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छात्रशक्ति मई 2019 संपादकीय

देश में चुनाव का वातावरण है। विभिन्न राजनैतिक दल अपनी-अपनी जीत के लिये सारे उपाय आजमा रहे हैं। दौड़ में खुद को आगे निकालने से ज्यादा कोशिश इस बात की है कि प्रतिपक्षी कैसे पीछे रहे। इसके लिये सही-गलत और सच-झूठ की परवाह किये बिना एक दूसरे पर कीचड़ उछालने का दौर जारी है।

तीन दशक पहले तक भारत चुनाव को उत्सव की तरह मनाता था। रंग-बिरंगी पोशाकों में कौतुक दिखाते प्रत्याशी के समर्थक लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश करते थे। नाचते-गाते-झूमते महिला-पुरुष मतदान के लिये जाते थे। इस उत्सवधर्मिता के बीच कोई राजनेता यदि अपने प्रतिद्वंदी पर अभद्र टिप्पणी कर दे तो प्रतिपक्ष ही नहीं, उसके अपने दल के लोग भी उसे मर्यादा में रहने की नसीहत देते थे। इक्कीसवीं सदी ने इसे भी बदल दिया है।

तीन दशक पहले का चुनावी नारा होता था – हर खेत को पानी, हर हाथ को काम। इस नारे की चरम परिणति तो मनरेगा के जॉब कार्ड में हुई, साथ ही बदलती प्रौद्योगिकी ने हर हाथ में फोन और कैमरा भी थमा दिया। हर कोई अपने राजनैतिक आका के सच-झूठ को आगे बढ़ाने में लगा है। तथ्यों को जांचने परखने का समय कियी के पास नहीं है। जैसा आया, वैसा आगे बढ़ा दिया। एक आभासी दुनियां में सब एक दूसरे को सपने बेचते-बेचते कब झूठ के व्यापार का हिस्सा बन गये, पता ही नहीं चला।

चुनाव  पर भ्रष्टाचार का साया पड़ा तो अनजाने  कोनों से भ्रष्टाचार को बर्दाश्त न करने की हठ लिये आंदोलनकारी प्रकट हो गये। जिन्होंने आंदोलन किया, जेल गये, कष्ट सहे, और इसकी कीमत नहीं मांगी, वे विचार आधारित संगठन कदम-कदम आगे बढ़े। जिन्हें इसकी आड़ में जल्दी से जल्दी सब कुछ पा लेने की जल्दी थी, वे उसी भ्रषटाचार की दलदल में डूबने-उतराने लगे। यह 1977 में भी हुआ और 2014 में भी। इसके पीछे कोई विचार नहीं बल्कि विरोध ही इनका विचार था। इस अविचारित विरोध की परिणति अराजकता में हुई।

1977 और 2019 में कुछ बुनियादी फर्क हैं। तब राजनैतिक विचारधाराओं के संघर्ष के बीच राष्ट्रीय विचार हाशिये पर था। आज राष्ट्रीय विचार विमर्श के केन्द्र में है और विरोध में ऐसे दल हैं जो अपनी संकुचित विचारधाराओं और जाति और सम्प्रदाय की राजनीति के खोल से बाहर आने को तैयार नहीं। चुनाव को उत्सव से हटा कर कर्तव्य के नीरस चौखटे में तय करने वालों ने इसे राजनीति में शुचिता स्थापित करने का तर्क दिया था। आज वह शुचिता तार-तार है। सभी राजनैतिक दलों में शब्दों मर्यादा को न मानने वाले लोग मौजूद हैं और अधिकांश दलों का नेतृत्व अपने आपको नैतिकता के बोझ से मुक्त कर चुका है। झूठे आरोप लगाने में उनकी जबान नहीं लड़खड़ाती। फर्जी आंकड़े देते उनकी आत्मा उन्हें नहीं धिक्कारती। परिणामस्वरूप, इस चुनाव में राजनीति की गरिमा को हम निम्नतम स्तर पर जाते हुए देख रहे हैं।

एकमात्र स्थायी तत्व परिवर्तन है। इसलिये यह अवसर है कि देश का युवा इस राजनैतिक निम्नता को नकार कर मूल्याधारित उत्तरदायी शासन व्यवस्था की स्थापना का एक नया अध्याय लिखे। किसी भी लोकतंत्र में इसका रास्ता मतदान से होकर जाता है। इसलिये अधिकतम मतदान और विचारपूर्ण मतदान के लिये अधिकतम प्रयत्न आज की आवश्यकता हो। आज ऐसे राष्ट्रीय नेतृत्व को सत्ता सौंपे जाने की जरूरत है जिसके सामने भविष्य के भारत का सपना हो और दल और सत्ता की राजनीति से ऊपर उठ कर देश के पक्ष में निर्णायक फैसले लेने का साहस हो। परिषद कार्यकर्ता इस सामयिक चुनौती के लिये सक्रिय होंगे और अनुकूल परिणाम आने तक बने रहेंगे।

शुभकामना सहित,

संपादक

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