अरुण जेटली के सफल और सार्थक जीवन का संदेश क्या है? वह सुनने में अत्यंत सरल है। लेकिन उसमें जीवन जीने की कला है। ऐसा मंत्र है जो अरुण जेटली को जानने-समझने और उनसे प्रेरणा लेने में हमेशा सहायक होगा। वह इन थोड़े से शब्दों में समाया हुआ है- अपना कार्य समझ लें और उसे पूरे कर्म कौशल से निभाएं। यही वह मंत्र है जो अरुण जेटली दे गए हैं। यह है अत्यंत प्राचीन। भारत की मिट्टी में पला बसा, संस्कारों में रक्त संचार की तरह अदृश्य। लेकिन हर क्षण उसका अनुभव हर कोई करता है। जहां यह सच है, वहीं एक बड़ी विडंबना भी है कि विरले ही होते हैं, जो इस पुराने मंत्र को अपने जीवन में उतार पाते हैं। अरुण जेटली अपने समय में सबसे ऊपर थे। यह सोचकर ही मन विह्वल हो जाता है कि वे शरीर से नहीं रहे। अशरीरी हो गए।
राष्ट्रीय राजनीति में अपनी महती भूमिका के लिए अरुण जेटली जिन बड़े कार्यों के आधार पर याद किए जाएंगे, उसकी शुरुआत उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष के रूप में की। दिल्ली विश्व विद्यालय छात्र संघ की छवि उन्होंने चमका दी। पहले वह धूमिल थी। सच कहें तो कलंकित थी। सत्ता की चेरी के रूप में छात्र जगत में जानी जाती थी। अरुण जेटली ने उसे व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई में हरावल दस्ता बना दिया। वे दिन थे, जेपी आंदोलन के। जिसमें संपूर्ण क्रांति और समग्र क्रांति के सपने पल रहे थे। कोई छात्र नेता जो बरायनाम भी होगा, वह कैसे इस सपने से अपने को दूर रख सकेगा! अरुण जेटली तो निर्वाचित नेता थे। जिस छात्र नेता ने छात्र राजनीति को राष्ट्रीय महिमा और गरिमा दी, उसके बारे में भ्रमवश या ईर्ष्यावश अक्सर कहा जाता है कि वे लोकसभा का चुनाव एक बार भी जीत नहीं सके। यह कथन राजनीतिक नासमझी का है।
अरुण जेटली वीर पुरुष थे। ईमानदार ही वीरता का वरण करता है। इसका सबसे सटीक उदाहरण 26 जून, 1975 का है। लोकतंत्र का गला घोटा गया। तानाशाही थोपी गई। पूरे देश में गहरे अंधकार का सन्नाटा छा गया। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में ही उस अभिशाप को मिटा देने का पहला पराक्रम आप जानते हैं, किसने किया? वे अरुण जेटली थे। इसका उल्लेख कई पुस्तकों में है। लेकिन उस पराक्रम को वे उल्लेख समझाते कम हैं, पाठक को भ्रमित ज्यादा करते हैं। वे बताते हैं कि दिल्ली विश्वविद्यालय परिसर में मात्र दो सौ छात्र ही विरोध में उतरे, जिसका नेतृत्व अरुण जेटली कर रहे थे। जिसने इमरजेंसी को झेला है, देखा है और मन की पीड़ा से उपजी बगावत मोल ली है, वे ही जान सकते हैं कि इमरजेंसी के पहले दिन इतने छात्रों का विरोध वह भारत की पहली घटना थी। वे दो सौ छात्र पूरी छात्र शक्ति के प्रतिनिधि थे। संख्या पर नहीं, उनके साहस को याद किया जाना चाहिए। साहस तो वास्तव में संपन्न माता-पिता की संतान अरुण जेटली ने दिखाया था। उसकी सजा काटी। इमरजेंसी भर जेल में रहे। एक मई, 1977 को नानाजी देशमुख की सलाह पर जनता पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर ने अरूण जेटली को युवा जनता का राष्ट्रीय संयोजक बनाया। किसी भी छात्र नेता के लिए वह आत्म गौरव का क्षण होगा। जिसे अरुण जेटली ने विद्यार्थी परिषद के नेतृत्व की सलाह पर अस्वीकार किया। प्रश्न सैद्धांतिक जो था। वह अरुण जेटली का त्याग भी था।
6 मार्च 1975 को दिल्ली में जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में बिहार आंदोलन के समर्थन में दिल्ली में एक रैली हुई जिसमें शिरोमणी अकाली दल, भारतीय जनसंघ, सोशलिस्ट पार्टी, कांग्रेस संगठन आदि के बड़े नेता शामिल थे । रैली के अटल बिहारी वाजपेयी, श्यामनंदन मिश्र, मधु के नेतृत्व में लोकसभा अध्यक्ष को ज्ञापन सौंपा गया। भारत के इतिहास ऐसा पहली बार हुआ जब लोकसभा अध्यक्ष को ज्ञापन दिया गया था, जिसे लोकसभा के इतिहास में अंकित किया गया । आमतौर पर ज्ञापन प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति के नाम पर दिया जाता है । इसके पीछे तर्क था कि हम जनता के द्वारा चुने गये जनप्रतिनिधि के अध्यक्ष को प्रत्यक्ष रूप से ज्ञापन सौंप रहे हैं । उसी दिन शाम में जेपी द्वारा गांधी शांति प्रतिष्ठान में चुने गये छात्रनेताओं की बैठक बुलाई गई और राष्ट्रीय स्तर पर छात्र संघर्ष समिति बनाई गई जिसका राष्ट्रीय संयोजक अरूण जेटली एवं सह संयोजक तत्कालीन जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष आनंद कुमार को बनाया गया ।
एक अनकही कहानी कहना जरूरी है। 1987 का साल राजनीतिक संकट का जितना राजीव गांधी के लिए था, उससे अधिक वह बड़े संवैधानिक संकट की छाया में था। एक दिन अरुण जेटली ने मुझे एक दस्तावेज दिया। उसे वकील राम जेठमलानी ने बनाया था, जो राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह के लिए था। जिसके आधार पर वे प्रधानमंत्री राजीव गांधी को बर्खास्त करने का इरादा बना चुके थे। वह दस्तावेज 29 मार्च, 1987 को नवभारत टाइम्स में छपा। जो उस समय की बड़ी संवैधानिक दुघर्टना को टालने में सहायक हुआ। इसी विचार से अरुण जेटली ने उसे दिया भी था। बहुत बाद में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने स्वीकार किया कि ज्ञानी जैल सिंह ‘प्रधानमंत्री राजीव गांधी को बर्खास्त करने का संवैधानिक आधार’ खोज रहे थे। वह घातक कदम होता। जिसे अरुण जेटली की सूझबूझ से रोका जा सका। उन्होंने विश्वनाथ प्रताप सिंह को उस साजिश में न पड़ने की सलाह दी थी। जिसे उन्होंने माना भी।
ऐसी अनेक घातक राजनीतिक घटनाओं को अरुण जेटली ने कब-कब रोका और कैसे राजनीति की धारा को बदल दिया, इस पर भविष्य में अनेक शोध होंगे। भारतीय जनता पार्टी के लिए ऐसा ही एक संक्रमणकालीन दौर 2013 में था। नेतृत्व के प्रश्न को जिस राजनेता ने चुपचाप हल करवाया वे कोई दूसरे नहीं, अरुण जेटली ही थे। उसकी कुछ बातें प्रसंगवश मुझे मालूम है। उन बातों के बारे में लिखने का फिर कभी समय जरूर आएगा।