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Home लेख

विराट व्यक्तित्व के धनी – डा. भीमराव आंबेडकर

अजीत कुमार सिंह by गोपाल शर्मा
April 14, 2020
in लेख
विराट व्यक्तित्व के धनी – डा. भीमराव आंबेडकर

भीमराव राम जी आंबेडकर केवल भारतीय संविधान के निर्माता एवं करोड़ों शोषित, पीड़ित भारतियों के मसीहा ही नहीं थे बल्कि वे समाज सुधारक, श्रेष्ठ विचारक, चिंतक, अर्थशास्त्री, पत्रकार, धर्म के ज्ञाता, कानून एवं नीति निर्माता एवं महान राष्ट्र भक्त थे। उन्होंने समाज और राष्ट्र जीवन के हर पहलू पर अपनी अमिट छाप छोड़ी। सामाजिक समता और बंधुता के आधार पर नूतन भारत के निर्माण की नींव उन्होंने रखी। उनका व्यक्तित्व एक विराट सागर और कृतित्व हिमालय जैसा था।

14 अप्रैल 1891 में भीमराव आंबेडकर का जन्म एक तथाकथित अस्पृश्य जाति में हुआ। उनके पिता श्री रामजी सकपाल सेना में सुबेदार थे। 14 भाई – बहनों में सबसे छोटे भीमराव का जीवन कष्ट एवं संघर्ष में रहा। बालक भीम का डॉ. आंबेडकर होने से लेकर बाबारूपी राष्ट्ररक्षक कवच में ढलना ऐसी घटना है जो सबके जीवन में नहीं घटती है। यदि घटती है तो उस यंत्रणा को झेलना सबके वश की बात नहीं है। अन्य छात्रों – शिक्षकों के जूतों के पास बैठकर पढ़ने की शर्त पर विद्यालय में दाखिला मिलता है। मां भीमाबाई सकपाल भीमराव के पढ़ने की इच्छा एवं समाज की परिस्थिति को देखकर कहती है – बेटा तुम्हें समाज में बहुत अपमान सहना पड़ेगा, बड़ी घृणा झेलनी पड़ेगी। इन सबकी परवाह न करना। किसी से उलझना नहीं। तुम्हें पढ़ना है। बिना पढ़े कोई बड़ा आदमी नहीं बन  सकता है। जब तुम बड़े आदमी बन जाओ, तब समाज की उस गंदी सोच को बदल डालना, यही मेरी इच्छा है। मां का सपना भीम के मन का संकल्प बन गया।

भीमराव बड़े हुए तो बाधाएं पार करने के कारण। बाबासाहब का व्यक्तित्व विराट होने के कारण कदम – कदम पर अपमान का विष पीने के बाद भी उनके मन में घृणा नहीं उपजती है। ऐसा नहीं है कि भीमराव को क्रोध नहीं आता, वे परिस्थितियों पर झुंझलाते हैं, मुट्ठियां भींचते हैं, अकेले में रोते हैं, जाति की छोटी – छोटी जंजीरों जो गलत करता है उसे खुलकर फटकारते भी हैं।

1907 में भीमराव आंबेडकर मैट्रीक करने वाले महार जाति के पहले छात्र बने। उनकी इस सफलता में एक ब्राह्मण अध्यापक, जिनका उपनाम आंबेडकर था, बहुत सहयोग मिला। उनके एक और अध्यापक कृष्णा जी केलुस्कर ने भीमराव को बड़ौदा के राजा के पास ले गए और उनको पच्चीस रूपये छात्रवृति मिलने लगी। मुंबई विश्वविद्यालय से उन्होंने अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान लेकर 1912 में बीए पास किये। बड़ौदा के राजा ने छात्रवृति बढ़ाकर 75 रूपये कर दिये। बड़ौदा राज्य में नौकरी मिली लेकिन सामाजिक भेदभाव के कारण नौकरी छोड़ दी। अध्यापक केलुस्कर के प्रयास से साढ़े 92 पाउंड प्रतिमाह की छात्रवृत्ति पक्की हुई और भीमराव उच्च शिक्षा के लिए कोलम्बिया गया।

पढ़ाई पूरी करने के बाद वे सामाजिक जीवन में आए । उनके मन में समाज का काम करने का भाव था। जीवन संघर्षमय था लेकिन कोई शत्रु नहीं था। वे संघर्ष करते हैं लेकिन किसी को शत्रु नहीं मानते हैं । उन्होंने वंचित लोगों को सच का मंच दिया, मुक लोगों को वाणी दी, जैसा कि ‘मूकनायक’ नाम के उनके समाचार पत्र से हम जानते हैं। एक अस्तित्व दिया, आधार दिया, उनमें आत्मविश्वास पैदा किया। उन्होंने अधिकारों के लिए लोगों को संगठित किया, अनुशासित किया, संघर्ष के लिए तैयार किया। लोगों को स्वाभिमानी बनाया, शिक्षित होने का आह्वान किया, अपने अधिकारों के लिए लोगों को एकत्रित किया।

डॉ. आंबेडकर के जीवन में कई प्रकार की विभिन्नताएं हैं। डॉ. आंबेडकर कहते हैं –“ गीता मेरे सत्याग्रह करने की प्रेरणा स्त्रोत हैं। गीता मुझे सत्याग्रह करने के लिए आह्वान करती है।“ अपने अखबार के ऊपर जय भवानी लिखते हैं। अपने आपको हिन्दू कहलाने में गौरवान्वित होते हैं। सैंकडों लोगों को यज्ञोपवित करवाते हैं।

वे परिवर्तन का आधार धर्म मानते हैं, समाज सुधार का आधार भी धर्म है। धर्म के प्रति नवयुवकों को उदासीन देखकर उनके मन को दुख होता है। वे कहते हैं – धर्म आस्था देता है, धर्म विश्वास देता है। धर्म समाज में मान्यताओं को स्थापित करता है। समाज के कल्याण की भावना धर्म के अंदर निहित है। इसलिए  वे मार्क्सवादियों के विरूद्ध है। वे कहते हैं “मार्क्सवादी धर्म को अफीम मानते हैं। ” मैं इनके मत का समर्थन नहीं करता हूं। ये मार्क्सवादी राष्ट्रविरोधी, देश के साथ गद्दारी करने वाले होते हैं। भारत विभाजन का समर्थन इन मार्क्सवादियों ने किया था।

बाबा साहब आंबेडकर ऐतिहासिक दूरदर्शिता वाले व्यक्तित्व थे। भारत के भविष्य को लेकर उनके मन में बहुत चिंता थी। इस चिंता का कारण उनकी मातृभूमि पर निष्ठा थी। संविधान सभा में दिए अपने अंतिम भाषण में कहा – 26 जनवरी 1950 को भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र हो जायेगा। उसकी स्वतंत्रता का क्या होगा ?  वह अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करेगा कि उसे पुनः खो देगा ? इस संबंध में मेरे मन में पहला विचार आता है। ऐसा नहीं है कि भारत कभी स्वतंत्र राष्ट्र नहीं रहा है। मुद्दा यह है कि पहले जो स्वतंत्रता थी, उसे उसने गंवाया। क्या वह उसे फिर से गंवा देगें ? कारण वह (उसने) अपनी जनता में से कुछ की अप्रमाणिकता व विश्वासघात के कारण स्वतंत्रता गंवाई थी। मोहम्मद बिन कासिम ने सिंध पर आक्रमण किया तब राजा दाहिर के  सेनापति ने कासिम के दलाल से रिश्वत ली और अपने राजा की तरफ से लड़ने से इनकार कर दिया। मोहम्मद गौरी को भारत पर आक्रमण करने के लिए व पृथ्वीराज से लड़ने का निमंत्रण देने वाला सोलंकी राजा जयचंद था। जब शिवाजी हिन्दुओं की मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहे थे, उस समय बाकी मराठा सरदार और राजपूत मुगल बादशाह की तरफ से लड़ रहे थे। जब ब्रिटिशों ने सिख राजकर्ताओं को नष्ट करने का प्रयास किया, तब सेनापति गुलाब सिंह चुप बैठा रहा। यही विचार मुझे व्यग्र करता है।

डॉ. अपनी पुस्तक पाकिस्तान और द पार्टीशन ऑफ इंडिया में लिखते हैं कि – मुसलमानों पर लोकतंत्र का प्रभाव नही है। मुसलमानों की मुख्य रूचि मजहब में है, उनकी राजनीति मूल रूप से मौलवियों पर निर्भर है। उनकी किताब कहती – किसी मुस्लिम के लिए इस्लाम एक विश्व मजहब है, जो सभी लोगों के लिए  हर समय के लिए और सभी स्थितियों के लिए उपयुक्त है। इस्लाम का भाईचारा मनुष्यता का सार्वभौमिक भाईचारा नहीं है। यह केवल मुसलमानों का मुसलमानों से भाईचारा है। गैर मुसलमानों के लिए शत्रुता के अलावा कुछ भी नहीं है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में बाबा साहेब के मन में बहुत जिज्ञासा थी। वे संघ शिविर में गये थे और अस्पृश्यता का नामोनिशान न देखकर प्रसन्न हुए थे। स्वयंसेवकों के अनुशासन से अभिभूत थे। उन्होंने प्रश्न किया कि इनमें अस्पृश्य समाज के कितने स्वयंसेवक है? उन्हें उत्तर दिया गया कि इनमें न तो कोई सवर्ण है और न कोई अस्पृश्य। जो है वे सिर्फ हिन्दू है। बाबा साहेब के लिए यह अनुभव अनूठा था।

(लेखक पूर्व में अभाविप के क्षेत्रीय संगठन मंत्री (बिहार-झारखंड, बंगाल) रह चुके हैं, वर्तमान में रा.स्व.संघ के धनबाद विभाग प्रचारक हैं एवं झारखंड प्रांत के प्रांत महाविद्यालय कार्य प्रमुख के दायित्व का निर्वहन कर हैं।)

Tags: abvpambedkar jayantibaba sahab bhim rao ambedkarcongressrssअंबेडकरबाबा साहब भीमराव रामजी आंबेडकरभीमराव अंबेडकर
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