस्लिम अलग राष्ट्र हैं और हिन्दुओं के साथ मिल कर रह पाना उनके लिये असंभव है। भारत के मुस्लिम समाज के लिये यह किसी विडंबना से कम नहीं कि वह पांच वक्त के नमाजी और एकता के समर्थक मौलाना अबुल कलाम आजाद और सरहदी गांधी खान अब्दुल गफ्फार खां को छोड़ व्यक्तिगत जीवन में इस्लाम से कोसों दूर रहे जिन्ना के पीछे चल पड़ा।

पाकिस्तान की मांग के पीछे मुहम्मद इकबाल या जिन्ना या लियाकत अली नहीं बल्कि अंग्रेजों की कपट नीति थी, यह अब आइने की तरह साफ है। लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के बाद भारत से अपना बोरिया-बिस्तर समेटने को मजबूर अंग्रेजों ने उसकी प्रगति के रास्ते में क्या-क्या कांटे बिछाने की साजिश रची है, यह तब कम लोग ही जानते थे।

आज इस बात के स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध हैं कि अंग्रेजों ने जिन्ना का अपने हित में उपयोग किया तथा भावनाओं का ऐसा तीव्र ज्वार उत्पन्न किया कि हजारों पीढ़ियों से चली आ रही पूर्वजों की थाती बंट गयी। भारतीय उपमहाद्वीप ने इसकी बहुत बड़ी कीमत चुकाई है। अपने देश का सपना ले कर जो लोग भारत छोड़ कर गये वे आज नारकीय जीवन जीने को अभिशप्त हैं। कल्पना लोक का वह स्वर्ग आज दुनियां भर में आतंक के स्रोत के रूप में जाना जाता है। ओसामा सहित तमाम आतंकवादियों की यह शरणस्थली बना है।

भारतीयों की आस्था के केन्द्र ननकाना साहब, हिंगलाज मंदिर और शारदा पीठ इस विभाजन में हमसे दूर हो गये। चाणक्य की स्मृति दिलाने वाला तक्षशिला आज भारत में नहीं है। जिस सिंधु के तट पर भारतीय सभ्यता ने आंखें खोलीं, वेदों की रचना हुई, उसके एक बहुत छोटे हिस्से से ही हमारा संबंध बचा है। कैलाश पर्वत के शिखर और मानसरोवर झील अब भारत में नहीं है। जिन शिखरों पर भारतीय सैनिकों की विजयवाहिनी ने अपने पदचिन्ह छोड़े, आज वहां हमारे नागरिक जा भी नहीं सकते।

अंग्रेजों ने जाते-जाते भारत के मानचित्र पर रेखा खींच कर जिस नये देश को जन्म दिया, उसने अपने इतिहास का प्रारंभ ही भारत पर आक्रमण के साथ किया। पश्चिम पंजाब और पूर्वी बंगाल में हुए नरमेध न तो उसकी रक्तपिपासा को शांत कर सके थे और न ही भूमि की उसकी भूख को। अक्तूबर 1947 में ही उसने जम्मू-कश्मीर पर आक्रमण कर दिया।

भारत और पाकिस्तान दोनों का ही तत्कालीन नेतृत्व भारत विभाजन के अंग्रेज-अमेरिकी षड्यंत्र में मोहरे की भूमिका में ही था। विश्व के युद्ध इतिहास का यह अद्वितीय उदाहरण है जब भारत के सर्वोच्च सेनाधिकारी, पाकिस्तान के सर्वोच्च सेनाधिकारी दोनों की संयुक्त कमांड के प्रमुख, सभी अंग्रेज थे । भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन भी अंग्रेज थे जो ब्रिटिश राजघराने के बेहद नजदीक थे। इसके बावजूद दोनों देशों की सेनाएं युद्धरत थीं।

पाकिस्तान की ओर से सेना लगातार आक्रमण कर रही थी जिसे वहां के अंग्रेज सेनाधिकारियों का सहयोग मिल रहा था। इधर माउंटबेटन ने प्रधानमंत्री नेहरू पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए भारत की सेनाओं को आगे बढ़ने से रोका और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में मामला ले जाने के लिये प्रेरित किया। सुरक्षा परिषद ने आक्रांता और पीडित को एक ही तराजू पर तोला। सुरक्षा परिषद में आने वाले हर प्रस्ताव में पलड़ा पाकिस्तान की ओर झुका रहा। परिणामस्वरूप भारत के 84 हजार वर्ग किलोमीटर भू-भाग पर पाकिस्तान का अवैध कब्जा बना रहा। इसमें से 5 हजार वर्गकिमी से अधिक उसने चीन को भेंट कर दिया।

ब्रिटिश अधिकारी तथा कांग्रेस के बीच जब सत्ता हस्तांतरण पर विचार विमर्श चल रहा था और शिमला और दिल्ली में वार्ताओं के दौर जारी थे, मुस्लिम लीग ने दवाब बनाने के लिये सीधी कार्रवाई की घोषणा कर दी। इसके लिये 16 अगस्त 1946 का तिथि घोषित की गयी। मुस्लिम लीग के सदस्य कलकत्ता की सड़कों पर लड़ कर लेंगे पाकिस्तान के नारे लगाते हुए निकले और देखते ही देखते पूरा शहर हिंसा की आग में जल उठा। हजारों लोगों की हत्या, लूट और महिलाओं के अपमान की घटनाओं से कोलकाता त्रस्त हो उठा। नोआखाली में इसका बर्बर रूप देखने मिला। हिंसा की यह आग बंगाल की सीमा को पार कर बिहार तथा अन्य स्थानों पर भी फैल गयी। हिंसा के बल पर मुस्लिम लीग सत्ता हथियाना चाहती थी जिससे द्वारा वह देश के विभाजन और पाकिस्तान के निर्माण की योजना पूरा करने की इच्छुक थी।

सीधी कार्र्वाई की घटना ने आने वाले दिनों की रूपरेखा स्पष्ट कर दी। बंगाल से प्रारंभ हुईं हिंसा की लपटें बिहार के बाद उत्तर प्रदेश, हरियाणा के मेवात, राजस्थान के कुछ भाग, हिमाचल, पंजाब, सिंध, बलूचिस्तान, उत्तर-पश्चिम सीमा प्रान्त तक फैल गयी। महात्मा गाँधी को जिस जम्मू कश्मीर में उम्मीद की किरण नजर आती थी वह जम्मू कश्मीर भी कुछ देर से, लेकिन इस अराजकता में शामिल हो गया। एक तरह से तत्कालीन भारत का आधे से अधिक भाग इन पाशविक घटनाओं की चपेट में था।

मानवता को लज्जित करने वाली घटनाएं हर तरफ देखने को मिल रही थीँ। 15 अगस्त तक भी यह आधिकारिक रूप से घोषित नहीं हुआ था कि पंजाब का कौन सा हिस्सा भारत में रहेगा और कौन सा पाकिस्तान में। लेकिन कांग्रेस के नेताओं ने जब लाहौर छोड़ना शुरू कर दिया तो स्थानीय हिन्दुओं को आसंन्न संकट का अंदेशा होने लगा। उन्होंने भी यथासंभव अपना सामान बाँध कर अपनी पुरखों की भूमि से विदा लेना प्रारंभ किया। कुछ लोग जिनका अभी भी नेतृत्व पर विश्वास था, को लगता था कि साम्प्रदायिक विद्वेश का ज्वार जब उतर जायेगा तो सब कुछ पहले जैसा सामान्य हो जायेगा। वहीं सीमा प्रान्त और ग्रामीण क्षेत्रों से आ रही सूचनाओं के आधार पर एक बड़ी जनसंख्या इसे सदैव के लिये अपना निर्वासन मानकर सुरक्षित स्थानों पर जाने की जल्दी में थी।

कम ही लोग थे जो सौभाग्य से बच कर भारत आ सके। अधिकाँश लोगों की धन-सम्पत्ति तो लुटी ही, पुरषों का जीवन और नारियों का शील भी न बच सका। हैवानियत और बर्बरता के वे किस्से जो अधिकांश लोगों ने अपने परिवारीजनों के साथ घटते देखे, आजीवन उनको मथते रहे। उनकी आहें उनके गलों में रुंध गयीं। अपनी अगली पीढ़ी को वे उन लोमहर्षक घटनाओं को बताने तक का साहस नहीं कर सके कि उनके अपनों के साथ क्या बीता था।

एक मोटे अनुमान के अनुसार विभाजन से जुड़ी इस त्रासदी में लगभग 20 लाख लोगों की हत्या हुई। दो करोड़ से अधिक लोगों को अपने पूर्वजों की धरती छोड़ कर अनजानी जगहों पर विस्थापित होकर आना पड़ा जहाँ अनिश्चित भविष्य उनके सामने था। शरणार्थी शिविरों में नारकीय परिस्थितियों में जीवनयापन करते हुए इस समाज ने अपने श्रम और जिजीविषा के बल पर न केवल अपनेआप को संभाला, अपितु राष्ट्रीय पुनर्निर्माण में अपना भरपूर योगदान दिया। आज भारत को हम जिस ऊंचाई पर देख कर गर्व का अनुभव करते हैं, उसमें उस विस्थापित समाज का भी रक्त-मज्जा शामिल है। स्वाधीनता के बाद भारत की राष्ट्रीय आकांक्षा को साकार करने के लिये पूरे देश ने अकथनीय श्रम किया है और अपना सर्वश्रेष्ठ दिया है। लेकिन अंतर्मन में बिंधा विस्थापन का यह तीर आज भी उस पीढी के लोगों को विचलित कर देता है। संभवतः उस तीर की कसक ही भारत के उन ऐतिहासिक नगरों और पवित्र तीर्थों की मुक्ति का आधार बनेगी।

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