संपादकीय
26 नवंबर को संविधान दिवस है। इस वर्ष भारतीय संविधान की रचना पूर्ण होने का 75वां वर्ष प्रारंभ हो रहा है जो आपातकाल के संक्षिप्त विराम को छोड़, इस यात्रा की निरंतरता का उत्सव है।
भारत के साथ ही स्वतंत्र हुए पड़ोसी देशों में उनके संविधानों के साथ बार-बार छेड़छाड़ का इतिहास मिलता है। उनके संविधानों की रचना भी बदलती सत्ता की रुचियों के अनुसार बदलती गई क्योंकि उनकी रचना के पीछे कोई राष्ट्रीय अथवा ऐतिहासिक दृष्टि नहीं थी। भारत का संविधान न केवल सुचिंतित है, अपितु भारतीय दर्शन, परम्परा और लोकजीवन के विभिन्न आयामों को समेटता हुआ एक ऐसा दस्तावेज है जो प्रत्येक भारतीय को अपने विचारों की अभिव्यक्ति लगता है।
भारत में गणतंत्र अनादि काल से चला आ रहा है। इसीलिए पिछले कुछ समय से इसे “भारत-लोकतंत्र की जननी के नाम से संबोधित किया जा रहा है। वैशाली और लिच्छिवी गणराज्य से पूर्व भी भारत के एक बड़े भू-भाग में यादवों के गणतंत्र थे, जिनमें सभा और समितियों के माध्यम से जनप्रतिनिधित्व और सामूहिक नेतृत्व जैसे लोकतांत्रिक मूल्यों का दर्शन होता था।
संविधान निर्माण के लिए चुनी गई संविधान सभा में न केवल ब्रिटिश भारत, अपितु रियासतों के प्रतिनिधियों का समुचित प्रतिनिधित्व था। इसके बाद भी भारत में जुड़ने वाली रियासतों की पहली विधानसभा को अपने राज्य की आवश्यकताओं के अनुरूप संवैधानिक सुधारों को प्रस्तावित करने की छूट दी गई थी। यह संविधान सभा की सामूहिक प्रज्ञा का ही उदाहरण है कि उसमें अनेक प्रावधान ऐसे जोड़े गए जिन्होंने भविष्य में होने वाली समस्याओं की संभावनाओं को उत्पन्न होने से पहले ही टाल दिया।
यद्यपि विलायत से पढ़कर लौटे कतिपय नेता इसे अंग्रेजों की देन और ‘नेशन इन मेकिंग’ मानते थे परन्तु उसी संविधान सभा में बहुसंख्य सदस्य ऐसे थे, जो भारतीयता के भाव से ओत-प्रोत थे। उनके ही आग्रह के चलते संविधान की मूल प्रति में प्रत्येक अध्याय के प्रारंभ में भारत के सांस्कृतिक-दार्शनिक आख्यान को स्मरण कराने वाले चित्रों का संयोजन किया गया, जो इसे भारत की सांस्कृतिक निरंतरता से जोड़ता है।
संविधान में प्रयुक्त एक-एक शब्द और उसकी व्याख्या को लेकर लंबी चर्चा हुई। वाद-प्रतिवाद हुए। अंततः सदन ने जिसे स्वीकृति दी वह आज भी उतना ही प्रासंगिक है। पूज्य डा. बाबासाहब आंबेडकर द्वारा ‘फेडरेशन’ के स्थान पर ‘राज्यों के संघ’ शब्द का प्रयोग और प्रस्तावना में ‘बंधुत्व’ शब्द जोड़ा जाना उनकी राजनीतिक और सामाजिक दृष्टि की गहनता को प्रकट करता है। सभी राज्यों को अपनी परिस्थितियों के अनुरूप संविधान बनाने का अवसर देना, उनके कठिनाई अनुभव करने पर उन्हें आदर्श संविधान उपलब्ध कराना और अंततः उसे भारतीय संविधान के अंगीभूत घटक के रूप में स्वीकार कर उन राज्यों की जनता के मन में केन्द्रीय संविधान के प्रति विश्वास प्राप्त करने की अनूठी पहल थी।
यही कारण है कि आपातकाल के अंधेरे से संविधान को बचाने के लिए सभी वर्ग और समूह एकजुट होकर आगे आए और केवल उन्नीस माह में ही वह अंधियारा छंट गया। हर सकारात्मक परिवर्तन को आत्मसात करने वाला यह संविधान एक जीवंत दस्तावेज है जो प्रत्येक भारतीय के जीवन को स्पर्श करता है। 75वें वर्ष का यह अवसर भारतीय गणतंत्र को और अधिक सुदृढ़ करने और सर्वसमावेशी बनाने की दिशा में एक मील का पत्थर सिद्ध होगा यह विश्वास है।
गुरु गोरखनाथ जी की तपस्थली में आयोजित परिषद के राष्ट्रीय अधिवेशन में उपस्थित प्रतिनिधि इस दिव्य क्षेत्र की आध्यात्मिक ऊर्जा और सांस्कृतिक चेतना की अनुभूति लेकर अपने कार्यक्षेत्र में जाएंगे तो उनके प्रयास अवश्य सुफलदायी होंगे।
हार्दिक शुभकामना सहित
आपका
संपादक