भारतीय सभ्यता का इतिहास केवल राजाओं, युद्धों और साम्राज्यों का इतिहास नहीं है, बल्कि यह धर्म, त्याग, बलिदान और नैतिक साहस की अखंड परंपरा का जीवंत प्रमाण है। इस परंपरा में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहां बालकों ने भी सत्य और धर्म की रक्षा के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग किया। सिख इतिहास में गुरु गोबिंद सिंह जी के चार पुत्र—साहिबज़ादा अजीत सिंह, साहिबज़ादा जुझार सिंह, साहिबज़ादा जोरावर सिंह और साहिबज़ादा फतेह सिंह—ऐसे ही अमर बाल-वीर हैं, जिनका बलिदान संपूर्ण भारतीय सभ्यता की साझा नैतिक धरोहर है।
26 दिसंबर को ‘वीर बाल दिवस’ घोषित किया जाना केवल सिख इतिहास का सम्मान नहीं, बल्कि भारतीय सांस्कृतिक चेतना का उत्सव है। यह दिवस हमें यह स्मरण कराता है कि धर्म की रक्षा, सत्य की प्रतिष्ठा और अन्याय के विरुद्ध संघर्ष किसी एक संप्रदाय तक सीमित नहीं, बल्कि भारतीय जीवन-दर्शन का मूल तत्व है।
भारतीय सभ्यता की आत्मा त्याग और धर्म से निर्मित है। हिंदू दर्शन में धर्मरक्षा को जीवन का सर्वोच्च कर्तव्य माना गया है, जहां सत्य के लिए प्राणोत्सर्ग को भी श्रेयस्कर कहा गया है। इसी परंपरा में चार साहिबज़ादों का बलिदान भारतीय इतिहास का अमर अध्याय बन गया। यद्यपि वे सिख परंपरा से थे, किंतु उनके जीवन-मूल्य साहस, आत्मसम्मान और अन्याय के प्रतिकार, सनातन भारतीय दर्शन से पूर्णतः मेल खाते हैं।
गुरु गोबिंद सिंह जी (1666–1708) केवल सिखों के गुरु नहीं थे, बल्कि वे भारतीय धर्म-परंपरा के महान रक्षक थे। उनका प्रसिद्ध कथन— “जब सब उपाय असफल हो जाएं, तब धर्म की रक्षा के लिए शस्त्र उठाना भी धर्म है,”
भगवद्गीता के कर्मयोग और धर्मयुद्ध की अवधारणा से सीधा संवाद करता है।
1705 ई. के चमकौर के युद्ध में साहिबज़ादा अजीत सिंह और साहिबज़ादा जुझार सिंह का बलिदान भारतीय इतिहास में बाल-वीरता का अनुपम उदाहरण है। अत्यंत कम आयु में असंख्य मुगल सेना के सामने धर्म की रक्षा हेतु युद्धभूमि में उतरना महाभारत के अभिमन्यु के चक्रव्यूह प्रवेश की स्मृति कराता है।
वहीं सरहिंद में छोटे साहिबज़ादों—जोरावर सिंह और फतेह सिंह को इस्लाम स्वीकार करने का प्रलोभन दिया गया, किंतु उन्होंने निर्भीक होकर अपने धर्म से विचलित होने से इनकार कर दिया। दीवार में जीवित चिनवाए जाने का उनका अमानवीय अंत यह सिद्ध करता है कि अत्याचार चाहे कितना भी क्रूर क्यों न हो, धर्मनिष्ठा उससे अधिक अडिग होती है। उनके बलिदान का समाचार सुनकर माता गुजरी जी का प्राणत्याग भारतीय परंपरा में मातृ-शक्ति और त्याग का मार्मिक प्रतीक है।
हिंदू धर्म में बलिदान और वीरता की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है—रामायण में श्रीराम का वनगमन, महाभारत में अभिमन्यु का बलिदान, प्रह्लाद का अत्याचार के सामने अडिग रहना, तथा राजा हरिश्चंद्र और पन्ना धाय जैसे उदाहरण इसी परंपरा को पुष्ट करते हैं। चार साहिबज़ादों का जीवन और बलिदान उसी सांस्कृतिक निरंतरता का आधुनिक प्रतीक है।
वीर बाल दिवस केवल शहादत का स्मरण नहीं, बल्कि बच्चों में राष्ट्रप्रेम, युवाओं में साहस और समाज में सांस्कृतिक एकता का संचार करने का अवसर है। यह पर्व न तो किसी संप्रदाय को विभाजित करता है और न ही किसी धर्म को सीमित करता है। यह धर्म नहीं, धर्मरक्षा का पर्व है; अतीत नहीं, भविष्य की प्रेरणा है।
समकालीन भारत में, जब सांस्कृतिक विस्मृति और ऐतिहासिक विकृति की प्रवृत्तियाँ बढ़ रही हैं, वीर बाल दिवस हमें अपनी जड़ों से पुनः जुड़ने का अवसर प्रदान करता है। यह दिवस सिख और हिंदू परंपराओं को एक साझा सांस्कृतिक धारा में जोड़ते हुए भारतीय राष्ट्रवाद को नैतिक आधार प्रदान करता है।
भगवद्गीता का श्लोक—
“स्वधर्मे निधनं श्रेयः, परधर्मो भयावहः,”
चारों साहिबज़ादों ने इसे शब्दों से नहीं, अपने बलिदान से सिद्ध किया। उनका संदेश आज भी उतना ही प्रासंगिक है कि धर्म की रक्षा के लिए आयु या संख्या नहीं, बल्कि अटूट संकल्प आवश्यक होता है।
वीर बाल दिवस हमें यह स्मरण कराता है कि राष्ट्र केवल भू-भाग नहीं, बल्कि उन बलिदानों का परिणाम है जो निःस्वार्थ भाव से दिए गए। चार साहिबज़ादों का बलिदान भारतीय आत्मा का शाश्वत संदेश है—धर्म के लिए दिया गया बलिदान कभी व्यर्थ नहीं जाता, वह राष्ट्र की चेतना में अमर हो जाता है।
