परमवीर चक्र – एक ऐसा अलंकरण जिसका नाम सुनकर ही रगों में जोश और बलिदान की लहर दौड़ जाती है। यह अलंकरण दुश्मनों के समक्ष उच्च कोटि की शूरवीरता एवं त्याग के लिए हमारे रणबांकुरों को दिये जाते हैं। अब तक अधिकांश स्थितियों में यह सम्मान मरणोपरांत दिया गया है बहुत ही कम ऐसे अवसर आए हैं जिनमें यह सम्मान जीवित रहते हुए किसी नायक ने ग्रहण किया है। इस पुरस्कार की स्थापना 26 जनवरी 1950 को की गई थी जब भारत गणराज्य घोषित हुआ था।
- मेजर सोमनाथ शर्मा- 1947
31 जनवरी 1923 को जम्मू में जन्मे मेजर सोमनाथ शर्मा ने 22 फरवरी 1942 को भारतीय सेना में चौथी कुमायूं रेजीमेंट में बतौर कमीशंड अधिकारी प्रवेश लिया। मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित मेजर सोमनाथ शर्मा का फौजी कार्यकाल शुरू ही द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान हुआ, जब उन्हें मलाया के पास के रण में भेजा गया। 3 नवंबर 1947 मेजर सोमनाथ शर्मा की टुकड़ी को कश्मीर घाटी के बडगाम मोर्चे पर जाने का आदेश दिया गया। जब दुश्मन के 500 सैनिकों ने तीन तरफ से भारतीय सेना को घेरकर हमला शुरू कर दिया, तब मेजर शर्मा ने दुश्मनों का बहादुरी से मुकाबला किया। मेजर की सेना के कई सैनिक वीरगति को प्राप्त हो चुके थे और काफी कम संख्या में सैनिक बचे थे। मेजर सोमनाथ का बायां हाथ भी चोटिल था, लेकिन उन्होंने हार नहीं माने। वे मैग्जीन में गोलियां भरकर सैनिकों को देते गए, लेकिन दुर्भाग्य से वे दुश्मन के एक मोर्टार का निशाना बन गए और वीरगति को प्राप्त हुए। अंतिम समय में भी वे अपने सैनिकों का सामना करने के लिए हौसला बढ़ाते रहे। मेजर सोमनाथ परमवीर चक्र प्राप्त करने वाले पहले भारतीय थे।
- नायक जदुनाथसिंह- 1948
21 नवंबर 1916 को उत्तरप्रदेश के शाहजहांपुर जिले के खजूरी गांव में जन्मे नायक जदुनाथसिंह 1941 में भारतीय सेना की राजपूत रेजीमेंट में भर्ती हुए। जनवरी 1948 में कबाइली आक्रमण के समय उन्होंने नौशेरा इलाके में अपनी टुकड़ी का नेतृत्व किया। एक-एक कर जदुनाथ के सिपाही कम होते गए, लेकिन उनके हौसले बुलंद थे। जब सभी सिपाही घायल हो गए तो जदुनाथ ने अकेले ही स्टेनगन से गोलियों की बौछार कर दुश्मनों का सामना किया। उन्होंने दुश्मन को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। जब तक पैरा राजपूत की 3 अन्य टुकड़ियां मोर्चे पर पहुंचतीं, जदुनाथ लड़ाई में डटे रहे। लेकिन, अचानक कहीं से एक गोली आकर उनके सिर में लगी और वे वीरगति को प्राप्त हुए। उनके अद्भुत शौर्य के लिए उन्हें मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया।
- सेकंड लेफ्टिनेंट रामा राघोबा राणे -1948
26 जून 1918 कर्नाटक के धारवाड़ स्थित हवेली गांव में जन्मे रामा राघोबा राणे को जीवित रहते हुए सेना के सर्वोच्च सम्मान परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। जुलाई 1940 को बांबे इंजीनियर में आने के बाद उन्हें नायक के रूप में पदोन्नति मिली और वे 26 इंफेंट्री डिवीजन की 28 फील्ड कंपनी में आए। रामा ने अपनी सूझबूझ, बहादुरी, नेतृत्व क्षमता से सबको प्रभावित किया और उन्हें सेकंड लेफ्टिनेंट बनाकर जम्मू-कश्मीर में तैनात किया गया। कश्मीर में कबाइली हमले के समय नौशेरा की फतह के बाद भारतीय सेना द्वारा दुश्मन के खिलाफ बनाई गई नीति के तहत बारवाली रिज, चिंगास और राजौरी पर कब्जा करने के लिए नौशेरा-राजौरी मार्ग की भौगोलिक रुकावटों और दुश्मनों की सुरंगों को साफ करना जरूरी था। घुमावदार रास्तों, सुरंगों और कई रुकावटों वाले इस मोर्चे पर रामा राघोबा व उनकी सेना द्वारा 8 अप्रैल 1948 को बहादुरी और सूझबूझ के साथ काम किया गया और 10 अप्रैल तक वे लगातार संघर्ष में डटे रहे। 11 अप्रैल 1948 तक उन्होंने चिंगास का रास्ता साफ कर दिया और इस दिन भी रात 11 बजे तक आगे के रास्ते की सभी बाधाएं हटा दीं। भारत की जीत के लिए सेकंड लेफ्टिनेंट रामा राघोबा का यह योगदान बेहद महत्वपूर्ण था। सौभाग्य की बात तो यह है कि यह सम्मान उन्होंने स्वयं प्राप्त किया।
- कंपनी हवलदार मेजर पीरूसिंह शेखावत 1948
सैन्य पृष्ठभूमि वाले कंपनी हवलदार मेजर पीरूसिंह शेखावत का जन्म 20 मई 1918 को राजस्थान के झुंझुनू जिले के रामपुरा बेरी गांव में हुआ था। 1936 में वे ब्रिटिश भारतीय सेना में भर्ती हुए। उनके पिता एवं दादा भी सेना में थे। प्रवेश किया और वे राजपुताना राइफल्स की डी कंपनी में में शामिल हुए। मेजर पीरूसिंह शेखावत को मरणोपरांत परमवीर चक्र सम्मान प्रदान किया गया। 1948 की गर्मियों में जब पाक सेना और कबाइलियों ने मिलकर जम्मू-कश्मीर पर आक्रमण कर किशनगंगा नदी पर बने अग्रिम मोर्चे छोड़ने पर मजबूर किया तो भारतीय सेना ने टीथवाल पहाड़ी पर मोर्चा संभाला। दुश्मन ऊंचाई पर अपनी जगह जमा बैठा था। वहां से दुश्मन को खदेड़ने का जिम्मा सौंपा गया राजपूताना राइफल्स की डी कंपनी को। इस कंपनी की अगुवाई पीरूसिंह शेखावत कर रहे थे। भारतीय सैनिकों को संकरे और खतरनाक मार्ग से गुजरना था, जो मात्र 1 मीटर चौड़ा था और दूसरी ओर दर्रा था। यह रास्ता दुश्मन के बंकरों की जद में था, जिसका फायदा उठाकर दुश्मन ने डी कंपनी पर भीषण हमला किया और 51 सैनिक शहीद हो गए। बहादुर पीरूसिंह अपने बचे साथियों के साथ राजा रामचंद्र की जय का उद्घोष करते हुए आगे बढ़ते गए। उनका पूरा शरीर गोलियों से घायल था, लेकिन वे दुश्मन पर गोलियां बरसाते हुए आगे बढ़ते गए। वे लगातार दुश्मनों को मिटाते हुए आगे बढ़ रहे तभी एक बम धमाके में उनका चेहरा जख्मी हो गया और दिखाई देना भी कम हो गया, लेकिन इसके बावजूद वे दुश्मन के दो बंकरों को ध्वस्त करने में सफल रहे। तीसरे बंकर पर उन्होंने बम फेंका ही था कि उनके सिर में एक गोली आकर लग गई। पीरूसिंह ने दुश्मन को तो तबाह कर दिया मगर खुद भी हमेशा के लिए मां भारती की गोद में सो गए। शेखावत को मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया।
- लांसनायक करम सिंह- 1948
15 सितंबर 1915 को पंजाब के संगरूर जिले के भालियां में जन्मे लांसनायक करमसिंह को 1948 में परमवीर चक्र (जीवित रहते हुए) से सम्मानित किया गया। दुसरे विश्वयुद्ध के दौरान करमसिंह 26 वर्ष की आयु में फौज में भर्ती हुए, जहां उन्हें सिख रेजीमेंट में नियुक्ति मिली। द्वितीय विश्वयुद्ध में अपनी वीरता के लिए करमसिंह को 1944 में सेना पदक से नवाजा गया और पदोन्नत कर उन्हें लांसनायक बना दिया गया। 1947 में भारत और पाकिस्तान के बीच हुए युद्ध में मेजर सोमनाथ शर्मा के शहीद हो जाने के बाद लांसनायक करमसिंह ने बखूबी मोर्चा संभाला और न केवल जीत हासिल की बल्कि अपनी टुकड़ी को भी सही सलामत रखा। लांसनायक करमसिंह ने अपने हाथों से परमवीर चक्र सम्मान प्राप्त किया और लंबा जीवन जीते हुए 1995 में अपने ही गांव में उन्होंने अपनी अंतिम सांस ली।
- कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया- 1961 (चीन युद्ध)
29 नवंबर 1935 पंजाब प्रांत के शकरगढ़ (अब पाकिस्तान) के जनवल गांव में कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया का जन्म हुआ। 946 में बेंगलोर के जॉर्ज रॉयल मिलिट्री कॉलेज में प्रवेश के बाद 1947 में उनका स्थानांतरण उसी कॉलेज की जालंधर शाखा में हुआ। इसके बाद 1953 में वे नेशनल डिफेंस एकेडमी पहुंचे, जहां से कॉर्पोरल रैंक के साथ वे सेना में भर्ती हुए। 3/1 गोरखा राइफल्स के कैप्टन गुरबचन को संयुक्त राष्ट्र के सैन्य प्रतिनिधि के रूप में एलिजाबेथ विला में दायित्व सौंपा गया। संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद द्वारा संयुक्त राष्ट्र की सेना कांगो के पक्ष में हस्तक्षेप करने और जरूरत पड़ने पर बल प्रयोग कर विदेशी व्यवसायियों पर अंकुश लगाने के प्रस्ताव से भड़के विदेशी व्यापारियों ने संयुक्त राष्ट्र की सेनाओं के मार्ग में बाधा डालने का प्रयास किया। विदेशी व्यापारियों की एक रणनीति के तहत 5 दिसंबर 1961 को एलिजाबेथ विला के गोल चक्कर पर रास्ता रोके तैनात दुश्मन के 100 सैनिकों का मुकाबला कैप्टन गुरबचन सिंह सालारिया ने मात्र 16 जवानों के साथ किया और 40 सैनिकों को ढेर कर धूल चटाने में वे कामयाब हो गए। आमने-सामने की इस मुठभेड़ में कैप्टन को एक के बाद एक दो गोलियां लगीं और वे वीरगति को प्राप्त हुए।
- मेजर धनसिंह थापा- 1962 (जीवित)
10 अप्रैल 1928 को हिमाचल प्रदेश के शिमला में जन्मे धनसिंह थापा 1949 में एक कमीशंड अधिकारी के रूप में सेना में शामिल हुए। जब 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण की तैयारी की, तब भारत इसके लिए बिलकुल भी तैयार नहीं था न ही राजनयिकों की मन:स्थिति वैसी थी। इन परिस्थतियों में 8 गोरखा राइफल्स की पहली बटालियन की डी कंपनी को सिरी जाप पर चौकी बनाने का आदेश दिया गया, जिसकी कमान मेजर धनसिंह थापा संभाल रहे थे। चीनी सेना का बहादुरी से मुकाबला करते हुए जब धनसिंह की टुकड़ी में सिर्फ 3 लोग बाकी रह गए थे, तो चीन ने हमला जारी रखते हुए धनसिंह थापा और अन्य दो साथियों को बंदी बना लिया और कई तरह से यातना देकर भारतीय सेना के भेद जानने का प्रयास किया। लेकिन लंबे समय तक यातना झेलने के बाद भी धनसिंह थापा अपनी देशभक्ति और बहादुरी पर कायम रहे। वे दुश्मन से छुटकारा पाकर भारत लौटे और सेना में लेफ्टिनेंट कर्नल के पद पर पदोन्नत हुए। इन्हें भी जीवित रहते हुए परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। सेना से पदमुक्त होने के बाद थापा ने लखनऊ में सहारा एयरलाइंस में निदेशक का पद संभाला।
- सूबेदार जोगिन्दरसिंह
परमवीर चक्र से सम्मानित भारतीय सैनिक सूबेदार जोगिन्दरसिंह सहनान का जन्म 26 सितंबर 1921 को पंजाब के मोगा में हुआ था। सूबेदार जोगिन्दर 1962 में भारत और चीन के बीच हुए युद्ध में शामिल हुए थे। इस युद्ध में चीन के साथ लड़ने वाले जिन चार पराक्रमी सैनिकों को परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया, उनमें जोगिन्दरसिंह भी एक थे।
20 अक्टूबर 1962 को जब चीनी सेना तवांग की ओर बढ़ रही थी, तब उनकी एक डिवीजन फौज के आगे भारत की केवल एक सिख कंपनी थी जिसकी अगुवाई सूबेदार जोगिन्दरसिंह कर रहे थे। भारत की तुलना में चीनी सेना में सैनिकों की संख्या अत्यधिक थी, लेकिन फिर भी सूबेदार सिंह और उनके साथी इस मुठभेड़ में भी बिना हिम्मत हारे पूरे जोश के साथ जूझते रहे और आगे बढ़ती चीन की फौजों को चुनौती देते रहे। आखिर सूबेदार और उनके बचे हुए सैनिक दुश्मन के कब्जे में आ गए।
भले ही वह मोर्चा भारत जीत नहीं पाया, लेकिन उस समय सूबेदार जोगिन्दर सिंह द्वारा दिखाई गई बहादुरी नमन करने लायक थी। दुश्मन की गिरफ्त में आने के बाद उनका कुछ पता नहीं चला। चीनी फौजों ने न तो उनका शव भारत को सौंपा, न ही उनकी कोई खबर दी। लेकिन भारतीय इतिहास के पन्नों में उनकी यह बहादुरी और शहादत अमर हो गई।
- मेजर शैतानसिंह भाटी- 1962
मेजर शैतानसिंह भाटी का जन्म 1 दिसंबर 1924 को जोधपुर (राजस्थान) में हुआ। उनके पिता हेमसिंह भाटी भी सेना में लेफ्टिनेंट कर्नल थे। 1962 में भारत-चीन युद्ध में मेजर शैतान सिंह का महत्वपूर्ण योगदान रहा। 13 कुमायूं सी कंपनी के मेजर शैतान सिंह रेजांग ला मोर्चे पर चीनी सेना का बहादुरी से मुकाबला करते रहे और 18 नवंबर 1962 को शहीद होने से पहले तक भी वे चुशूर सेक्टर में 17 हजार फुट की ऊंचाई पर चीन की गोला-बारूद से लैस भारी सेना का डटकर मुकाबला करते रहे।
एक स्थिति में जब सिंह दुश्मन से घिर गए, तब भी उन्होंने बहादुरी से मुकाबला करते हुए अपनी टुकड़ी को संगठित कर ठिकानों पर तैनात किया और उनका हौसला बढ़ाया, लेकिन जब दुश्मन की एक गोली उनकी बांह में लगी और उनका पैर भी जख्मी हो गया, तो उन्होंने सैनिकों को खुद को वहीं छोड़ने और दुश्मन का सामना करने का आदेश दिया। दुश्मन से लड़ते हुए एक-एक कर मेजर के जवान शहीद हो गए। बर्फ से ढंके उस क्षेत्र में मेजर सिंह का मृत शरीर 3 महीने बाद युद्धक्षेत्र में मिल पाया। मरणोपरांत शैतानसिंह को परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया।
10. कंपनी क्वार्टर मास्टर हवलदार अब्दुल हमीद- 1965
1 जुलाई 1933 में उत्तरप्रदेश के गाजीपुर स्थित धरमपुर गांव में जन्मे वीर अब्दुल हमीद कुश्ती के दांव-पेंच, लाठी चलाना और गुलेल से निशानेबाजी में माहिर थे। उन्होंने 1954 में 21 वर्ष की आयु में वे सेना में भर्ती हुए और 27 दिसंबर 1954 को ग्रेनेडियर्स इंफ्रैंट्री रेजीमेंट में शमिल हो गए। जम्मू-कश्मीर में तैनात अब्दुल हमीद द्वारा एक पाकिस्तानी आतंकवादी डाकू इनायत अली को पकड़वाने पर प्रोत्साहनस्वरूप पदोन्नति मिली और वे लांसनायक बना दिए गए। 10 सितंबर 1965 में जब पाकिस्तान द्वारा भारत पर आक्रमण किया गया, तब अमृतसर को घेरने की तैयारी में आगे बढ़ती पाकिस्तानी सेना को मजा चखाते हुए अब्दूल हमीद ने जान की परवाह न करते हुए अपनी तोपयुक्त जीप से दुश्मन के 3 टैंक ध्वस्त कर दिए। इस बात से तिलमिलाए पाक अधिकारियों ने उन्हें घेरकर हमला कर दिया और दुश्मन की गोलीबारी में वे शहीद हो गए। भारत-पाकिस्तान युद्ध में अपने असाधारण योगदान के लिए उन्हें महावीर चक्र और परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। भारतीय डाक विभाग द्वारा उन पर एक डाक टिकट भी जारी किया था।
- लेफ्टिनेंट कर्नल आर्देशीर बुरजोरजी तारापोरे- 1965
18 अगस्त 1923 को मुंबई, महाराष्ट्र में जन्मे आर्देशिर बुरजोरजी तारापोरे को आदी नाम से पुकारा जाता था। उनके पूर्वज को छत्रपति शिवाजी महाराज सेना में शीर्ष पद पर थे, जिन्हें पुरस्कार स्वरूप 100 गांव दिए गए थे जिनमें प्रमुख गांव था तारापोर। इस कारण वे तारापोरे कहलाए। पूना में मैट्रिक की पढ़ाई खत्म करने के बाद ही वे सेना में दाखिल हुए और 1 जनवरी 1942 को 7वीं हैदराबाद इंफैंट्री में उन्हें बतौर कमीशंड ऑफिसर नियुक्त किया गया। बाद में उन्हें बख्तरबंद रेजीमेंट में नियुक्ति मिली।
1965 के युद्ध में फिल्लौरा पर हमला कर चाविंडा को जीतने के लिए जब तारापोरे टुकड़ी के साथ आगे बढ़ रहे थे, तब दुश्मन ने जवाबी हमले में गोलीबारी शुरू की दी जिसका तारापोरे ने बहादुरी से मुकाबला कर एक स्क्वॉड्रन को इंफैंट्री के साथ लेकर फिल्लौरा पर हमला बोल दिया। इसमें तारापोरे घायल भी हुए, लेकिन वे मोर्चे पर डटे रहे।
16 सितंबर 1965 को जस्सोरान पर कब्जा कर 17 हॉर्स के साथ तारापोरे चाविंडा पर हमला कर डटे हुए थे। घमासान मुकाबले में 43 गाड़ियों के साथ अतिरिक्त टुकड़ी को बुलाया गया, लेकिन उसके न पहुंचने पर हमला रोक दिया गया। तारापोरे की टुकड़ी ने अपने 9 टैंक गंवाते हुए दुश्मन के 60 टैंकों को ध्वस्त कर दिया, लेकिन इस लड़ाई में तारापोरे खुद दुश्मन का निशाना बन गए और वीरगति को प्राप्त हुए। अद्भुत वीरता के लिए उन्हें परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया।
- लांसनायक अल्बर्ट एक्का- 1971
लांस नायक अल्बर्ट एक्का : मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित लांस नायक अल्बर्ट एक्का ने अभूतपूर्व वीरता का प्रदर्शन करते हुए 1971 के भारत पाकिस्तान युद्ध में दुश्मनों दांत खट्टे कर दिए। 3 दिसंबर, 1971 के दिन शत्रुओं से लोहा लेते हुए एक्का देश पर कुर्बान हो गए। इस लड़ाई में पाकिस्तान को बुरी तरह शिकस्त मिली। इसी युद्ध के बाद बांग्लादेश का उदय हुआ। एक्का का जन्म 27 दिसम्बर, 1942 को झारखंड (तब बिहार) के गुमला जिला के डुमरी ब्लाक के जरी गांव में हुआ था। अल्बर्ट की इच्छा सेना में जाने की थी, जो दिसंबर 1962 में पूरी भी हो गई। उन्होंने फौज में बिहार रेजिमेंट से अपना कार्य शुरू किया। वे हॉकी के भी अच्छे खिलाड़ी थे। अनुशासित एक्का को ट्रेनिंग के दौरान ही लांस नायक बना दिया गया था।
झारखंड के गुमला जिले के जरी गांव में 27 दिसंबर 1942 को जन्मे अल्बर्ट एक्का शुरुआत से ही फौज में जाने के इच्छुक थे। दिसंबर 1962 में उन्होंने सेना में प्रवेश कर बिहार रेजीमेंट में अपना कार्य शुरू किया। बाद में 14 गार्ड्स के गठन के समय एल्बर्ट को स्थानांतरित कर दिया गया और ट्रेनिंग के दौरान ही उनकी क्षमताओं और अनुशासन को देखते हुए उन्हें लांसनायक बना दिया गया।
- फ्लाइंग ऑफिसर निर्मलजीत सिंह सेखों- 1971
फ्लाइंग ऑफिसर निर्मलजीत सिंह सेखों का जन्म 17 जुलाई 1943 में लुधियाना, पंजाब के रूरका गांव में हुआ। अपने विवाह के कुछ ही महीने बाद निर्मलजीतसिंह ने खुद को देश को समर्पित कर दिया। 14 दिसंबर 1971 को जब 6 पाकिस्तानी सैबर जेट विमानों द्वारा श्रीनगर एयरफील्ड पर हमला किया गया, तब ऑफिसर निर्मलजीत सिंह सुरक्षा टुकड़ी की कमान संभालते हुए 18 नेट स्क्वॉड्रन के साथ वहां तैनात थे।
दुश्मन के एफ-86 सैबर जेट विमानों का बहादुरी के साथ सामना करते हुए उन्होंने दो सैबर जेट विमानों को ध्वस्त किया। वे लगातार दुश्मन के पीछे लगे रहे और उनके छक्के छुड़ाते रहे। दूसरे सैबर जेट के ध्वस्त होने के धमाके के बाद सेखों ने अपने साथी फ्लाइट लेफ्टिनेंट घुम्मनसिंह को संदेश भेजा कि शायद मेरा विमान भी अब निशाने पर आ गया है, घुम्मन अब तुम मोर्चा संभालो । इस संदेश को देने के बाद वे शहीद हो गए।
- सेकंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल- 1971
14 अक्टूबर 1950 को पूना में जन्मे अरुण खेत्रपाल को 1971 में हुए भारत-पाकिस्तान युद्ध में अपने अद्भुत शौर्य के लिए मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया एनडीए में अरुण स्क्वॉड्रन कैडेट के रूप में चुने गए जिसके बाद वे इंडियन मिलिट्री एकेडमी देहरादून में सीनियर अंडर ऑफिसर बना दिए गए। 13 जून 1971 वह दिन था, जब वे पूना हॉर्स में सेकंड लेफ्टिनेंट के रूप में शामिल हुए।
दिसंबर 1971 में भारत-पाक के बीच हुए युद्ध में 16 दिसंबर को अरुण खेत्रपाल एक स्क्वॉड्रन की कमान संभाले ड्यूटी पर तैनात थे। तभी अन्य स्क्वॉड्रन का संदेश मिलने पर वे मदद के लिए अपनी टुकड़ी लेकर शकरगढ़ के जरपाल की ओर गए। इस दौरान दुश्मन के टैंकों को ध्वस्त करते हुए उनका टैंक खुद दुश्मन के निशाने पर आ गया, लेकिन परिस्थितियों की जरूरत को देखते हुए वे आग लग जाने पर भी टैंक से नहीं हटे और दुश्मन को आगे बढ़ने से रोकते रहे। इस बीच, उनका टैंक एक आघात के कारण वह बेकार हो गया और अरुण खेत्रपाल शहीद हो गए। अरुण खेत्रपाल सबसे कम उम्र के परमवीर चक्र प्राप्त वीर चक्र प्राप्त वीर थे। दुश्मन भी उनकी बहादुरी के कायल थे।
- मेजर होशियार सिंह- 1971 (जीवित)
मेजर होशियारसिंह उन वीर सैनिकों में शामिल थे, जिन्हें अपने जीवनकाल में परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। 5 मई 1937 को हरियाणा के सोनीपत में जन्मे मेजर होशियारसिंह ने 1971 में हुए भारत-पाकिस्तान युद्ध में अद्भुत वीरता का प्रदर्शन किया था। होशियार वॉलीवॉल के खिलाड़ी और अपनी राष्ट्रीय स्तर की टीम के कप्तान थे। इस टीम का मैच जाट रेजीमेंटल सेंटर के एक उच्च अधिकारी ने देखा तो होशियार सिंह से वे प्रभावित हुए। इसके बाद 1957 में होशियार सिंह ने सेना की जाट रेजीमेंट में प्रवेश किया और 3 ग्रेनेडियर्स में कमीशन लेने के बाद वे ऑफिसर बन गए।
1965 में पाकिस्तान के खिलाफ जीत को आसान बनाने में होशियार सिंह की दी गई महत्वपूर्ण सूचना का खास योगदान था। 1971 में हुए भारत-पाक युद्ध के अंतिम 2 घंटे पूर्व तक, जब युद्ध विराम की घोषणा की गई और दोनों सेनाएं एक-दूसरे के सैनिकों को खत्म करने का भरसर प्रयास कर रही थीं, तब भी होशियारसिंह घायल अवस्था में भी डटे रहे और लगातार दुश्मन सिपाहियों को एक के बाद एक रास्ते से हटाते रहे। वे लगातार अपने साथियों का हौसला बढ़ाते रहे। मेजर होशियारसिंह की बटालियन जीत दर्ज करा चुकी थी। इसके लिए मेजर सिंह को परमवीर चक्र प्रदान किया गया।
- नायक सूबेदार बाना सिंह 1987
6 जनवरी 1949 को जम्मू-कश्मीर के काद्याल गांव में जन्मे नायब सूबेदार बाना सिंह ने 1969 में सेना में प्रवेश कर अपने फौजी जीवन की शुरुआत की। सियाचिन के मोर्चे पर लड़ते हुए उन्होंने जो पराक्रम दिखाया उसके लिए उन्हें परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। सियाचिन में बाना सिंह ने जिस चौकी को फतह किया, उसका नाम ही बाद में बाना पोस्ट रख दिया गया।
सियाचिन ग्लेशियर पर भारतीय सीमा में पाकिस्तान द्वारा बनाई गई कायद चौकी को फतह करने के लिए बानासिंह ने अदम्य साहस का परिचय दिया और सैनिकों के साथ बर्फ की बनी उस सपाट दीवार को लांघने में कामयाब हुए जिसे पार करना अब तक सैनिकों के लिए मुश्किल भरा कार्य था। बाना सिंह ने न केवल उसे पार किया, बल्कि उसे पार कर चौकी पर तैनात पाकिस्तानी सैनिकों पर ग्रेनेड और बैनेट से हमला कर उन्हें मौत के घाट उतार दिया। पाक के स्पेशल सर्विस ग्रुप के कमांडो, जो चौकी पर तैनात थे, मारे गए और बाकी भाग निकले। इस तरह बानासिंह से बहादुरी के साथ सियाचिन पर चौकी को दुश्मन के कब्जे से फतह किया।
- मेजर रामास्वामी परमेश्वरन 1987
13 सितंबर 1946 को जन्मे मेजर रामास्वामी परमेश्वरन ने 1972 में भारतीय सेना में महार रेजीमेंट में प्रवेश किया। श्रीलंका व भारत के बीच हुए अनुबंध के तहत भारतीय शांति सेना में वे श्रीलंका गए। 25 नवंबर 1987 की बात है, जब अपनी बटालियन के साथ एक गांव में गोला-बारूद की सूचना पर वे घेराबंदी के पहुंचे, लेकिन रात के वक्त किए गए इस सर्च ऑपरेशन में वहां कुछ नहीं मिला।
वापसी के समय एक मंदिर की आड़ लेकर दुश्मनों ने सैनिक दल पर फायरिंग शुरू कर दी और उनका सामना तमिल टाइगर्स से हुआ। तभी दुश्मन की एक गोली मेजर रामास्वामी परमेश्वर के सीने में लगी, लेकिन घायल होने के बावजूद मेजर लड़ाई में डटे रहे और बटालियन को निर्देश देते रहे। इस लड़ाई में मेजर के दल ने 6 उग्रवादियों को मार गिराया और गोला-बारूद भी जब्त किया, लेकिन सीने में लगी गोली के कारण वे वीरगति को प्राप्त हो गए। इस बहादुरी के लिए उन्हें परमवीर सम्मान दिया गया।
- कैप्टन मनोज कुमार पांडेय 1999 (कारगिल)
कैप्टन मनोज कुमार पांडेय का जन्म 25 जून 1975 को उत्तरप्रदेश के रूधा गांव (सीतापुर) में हुआ था। इंटरमीडियट की पढ़ाई के बाद मनोज कुमार नेशनल डिफेंस एकेडमी, पुणे में दाखिल हुए और ट्रेनिंग पूरी कर वे 11 गोरखा राइफल्स रेजीमेंट की पहली बटालियन में बतौर कमीशंड ऑफिसर शामिल हुए। जब उनकी बटालियन को सियाचिन में तैनात होना था, तब उन्होंने खुद अपने अधिकारी को पत्र लिखकर सबसे कठिन दो चौकियों बाना चौकी या पहलवान चौकी में से एक दिए जाने की मांग की और बाद में लंबे समय तक 19 हजार 700 फुट की ऊंचाई पर पहलवान चौकी पर जोश और बहादुरी के साथ वे डटे रहे।
1999 के निर्णायक युद्ध में उनकी बटालियन ने खलूबार को फतह करने की जिम्मेदारी ली और दुश्मन के हर वार का सामना कर और दुश्मन सैनिकों की लाशें बिछाते हुए आखिरकार खलूबार को फतह किया। हालांकि इस फतह की लड़ाई में उनके कंधे और पैर बुरी तरह घायल हुए, लेकिन इसके बावजूद वे दुश्मन बंकरों को ध्वस्त करते गए। इसी बीच दुश्मन की मशीनगन से निकली एक गोली सीधे उनके माथे पर जाकर लगी जिसके बाद वे धराशायी हो गए। उनकी शहादत से जोश में आए जवान दुश्मन पर और आक्रामक हो गए जिसका नतीजा दुश्मन का खात्मा और हमारी जीत थी। मात्र 24 वर्ष की आयु में शहीद होने वाले इस वीर जवान को मरणोपरांत परमवीर चक्र सम्मान दिया गया।
- कैप्टन विक्रम बत्रा 1999 (कारगिल)
कैप्टन विक्रम बत्रा का जन्म 9 सितंबर 1974 को पालमपुर में हुआ था। उन्होंने बचपन से ही देशभक्ति की कहानियां सुनीं और स्कूल के समय सेना के अनुशासन को देखा जिसका सर उनके मन-मस्तिष्क पर भी रहा। उन्होंने हांगकांग की मर्चेंट नेवी की नौकरी को ठुकराकर अपने देश के लिए सेवा देने को महत्व दिया और 1996 में सीडीएस के जरिए उन्होंने भारतीय सेना अकादमी, देहरादून में प्रवेश लिया और 1997 में 13 जम्मू-कश्मीर राइफल्स में लेफ्टिनेंट के पद पर वे नियुक्त हुए। उन्होंने सैनिक जीवन में कमांडो ट्रेनिंग के साथ और भी प्रशिक्षण लिए। 1999 में हुए कारगिल युद्ध में उनकी टुकड़ी को भेजा गया और हम्प व राकी नाब जीतने के बाद उन्हें कैप्टन बना दिया गया। श्रीनगर-लेह मार्ग के ऊपर 5140 पर एक महत्वपूर्ण चोटी को जीतने के बाद उन्हें ‘शेरशाह’ व ‘कारगिल का शेर’ जैसी संज्ञाएं भी दी गईं।
इसके बाद उनका अभियान 4875 चोटी को कब्जे में लेने का था जिसमें वे साथियों के साथ आगे बढ़ रहे थे। मिशन पूरा होने का था, तभी एक विस्फोट से अपने साथी लेफ्टिनेंट को बचाने के लिए वे आगे बढ़े और एक गोली आकर उनके सीने में लगी। इसमें लेफ्टिनेंट नवीन के दोनों पैर जख्मी हो गए और कैप्टन बत्रा शहीद हो गए। अपने इस पराक्रम के लिए उन्हें मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया।
- राइफलमैन संजय कुमार 1999 (कारगिल) (जीवित)
3 मार्च 1976 को हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर में जन्मे संजय कुमार का बचपन से ही फौज में जाने का सपना था। 1996 में संजय कुमार ने भारतीय सेना में प्रवेश किया और सौभाग्य से फौज में जाने के मात्र 3 ही वर्षों में उन्होंने परमवीर चक्र सम्मान प्राप्त किया। 4875 फुट ऊंची चोटी के मोर्चे पर बहादुरी दिखाने वाले दो जवानों को परमवीर चक्र दिया गया जिनमें एक कैप्टन विक्रम बत्रा थे और दूसरे राइफलमैन संजय कुमार।
4 जुलाई 1999 को राइफलमैन संजय कुमार जब हमले के लिए आगे बढ़े तो एक जगह से दुश्मन ने ऑटोमेटिक गन से जबरदस्त गोलीबारी शुरू कर दी। इसके बाद संजय ने अचानक हमला करके आमने-सामने की मुठभेड़ में 3 दुश्मनों को मार गिराया और जोश में गोलाबारी करते हुए वे आगे बढ़े। इस आक्रमण से दुश्मन बौखलाकर भाग खड़ा हुआ और इस भगदड़ में दुश्मन अपनी यूनिवर्सल मशीनगन भी छोड़ गया। इस दौर में संजय कुमार खून से लथपथ होते हुए भी बिना रण छोड़े दुश्मन से जूझते रहे और जीत हासिल की।
- ग्रेनेडियर योगेन्द्र सिंह यादव 1999 (कारगिल) (जीवित)
ग्रेनेडियर योगेन्द्र सिंह यादव का जन्म 10 मई 1980 को बुलंदशहर के औरंगाबाद अहीर गांव में हुआ था। 27 दिसंबर 1996 में उन्होंने 18 ग्रेनेडियर बटालियन में शामिल हो भारतीय सेना में प्रवेश किया। मात्र 19 वर्ष की आयु में उन्होंने परमवीर चक्र सम्मान प्राप्त किया। 1999 की लड़ाई में उनका विशेष पराक्रम था टाइगर हिल पर तिरंगा लहराना, जो एक कठिन और संघर्षपूर्ण मिशन था।
टाइगर हिल में घुसपैठियों की 3 चौकियां थीं। मुठभेड़ के बाद पहली चौकी पर कब्जा करने के बाद केवल 7 कमांडो वाला दल आगे बढ़ा। दुश्मन की ओर से अंधाधुंध गोलीबारी में 2 सैनिक शहीद हो गए और आगे बढ़े 5 सैनिकों में से भीषण मुठभेड़ में दुर्भाग्य से 4 शहीद हो गए। अंत में सिर्फ ग्रेनेडियर योगेन्द्र सिंह यादव बचे जिनके बाएं हाथ की हड्डी टूटने से उनके हाथ ने काम करना बंद कर दिया था।
योगेन्द्र सिंह ने हाथ को बेल्ट से बांधकर कोहनी के बल चलना आरंभ किया और एके-47 राइफल से 15-20 घुसपैठियों को मार गिराया। अब दूसरी चौकी पर भी भारत का कब्जा हो गया। 17,500 फुट की ऊंचाई पर स्थित तीसरी चौकी पर कब्जा करने के लिए वे धुआंधार गोलीबारी करते हुए आगे बढ़े जिससे डरकर दुश्मन भाग खड़े हुए तो कुछ चौकी में ही छिप गए। योगेन्द्र सिंह यादव ने बहादुरी से आगे बढ़कर घुसपैठियों को भी मार गिराया और तीसरी चौकी पर कब्जा जमा लिया और अंतत: योगेन्द्र सिंह यादव टाइगर हिल पर तिरंगा फहराने में सफल रहे।
(लेखक मानव संसाधन विकास मंत्रालय से संबद्ध हैं ।)