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भारतीयता के प्रतिनिधि स्वर गाँधी जी

महात्मा गाँधी जी की पुण्यतिथि विशेष
आशुतोष भटनागर

पिछली सदी के महानायकों में से एक मोहनदास करमचंद गाँधी को देश ने महात्मा के रूप में आदर दिया है। बीसवीं सदी का तीसरा और चौथा दशक तो भारत के राजनैतिक परिदृश्य में भारतीयता के प्रतिनिधि स्वर के रूप में महात्मा गाँधी सर्वदूर विद्यमान हैं। देश और दुनियाँ इसे एक चमत्कार की तरह देख रही है और इस चमत्कार का आधार है उनका नैतिक व आत्मबल।

बीसवीं सदी का मुहावरा था भारत गांवों में बसता है और गाँवों में बसने वाले इस भारत को बखूबी पहचानते थे। यह भारत भी लंगोटी वाले गाँधी में अपना प्रतिबिम्ब देखता था और उनके रचनात्मक कार्यक्रम से उसके अंदर बदलाव की उम्मीद जगी थी। उसे विश्वास था कि गाँधीजी भारतीयता में रचे-पगे आदमी हैं और देश की एकता-अखण्डता और सांस्कृतिक मूल्यों पर समझौता नहीं करेंगे।

महात्मा गाँधी इस विश्वास पर खरे उतरे। स्वतंत्रता के प्रश्न पर उन्होने 4 मई 1940 को कांग्रेस नेताओं से कहा – मैं इन्तजार करने के पक्ष में हूँ। भारत की स्वाधीनता एक जीवित वस्तु है। उसके एवज में हमें कोई नकली चीज नहीं चाहिये। सारा संसार आज नये जन्म के दर्दों के बीच से गुजर रहा है। अस्थायी लाभ के लिये यदि काँग्रेस ब्रिटिश सरकार से की समझौता करेगी तो उसका परिणाम गर्भपात के समान होगा।

इसके विपरीत 21 जून 1940 को वर्धा में हुई कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने स्वीकार किया – वर्किंग कमेटी युद्ध प्रयत्नों में सहयोग देने के सम्बंध में गाँधी जी के दृष्टिकोण से सहमत नहीं हो सकी। पं. नेहरू ने इस पर टिप्पणी करते हुए कहा – यह पहला अवसर है जब गाँधीजी ने एक रास्ता अख्तियार किया और कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने दूसरा। गाँधीजी ने वर्किंग कमेटी को उसकी आत्मनिर्भरता की भावना पर बधाई दी और कहा – जिन लोगों को अनेक वर्षों से अपने साथ ले चलने में गर्व का अनुभव करता था अब उनके ऊपर मेरे शब्दों का प्रभाव नहीं रहा।

प्रसिद्ध अमेरिका पत्रकार लुई फिशर ने उस समय गाँधीजी की स्थिति का वर्णन करते हुए लिखा – करोड़ों आदमी उनकी पूजा करते थे, अगणित व्यक्ति उनकी चरण-धूलि को अपने मस्तक पर लगाकर अपने को धन्य समझते थे। लोग उनके प्रति श्रद्धा प्रकट करते थे, किन्तु उनकी शिक्षाओं से मुंह मोड़ते थे। वे उनकी देह को पावन समझते थे किन्तु उनके व्यक्तित्व को खण्डित करते थे। लोग उनके वाह्य-आवरण पर श्रद्धा के फूल चढ़ाते थे किन्तु उनकी शिक्षाओं को पैरों से कुचलते थे। उनके सिद्धांतों को ठुकरा कर लोग उनकी जय बोलते थे।

15 अगस्त 1947 को अपने ऐतिहासिक भाषण में प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने कहा – हमारे महान नेता ने जिन ऊंचे सिद्धांतों की हमें शिक्षा दी है, हमें सदा उन पर कायम रहना है। हमारे सौभाग्य से गाँधीजी हमारे बीच में हैं। अपनी उत्तरोत्तर प्रगति के लिये हमें उनसे सदा प्रोत्साहन और मार्गदर्शन मिलेगा। लेकिन इस वाग्जाल को चीरते हुए कांग्रेस वर्किंग कमेटी में अध्यक्ष आचार्य कृपलानी ने जो प्रश्न खड़ा किया – निस्संदेह गाँधीजी सदा हमारे साथ हैं, किन्तु प्रश्न यह है कि क्या हम भी गाँधी जी के साथ हैं।

वस्तुतः यह ऐसा यक्षप्रश्न है जो आज भी अनुत्तरित है। इस एक प्रश्न में वे तमाम सवाल शामिल हैं जो तब भी और आज भी भारतीय जनमानस को मथ रहे हैं। यद्यपि इन प्रश्नों का उत्तर स्वयं महात्मा गाँधी के कथ्य और लेखन में मिलता है किन्तु उनके बाद उनके विचारों को  समाजवादी-सेकुलर खांचे में कसने का प्रयास किया गया। भारतीयता के साफ-सुथरे आइने में गाँधी को देखने बजाय औपनिवेशिकता के बौद्धिक बोझ के प्रिज्म से देखने पर विपथित गाँधी का एक ऐसा विद्रूप उपस्थित हुआ जो गाँधी की दूसरी ही छवि निर्मित करता है। संभवतः यही सत्ता को अभीष्ठ भी था।

भारतीयता के आइने में गाँधी सहजता से समझ आते हैं। वे भक्तिकालीन भारतीय मानस का एक छोर हैं। भक्तिकालीन भारत की अपनी खूबियां और खामियां हैं। वह खूबियां और खामियां गाँधी में भी आसानी से देखी जा सकती है। यहां पर इस बात को भी समझने की जरूरत है कि भक्तिकाल से इस देश के इतिहास-भूगोल का प्रारंभ नहीं होता। यह एक पड़ाव भर है। एक ऐसा पड़ाव जिसमें राजनीति के भार को संस्कृति ढो रही थी। यह संकुचन  का काल है,  पराभव का काल है। स्खलन के इस कालखंड ने तमाम नकारात्मकताओं के बावजूद कुछ मूल्य गढ़े,  स्थापित किए, गाँधी में वह सारे मूल्य अपनी उत्कृष्टता के साथ विद्यमान हैं।

गाँधी को इस भक्ति परम्परा के परिप्रेक्ष्य में रखकर ही ठीक ढंग से समझा जा सकता है। उन्हें एक व्यक्ति के बजाय, परम्परा के एक सिरे के रूप में समझने पर अधिक सार्थक परिणाम निकल सकते है। फिलहाल स्थिति इसके उलट है। उनके मूल्यांकन की प्रक्रिया से उनका देश-काल गायब कर दिया गया है। संदर्भ और प्रसंग से रहित विश्लेषण भ्रम ही पैदा कर सकते हैं। वही हो भी रहा है।
गाँधी-चितन के साथ दूसरी बड़ी समस्या है कि उनके व्यक्तित्व से सुविधाजनक सत्य के चुनाव का चलन चल पड़ा है। उन्हें समग्रता में देखने के धैर्य, श्रम और साहस का  नितांत अभाव दिखता है। इसलिए सभी अपनी हिस्से के गाँधी का चुनाव कर लेते हैं। और यह सुविधाजनक चुनाव उनके बारे में अनेक तरह के भ्रम खड़े कर देता है।
गाँधी चिंतन के साथ जुड़ी हुई तीसरी समस्या यह है कि उनका समर्थन और विरोध अतिवादिता का शिकार है। गाँधी के व्यक्तित्व की बुनावट से परिचित लोग इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि गाँधी जीवनभर प्रयोगशील रहे। प्रयोगों के कारण उनमें गतिशीलता है। जिसे वह सत्य के साथ प्रयोग कहते थे, वस्तुतः वे स्वयं अपने साथ उन्हें आजमा रहे थे। सत्य की कसौटी पर खुद को आंक रहे थे। और इस कसौटी पर उन्होंने जितनी गहरी और चमकदार रेखा उन्होंने उकेरी, स्वतंत्र भारत में कम ही लोग उसके साथ अपनी तुलना का साहस करेंगे।

इस परिदृश्य में गाँधी चिंतन को समझते समय, उनकी प्रासंगिकता की खोज-बीन करते समय यह आवश्यक हो जाता है कि उनका विश्लेषण एक स्थिर तत्व के रूप में न किया जाए। वह प्रयोगशील थे, इसलिए उनके संदर्भों में यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है कि यदि गाँधी आज जीवित होते तो समसामयिक समस्याओं का सामना कैसे करते? यदि आज की तरह युवा और शिक्षित भारत उन्हें मिला होता तो इस बात की बड़ी संभावना है कि स्वतंत्रता-संग्राम के लिए उनकी रणनीतियां भी अलग ढंग की होतीं! लेकिन यह फिर भी निश्चित है कि उनकी रणनीत भारतीय मूल्यों से उतनी ही गुंथी होती, यात्रा का मार्ग भले ही बदला होता, प्रस्थान बिन्दु अपरिवर्तित रहते।

अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का इतिहास स्वतंत्र भारत की यात्रा के साथ-साथ चलता है। वह जिस विचार को लेकर निरंतर प्रवाहमान है, वह उसी शाश्वत भारतीयता पर टिका है जिसके आधुनिक भाष्यकारों में महात्मा गाँधी एक प्रमुख हस्ताक्षर हैं। इसलिये दो एतिहासिक अवसरों पर यह विचार प्रवाह उपरोक्त कसौटी पर एक चमकीली रेखा खींचने में सफल रहता है। यह अवसर हैं आपातकाल के विरुद्ध संघर्ष और रामजन्मभूमि आन्दोलन। दोनों बार गाँधी के नाम पर सत्ता भोगने वाले लोग हिंसा और अनैतिकता के पक्ष में खड़े थे, भारतीय मानस के विरुद्ध थे, हमलावर थे। दोनों ही अवसरों पर अभाविप और उससे वैचारिक साम्य रखने वाले संगठन अहिंसा और सत्याग्रह का प्रयोग कर नकारात्मक शक्तियों का प्रतिकार करने में सफल हुए हैं।

 

 

 

 

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