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शस्त्र एवं शास्त्र पर समान अधिकार रखने वाले महान पराक्रमी भगवान परशुराम

भगवान वासुदेव नारायण के छठवें अवतार परशुराम को शस्त्र एवं शास्त्र का प्रतीक माना जाता है। भगवान परशुराम का शस्त्र एवं शास्त्र पर समान रूप से अधिकार था, उनके जैसा पराक्रमी शायद ही कोई हुआ है। एक बार पिता की आज्ञा से उनको अपनी माता का वध करना पड़ा था और उनकी इस पितृ भक्ति से उनके पिता ऋषि जमदाग्नि काफी प्रसन्न हुए और अपने तपो बल से उनकी माता को फिर से पुनर्जीवित कर दिया। भगवान परशुराम माता रेणुका और ऋषि जमादाग्नि के चौथे संतान थे। उन्हें भार्गव के नाम से भी पुकारा जाता है। परशुराम जी का जन्म अक्षय तृतीया के दिन हुआ था, इसलिए प्रत्येक वर्ष अक्षय तृतीया के दिन परशुराम जयंती मनाई जाती है। वैशाख मास के शुक्ल पक्ष के तृतीया तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र के रात्रि प्रथम पहर में श्रेष्ठ ग्रहों से युक्त मिथुन राशि पर राहु के स्थित रहते मां रेणुका गर्भ से भगवान परशुराम का अवतरण हुआ था, जानकार बताते हैं कि इस तिथि को प्रदोष व्यापिनी के रूप में ग्रहण करना चाहिए क्योंकि भगवान परशुराम का प्राकट्य काल प्रदोष काल ही है। भगवान परशुराम का जन्म श्रीराम से पहले हुआ थे, परशुराम भगवान विष्णु के छठवें अवतार थे जबकि श्रीराम सातवें। दोनों का मिलन मिथिला नरेश राजा जनक के द्वारा आयोजित स्वयंवर के दौरान शिव धनुष भंग प्रसंग में दिखता है।

भगवान परशुराम के शौर्य का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनके आगमन से ही आततियों के जेहन में भय व्याप्त हो जाता था एवं जनता निर्भय हो जाती थी। उन्हें किसी जातिगत खांजे में डालना सबसे बड़ी भूल होगी क्योंकि वे भले की किसी जाति में अवतार लिया हो लेकिन वे सामाजिक समता, मानव कल्याण और सर्व सुलभ न्याय के प्रतीक बिंदु हैं। इतिहास गवाह है कि जब – जब आसुरी शक्ति प्रबल होने से मानव समुदाय उनकी कुकर्मों, अनीतियों, अन्याय और अत्याचार से दुखी हुए तो स्वयं भगवान अवतरित होकर उन्हें कठोर दंड दिया। परशुराम जी के जीवन चरित्र पर नजर डालें तो पता चलता है कि उन्होंने अनेकों बार आसुरी शक्तिओं को निर्मूल किया। उनका शौर्य सूर्य की भांति तेज, सुमेरू पर्वत की तरह अडीग था। वे अपने मन की गति से कहीं भी आ  जा सकते थे। उन्होंने अधर्मियों का नाश कर शाश्वत मानवीय मूल्य की स्थापना की।

जानें कैसे कहलाये जमदाग्नि पुत्र परशुराम

बचपन में भगवान परशुराम का नाम राम था। बचपन में उनके माता – पिता उन्हें राम कहकर पुकारते थे।   भगवान परशुराम को भगवान विष्णु का छठा अवतार कहा जाता है। जब वह बड़े हुए तो पिता ने उन्हें भगवान शिव की अराधना करने के लिए कहा। पिता की आज्ञा से भगवान शिव की तपस्या में लीन हो गये। उनकी घनघोर तपस्या से देवाधिदेव महादेव काफी प्रसन्न हुए और उन्हें आसुरी शक्ति को नाश कर धर्म की संस्थापना करने का आदेश दिया। इस दौरान भगवान शिव ने उन्हें परशु (फरसा) नामक शस्त्र दिया, यह परशु उन्हें बहुत प्रिय था तबसे उनके नाम के आगे परशु लग गया और वे परशुराम हो गये। उन्होंने अपने पराक्रम से असुरों का नाश किया। असुर जाति उनके नाम से ही भयभीत हो जाते थे।

कलियुग में कल्कि को शिक्षा देंगे परशुराम

भगवान परशुराम को शौर्य और पराक्रम का अवतार माना जाता है। मान्यता है कि परशुराम जी अनादिकाल तक इस सृष्टि में विराजमान रहेंगे। उन्हें त्रेता युग के राम के काल में देखा और द्वापर युग के कृष्ण काल में भी। उन्होंने ही भगवान श्रीकृष्ण को सुदर्शन चक्र उपलब्ध करवाया था।  वे सृष्टि के अंत तक पृथ्वी पर तपस्यारत रहेंगे और कल्कि अवतार में कल्कि को भी शिक्षा देंगे। सनातनी पौराणिक कथाओं में उल्लेख है कि महेन्द्रगिरि पर्वत पर भगवान परशुराम की तप की जगह थी और अंतिम वे उसी पर्वत पर कल्पांत तक के लिए तपस्या के लिए चले गये थे।

अपने पराक्रम से 21 बार क्षत्रियों को श्रीहीन करने वाले परशुराम

एक बार सहस्त्रार्जुन अपनी पूरी सेना समेत भगवान परशुराम के पिता जमदग्रि मुनी के आश्रम पहुंचा। सहस्त्रार्जुन के आश्रम पहुंचने पर ऋषि जमाग्नि ने अपनी कामधेनु गाय के दूध से पूरी सेना का स्वागत किया, ऋषि के कामधेनु गाय को देखकर सहस्त्रार्जुन को लोभ हो गया और विस्मयकारी कामधेनु को बलपूर्वक छीन लिया, परशुराम को इस बात का पता चलते ही सहस्त्रार्जुन को मौत की घाट उतार दिया। बाद में सहस्त्राजुर्न के पुत्रों ने अपने पिता के हत्या का बदला लेने के भगवान परशुराम के पिता ऋषि जमादाग्नि की हत्या कर दी, पति वियोग में माता रेणुका भी ऋषि जमदाग्नि के चिता के साथ सती हो गई। अपने माता – पिता के मृत्यु के पश्चात भगवान परशुराम के क्रोध की ज्वाला धधक गई और उन्होंने क्षत्रिय वंशों का संहार करने की प्रतिज्ञा ली। उन्होंने धरती से 21 बार क्षत्रियों को श्रीहीन कर अपने प्रतिज्ञा पूरी की।

परशुराम के द्वारा एक दांत नष्ट करने के बाद एकदंत कहलाये शिव पुत्र गणेश

यूं तो भगवान परशुराम से जुड़े अनेक प्रसंग मिलते हैं। एक प्रसंग में उल्लेख मिलता है कि भगवान परशुराम ने अपना वाण चलाकर समुद्र को पीछे धकेलते हुए नई भूमि का निर्माण किया। उन्होंने यज्ञ के लिए बत्तीस हाथ की सोने की वेदी बनवाई थी। बाद में इसे महर्षि कश्यप ने ले लिया और उन्हें पृथ्वी छोड़कर चले जाने के लिए कहा। भगवान परशुराम ने उनकी बात मान ली और समुद्र को पीछे हटाकर गिरिश्रेष्ठ महेंद्र पर चले गए। ब्रह्मावैवर्त पुराण के अनुसार सतयुग में एक बार भगवान परशुराम शिवजी के दर्शन के लिए गये तो गणेश जी ने उन्हें रोक दिया। क्रोधित होकर परशुराम ने उन पर अपने फरसे यानी परशु से वार किया जिसमें गणेश जी का एक दांत नष्ट हो गया और तबसे ही गजानन एकदंत कहलाये। त्रेतायुग में  जनक, दशरथ आदि राजाओं का उन्होंने समुचित सम्मान किया। सीता स्वयंवर में श्रीराम का अभिनंदन किया। द्वापर के महाभारत के दौरान कौरव सभा में भगवान परशुराम ने श्रीकृष्ण का समर्थन किया।  द्वापर में उन्होंने ही मिथ्या वाचन कर विद्या ग्रहण करने पर दंड स्वरूप कर्ण को सारी विद्या विस्मृत हो जाने का श्राप दिया था। उन्होंने भीष्म, द्रोण व कर्ण को शस्त्र विद्या प्रदान की थी। इस तरह भगवान परशुराम से जुड़े अनेक प्रसंग हैं।

(उपरोक्त वर्णित तथ्य पौराणिक ग्रंथों एवं लोक मान्यताओं के आधार पर है।)

 

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