अनुच्छेद 370 में संशोधन, रामजन्मभूमि पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद जब नागरिकता संशोधन विधेयक 2019 भी संसद द्वारा पारित हो गया तो वे सभी शक्तियाँ बेचैन हो उठीं जिनके लिये देश में शांति और एकता का सशक्त होना दुःस्वप्न के समान है। ऐसे सभी विघ्नसंतोषी नागरिकता संशोधन अधिनियम के विरुद्ध एकजुट हुए और उनके प्रभावक्षेत्र वाले विश्वविद्यालयों में हिंसा और ध्वंस का खेल शुरू हो गया।
यह करते हुए वे यह भूल गये कि बदलते भारत में पुराने टोटके आजमा कर देश को अपने पीछे खड़ा करना मुश्किल है। वे यह भी भूल गये कि देश ने अब शांति की कीमत पहचानी है और यह भी जान लिया है कि तेज विकास के लिये शांति-व्यवस्था पहली शर्त है। उसने अपने विवेक से काम लेना शुरू कर दिया है, क्षणिक भावुकता के बाद वह पुनः अपनी सहज गति में आ जाता है। यह किसी एक वर्ग नहीं, बल्कि पूरे देश की सोच में आये बदलाव का निष्कर्ष है।
हाल ही में जेएनयू में हुए घटनाक्रम को यदि इकलौती घटना अथवा अपवाद के रूप में देख रहे हैं तो गलती पर हैं। अप्रासंगिक होती अपनी स्थिति से हताश वामपंथी छात्र संगठनों ने 5 जनवरी को जिस संगठित हिंसा का प्रदर्शन जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में किया, वह अलगाव की विचारधारा के लिये परिसर में स्थान और अवसर उपलब्ध कराने के दशकों पुराने अभ्यास का चरम बिन्दु था। अंतर केवल इतना है कि अतीत में इस परिसर में हथियार उठाने वालों का स्वागत हीरो की तरह किया जाता था, उनकी सभायें करायी जाती थीं, इस बार उनके समर्थकों ने खुद हथियार उठा लिये। 2016 के भारत तेरे टुकड़े होंगे और आजादी के नारे भूले नहीं होंगे। भूलना भी नहीं चाहिये।
निन्दनीय होते हुए भी यह घटना एक तरह से अच्छी ही है। वामपंथी दलों के लिये भी और देश के लिये भी। वे जिन आजादी और अलगाव के मुद्दों को विमर्श के केन्द्र में लाना चाहते थे, वह आ गया है। अकर्मण्य बौद्धिकता के धनी जो विद्वान शांति के उपदेश देते हुए टुकड़े-टुकड़े वाले नारों को कारपेट के नीचे ढ़क कर परोक्ष रूप से उनका ही हित साधन करते थे, उन्हें भी इस घटना के बाद अपना पक्ष स्पष्ट करना होगा। अभाविप को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश में उनके मीडिया में मौजूद शुभचिंतकों ने इस स्थानीय मुद्दे को राष्ट्रीय प्रश्न के रूप में देश के सामने प्रस्तुत करने की कोशिश की है, तो इस पर देश का मिजाज भी समझने का मौका उन्हें मिलेगा, जो इस अतिवाद से क्षुब्ध हो चुका है।
दुर्भाग्य से देश की संसद में निर्वाचित होकर आये विपक्ष के सदस्य भी संविधान की व्यवस्था को नकारने पर उतारू हैं। कांग्रेस द्वारा एक दल के रूप में अपने द्वारा शासित राज्यों में नागरिकता संशोधन अधिनियम नहीं लागू करने की घोषणा या तो उनके बौद्धिक दिवालियपन की ओर इंगित करती है अथवा राजनैतिक आत्महत्या के उनके संकल्प की। उन्हें याद रखना चाहिये कि दैश की जनता ने उन्हें संविधान के संरक्षम के लिये चुना है न कि उसके ध्वंस के लिये। साय ही उन्हें यह भी याद रखना होगा कि जिस जनता ने उन्हें चुन कर संसद में भेजा है उसने ही मोदी सरकार को पूर्ण बहुमत दिया है। उनके संवैधानिक अधिकार को चुनौती देने और हिंसा और आगजनी के बल पर इसे रोकने से पहले इसके संवैधानिक परिणामों का आकलन कर लेना उनके लिये अच्छा होगा।
नये घटना क्रम में देश के 200 से अधिक शिक्षाविदों ने 12 जनवरू को प्रधानमंत्री को संबोधित एक सार्वजनित पत्र में देश में बिगड़ते अकादमिक माहौल के लिये वामपंथी कार्यकर्ताओं के एक छोटे समूह की गतिविधियों को जिम्मेदार ठहराया है। इन शिक्षाविदों ने जेएनयू सहित देश भर के विभिन्न शिक्षण संस्थानों में हो रहे विरोध प्रदर्शनों में हस्तक्षेप करने का आग्रह किया है ताकि जल्द से जल्द परिसरों में सौहार्द्रपूर्ण महौल बहाल हो सके। निश्चय ही यह अभियान आने वाले दिनों में आगे बढ़ेगा और परिसरों में अलगाव और आतंक के समर्थन को लेकर एक निर्णायक राष्ट्रीय विमर्श को जन्म देगा।
अभाविप के कार्यकर्ता अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता को प्रकट करते हुए राष्ट्रीयता को इस विमर्श के केन्द्र में स्थापित करने के लिये यथासंभव प्रयत्न करेंगे। काल की अपनी गति होती है। परिषद के कार्यकर्ताओं की वर्तमान पीढ़ी के सम्मुख यह अवसर अनायास ही आ उपस्थित हुआ है जिसमें से वैचारिक रूप से विजयी होकर निकलने की चुनौती हमारे सम्मुख है।
भवदीय
संपादक