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Home लेख

 वुहान वायरस और भारतीय ‘सहकारी संघवाद’

अजीत कुमार सिंह by प्रशांत शाही
April 7, 2020
in लेख
 वुहान वायरस और भारतीय ‘सहकारी संघवाद’

Covid19

दुनिया में चीनी कोरोना वायरस कहर बरपा रहा है. उथल- पुथल का माहौल पूरी दुनिया में व्याप्त है. सरकारों के हाथ-पाँव फूले हुए हैं. शासन- प्रशासन केवल रक्षात्मक रवैय्या अपनाने को मजबूर हैं, क्यूंकि अबतक न तो कोई एंटीडोट बन सका है, न ही शर्तिया तौर पर बना लेने का कोई दावा ही नज़र आता है. तमाम किंकर्तव्यविमूढ़ताओं के बीच सिर्फ दो ही बातों पर सहमति बनती दिख रही है. एक तो चीन के संदेहास्पद व्यवहार और रवैय्ये को लेकर. और दूसरा ये कि जबतक कोरोना को हराने का कोई नुस्खा/ एंटीडोट नहीं मिल जाता तबतक हमें सुरक्षा के कदम ही उठाने होंगे. जब दुनिया के तमाम विकसित देशों में हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं, तब भारत आने वाली प्रलयंकारी आशंका को ध्यान में रखते हुए लगातार सुरक्षा दिशा में कदम उठा रहा है. एक ओर वैश्विक स्तर पर जहां हमारी प्रशंसा हो रही है, वहीं देश के भीतर कुछ चीनपरस्त लोग लगातार सरकार का मनोबल तोड़ने का काम कर रहे हैं. इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता की देश की अर्थव्यवस्था पर मंदी का प्रभाव है. पर ये बात भी उतनी ही सच है कि इस दौर में सरकार का ध्यान जानें बचाने पर होना चाहिए. इस लेख में हम इसी बात की पड़ताल करने की कोशिश करेंगे कि भारत सरकार अपनी इस पहल में कितनी सफल हो पायी है.

सबसे पहले ऐसी विवेचनाओं में हमें ये समझना होता है कि समस्या के अलग अलग आयाम क्या क्या हैं. जैसे, यदि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखें तो हमें प्रथम दृष्टया ‘वुहान वायरस’ की समस्या स्वास्थ्य से जुडी हुई एक समस्या के रूप में नज़र आयेगी. लेकिन जैसे- जैसे समस्या की तह में जायेंगे वैसे वैसे परत दर परत समस्याओं का अम्बार खड़ा दिखाई देगा, मसलन समाज के अलग अलग वर्ग तक स्वास्थ्य सुविधाओं को पहुँचाना, गरीब और शोषित तबके को विभिन्न सुविधाओं का लाभ पहुँचाना, अर्थव्यवस्था की स्थिति पर नज़र रखना और वस्तुस्थिति में सुधार का प्रयास करना तथा साथ मनोवैज्ञानिक तौर पर लोगों में शासन- प्रशासन के प्रति भरोसे को कायम रखना. ये काम केंद्र और राज्य सरकारों के पारस्परिक सहयोग से ही संभव है. वस्तुतः हम समस्या के कुछ मोर्चों और उनपर सरकार द्वारा उठाये क़दमों की यहाँ चर्चा करेंगे.

22 मार्च के ‘जनता कर्फ्यू’ के पहले परिवहन के विभिन्न तरीकों पर यथासंभव रोक लगाकर लोगों के एक जगह से दूसरी जगह जाने क्रम को धीमा करने की शुरुआत सरकार ने कर दी थी. जनता कर्फ्यू की सफलता और पूरे देश में लोगों के उत्साहपूर्ण भागीदारी ने सरकार को यह शक्ति दी, कि सरकार एक देशव्यापी लॉक डाउन घोषित कर सके. लेकिन देशव्यापी लॉक डाउन को सफल बनाना केवल केंद्र सरकार के अकेले के बूते की बात नहीं थी. विभिन्न राज्य सरकारों का सहयोग ही इस लॉक डाउन को सफल बना सकता था. दिल्ली, मुंबई और देश के कई अन्य शहरों से अपने घरों को लौटने के लिए निकले मजदूर तबके के लोग, अपने घरों को पहुँच सकें, या वे जहाँ भी है वहां उन्हें रहने, खाने को पर्याप्त संसाधन सुनिश्चित किया जाना राज्य सरकारों की जिम्मेदारी की बात है. राजनीति विज्ञान समझने वाले लोग ये समझते होंगे कि ऐसे ही मौकों पर सहयोगात्मक/ सहकारी संघवाद की असली परख और परीक्षा होती है. केंद्र और राज्य सरकारों के ताने- बाने में हाशिये पर खड़े आदमी के हिस्से में क्या आता है, यह सहयोगात्मक संघवाद की गहराई से तय हो जाता है. ऐसे में हम ये कह सकते हैं कि ‘वुहान वायरस’ के रूप में भारतीय परिसंघ के भीतर सहयोगात्मक संघवाद के भी परीक्षा की घड़ी है. एक ओर विभिन्न राज्य सरकारें संकट की इस घडी में अपनी अपनी नीतियाँ बनाने को स्वायत्त हैं तो दूसरी ओर एक दूसरे से सहयोग करती हुई विभिन्न सरकारें प्रतियोगी संघवाद से सहयोगी संघवाद की ओर बढती हुई दिखाई देती हैं. इस क्रम में चाहे केंद्र सरकार द्वारा घोषित आयुष्मान भारत परियोजना की आज के कठिन समय में बेहद उपयोगी साबित होने की बात हो, विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा आयुष्मान भारत कोष के इस्तेमाल से वुहान वायरस से लड़ने की बात हो, या उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार द्वारा विभिन्न राज्यों से पैदल चलकर आने को मजबूर मेहनतकश लोगों को परिवहन के साधन उपलब्ध कराने के स्वागतयोग्य कदम की बात हो. हर एक ऐसा कदम सहयोगी संघवाद की प्रवृति को बढ़ावा देता है. लेकिन दूसरी तरफ पश्चिम बंगाल की तृणमूल कांग्रेस सरकार भी है, जो अब भी आरोप प्रत्यारोप और कुत्सित राजनीति की मंशा से बहार नहीं निकल सकी है. पिछले दिनों जब मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने केंद्र सरकार पर आरोप लगाया की पश्चिम बंगाल को पर्याप्त मात्रा में टेस्टिंग किट नहीं दी गयी हैं, तो केंद्र की तरफ से आधिकारिक जवाब ने न सिर्फ ममता बनर्जी सरकार के झूठ का पर्दाफाश कर दिया बल्कि इस बात की भी कलई खुल गयी कि पश्चिम बंगाल सरकार टेस्टिंग किट के इस्तेमाल को लेकर इतनी असंवेदनशील है की उसे यह भी नहीं पता कि एक टेस्टिंग किट से कितने टेस्ट किये जा सकते हैं. दरअसल, पश्चिम बंगाल को 40 टेस्टिंग किट उपलब्ध कराये गए थे, जिनसे लगभग 3000 टेस्ट आसानी से किये जा सकते हैं. लेकिन एक तरफ तो जहां पश्चिम बंगाल 10 प्रतिशत टेस्ट भी समय रहते नहीं कर सका, वहीं दूसरी तरफ ममता बनर्जी ने केंद्र पर ये आरोप लगा दिया की उन्हें पर्याप्त टेस्टिंग किट नहीं दिए गए. इसी तरह का एक दूसरा आरोप भी ममता बनर्जी ने लगाया, कि केंद्र सरकार उन्हें टेस्टिंग सेंटर उपलब्ध नहीं करवा रही. ये आरोप भी केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन के लिखित जवाब ने गलत साबित कर दिया. 25 मार्च को लिखे गए पत्र में डॉ हर्षवर्धन ने पश्चिम बंगाल में बनाये गए टेस्टिंग सेंटरों की एक सूची जारी की, साथ ही अगले दिन ही आईसीएमआर ने यह भी बताया की चार अन्य निजी अस्पतालों को भी टेस्टिंग के लिए सूचीबद्ध कर लिया गया है. दरअसल ऐसे समय में जब देश को एक मज़बूत संघ के रूप में आगे बढ़ना चाहिए तब ममता बनर्जी अपने ही पुराने बयानों के बोझ तले दबी जा रही हैं. उन्होंने कुछ दिन पहले ये बयां दिया था कि केंद्र सरकार ‘दिल्ली में हुई हिंसा’ से ध्यान हटाने के लिए कोरोना वायरस के मुद्दे को उछाल रही है. अब यही बयान उनके गले की हड्डी बन गया है. आज जब केंद्र सरकार मजबूती से वुहान वायरस से लड़ रही है, और विभिन्न राज्य सरकारें तथा अंतर्राष्ट्रीय संगठन भारत सरकार की भूरी- भूरी प्रशंसा कर रहे हैं, तो ममता बनर्जी आरोप- प्रत्यारोप की राजनीति करने पर उतारू हैं. ऐसे में देश भर की राज्य सरकारों के सामने उत्तर प्रदेश की योगी सरकार एक नजीर बनकर सामने आई है. लोगों को घरों से न निकलना पड़े, गरीब भूखा न रहे, मजबूर लोग सुरक्षित अपने गंतव्य तक पहुंचें इसके लिए योगी जी ने आगे बढ़कर कम्युनिटी किचन, परिवहन सेवाएं, घरों तक सामान पहुंचाने की व्यवस्था करने जैसी कई आधारभूत कदम उठाएं हैं जिनसे लॉक डाउन को सफल बनाना आसान हो जायेगा. आज देश की सभी राज्यों से यही अपेक्षा है लॉक डाउन को किसी भी कीमत पर सफल बनाने के लिए कदम उठाये जायें.

सहयोगी संघवाद का एक दूसरा पहलू अर्थव्यवस्था के स्तर पर दिखाई देता है. यह तय बात है की दुनिया भर की अर्थव्यवस्था मंदी की ओर बढ़ चुकी है. भारतीय परिसंघ का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है- रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया. पूरे देश की मौद्रिक नीति के निर्धारण में अहम् भूमिका RBI की होती है. आज के संकटकाल में जब बाजार में मुद्रा का आदान- प्रदान कम हो गया है, बाज़ार मंदी की लगभग चपेट में है, तो किसी भी देश के केन्द्रीय बैंक की जिम्मेदारी यही बनती है कि बाज़ार में मुद्रा की मात्रा को बढ़ाया जाये. इस दिशा में कदम बढाते हुए RBI ने बैंकों को निर्देश दिए हैं की बेहद कम दरों पर क़र्ज़ बांटे जायें. CRR को कम करके, तथा रेपो रेट में 75 बेसिस पॉइंट की कमी करके RBI ने बैंकों को वह सहूलियत प्रदान की है की बैंक आसानी से कम दरों पर लोन बाँट सकें. एक ओर जब वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण गरीबों और शोषितों के हक में 1.7 लाख करोड़ की राशि की घोषणा कर रही थीं, तो दूसरी ओर RBI के गवर्नर शक्तिकांत दास मौद्रिक नीति के रास्ते से बैंकों को क़र्ज़ देने के लिए आसान रास्ते मुहैय्या करा रहे थे. जिससे समाज का मध्यम वर्ग भी अर्थव्यवस्था में बना रहे. मौद्रिक और राजकोषीय नीतियों का ये समन्वय अपने आप में दर्शाता है कि कैसे शासन और प्रशासन दोनों मिलकर समाज के हर हिस्से के हित का ध्यान रख रहे हैं. संकट की घडी में भी जब दुनियाभर की सरकारें असमंजस की स्थिति में हैं तब हमारे देश की सरकार द्वारा उठाये जाने वाले ये सकारात्मक कदम आम जनता को आश्वस्त करते हैं कि उन्होंने एक काबिल और जिम्मेदार सरकार चुनी है. हम जब सहयोगी संघवाद की बात कर रहे हैं तो हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि सहयोगी संघवाद का आर्थिक पक्ष अर्थव्यवस्था की दृष्टि से बनाई गयी योजनाओं के ज़मीन पर हो रहे क्रियान्वयन की सफलता या असफलता से तय होता है. पिछले वर्षों में देश ने केंद्र सरकार की मुद्रा योजना के माध्यम से लाखों लोगों को स्वरोजगार की ओर बढ़ते देखा है. वर्तमान संकटग्रस्त परिदृश्य में जिस तरह आयुष्मान भारत योजना संजीवनी साबित हो रही है, उसी तरह मुद्रा लोन भी संकटमोचक की तरह इस्तेमाल किये जा सकते हैं. 26 तारीख के वित्त मंत्री के अभिभाषण में यह बात सामने आई कि स्वयं सहायता समूहों को 20 लाख रुपये तक के लोन दिए जा सकेंगे. साथ ही मुद्रा लोन के दायरे को भी बात वित्त मंत्री जी ने कही. निश्चय ही यह एक बेहद स्वागतयोग्य कदम है. जो भारतीय बाज़ार में तेज़ी को बनाये रखने में कारगर साबित होगा.

अंत में यह समझना भी ज़रूरी है की सहयोगी संघवाद की अनुपस्थिति विषम परिस्थिति में कितनी घातक हो सकती है. पश्चिम बंगाल का ही यदि उदाहरण लिया जाये तो हम पाते है कि राजनीतिक उठापटक को तरजीह देने की अंधी दौड़ की बजाय यदि ममता बनर्जी ने प्रधान मंत्री किसान सम्मान निधि योजना और आयुष्मान भारत योजना को समय रहते पश्चिम बंगाल में लागू कर दिया होता तो संकट की घड़ी में पश्चिम बंगाल धन की कमी से जूझ नहीं रहा होता. दूसरी तरफ देश का जनसँख्या के हिसाब से सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश सहयोगी संघवाद की अलग नजीर पेश कर रहा है. सिर्फ वुहान वायरस के मामले में ही नहीं, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय निवेश राज्य में लाने की दिशा में भी प्रशासनीय कदम उठाये हैं. कुल मिलाकर बुरे समय ने देश को यह सीख तो दे ही दी है की सहयोगात्मक संघवाद राष्ट्र के लिए एक अवश्यम्भावी अवयव है.

(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली में शोध छात्र हैं एवं ये उनके निजी विचार हैं।)

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