Thursday, May 22, 2025
No Result
View All Result
Rashtriya Chhatra Shakti
  • मुख पृष्ठ
  • कवर स्टोरी
  • ABVP विशेष
    • आंदोलनात्मक
    • प्रतिनिधित्वात्मक
    • रचनात्मक
    • संगठनात्मक
    • सृजनात्मक
  • लेख
  • पत्रिका
  • सब्सक्रिप्शन
  • आयाम
    • Think India
    • WOSY
    • Jignasa
    • SHODH
    • SFS
    • Student Experience Interstate Living (SEIL)
    • FarmaVision
    • MediVision
    • Student for Development (SFD)
    • AgriVision
  • WORK
    • Girls
    • State University Works
    • Central University Works
    • Private University Work
  • खबर
  • परिचर्चा
  • फोटो
Rashtriya Chhatra Shakti
  • मुख पृष्ठ
  • कवर स्टोरी
  • ABVP विशेष
    • आंदोलनात्मक
    • प्रतिनिधित्वात्मक
    • रचनात्मक
    • संगठनात्मक
    • सृजनात्मक
  • लेख
  • पत्रिका
  • सब्सक्रिप्शन
  • आयाम
    • Think India
    • WOSY
    • Jignasa
    • SHODH
    • SFS
    • Student Experience Interstate Living (SEIL)
    • FarmaVision
    • MediVision
    • Student for Development (SFD)
    • AgriVision
  • WORK
    • Girls
    • State University Works
    • Central University Works
    • Private University Work
  • खबर
  • परिचर्चा
  • फोटो
No Result
View All Result
Rashtriya Chhatra Shakti
No Result
View All Result
Home आंदोलनात्मक

आपातकाल की कुछ यादें

अजीत कुमार सिंह by रामबहादुर राय
June 25, 2020
in आंदोलनात्मक
आपातकाल की कुछ यादें

emergency

आपातकाल अचानक नहीं आया। इसकी आशंका बहुत पहले से व्यक्त की जा रही थी। 25 जून 1975 की रात में राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद ने दबाव में आकर अनिच्छापूर्वक आपातकाल की घोषणा पर हस्ताक्षर कर दिया। जिसकी एक औपचारिकता के बाद अगले दिन सुबह घोषणा की गई। औपचारिकता यह थी कि मंत्रिमंडल से उसे पारित कराया जाना था। जिसके लिए दिल्ली में उपस्थित मंत्रियों को जगा कर सुबह छह बजे बुलाया गया और उन्हें इसकी सूचना दी गई। सिर्फ स्वर्ण सिंह ने सवाल उठाया कि आपातकाल घोषित करने की जरूरत क्या है? इसे प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अनसुना कर दिया। मंत्रिमंडल की स्वीकृति के पश्चात् वे रेडियो पर आईं और आपातकाल लगाये जाने की देशवासियों को स्तब्धकारी सूचना दी। उसी से लोकतंत्र की वापसी के लिए जो संघर्ष छिड़ा उसमें अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् की निर्णायक भूमिका रही।

क्या 26 जून 1975 अचानक आया? इतिहास की कोई घटना अचानक नहीं होती। उसका एक क्रम होता है। कार्य-कारण के परिणाम स्वरूप ऐसी घटनाएं होती हैं। आजादी के बाद जो ऐतिहासिक मोड़ की कुछ घटनाएं हुई हैं उनमें बहुत प्रमुख स्थान आपातकाल का है। इसके कई कारण हैं। सबसे बड़ा तो यह कि आपातकाल ने फलते-फूलते भारतीय लोकतंत्र को अपनी असहनीय तपिश से मुरझा दिया। कई मायने में आपातकाल की तुलना 1942 के 9 अगस्त से की जा सकती है। जिस तरह 9 अगस्त 1942 अचानक नहीं आया उसी तरह 26 जून 1975 भी अचानक नहीं आया। लेकिन जिस तरह महात्मा गांधी के ‘करेंगे या मरेंगे’ के नारे पर अमल के लिये उस समय की कांग्रेस संस्थात्मक रूप से तैयार नहीं थी वैसे ही लोकनायक जयप्रकाश नारायण की समग्र क्रांति के आह्वान पर आपातकाल जैसी परिस्थितियों से लड़ने की कोई सुव्यवस्थित योजना नहीं थी। एक  खाका जरूर था। उसमें अन्य संगठनों के अलावा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका थी।

उसे जानने और समझने की जरूरत है। इसलिए इतिहास के उन क्षणों को हमें याद करना चाहिए जिनका संबंध उससे सीधे जुड़ता है। वे क्षण मील के पत्थर बने हुए हैं। जिन्हें आज याद करने का मतलब है अतीत में झांकना और उन परिस्थतियों को एक दृष्टा के रूप में देखना और इतिहास का वह पाठ दोहराना, जिससे भविष्य की राह निकलती है। इसकी शुरूआत होती है, अहमदाबाद से। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् का वहां राष्ट्रीय अधिवेशन था। तारीख थी- 4, 5 और 6 नवंबर 1973। वहां पूरे देश से आए प्रतिनिधियों ने व्यापक प्रश्नों पर सतत आंदोलन का संकल्प लिया। परिषद् के नेतृत्व की वह जहां दूरदृष्टि थी वहीं राष्ट्रीय पुनर्निर्माण में आंदोलन की आवश्यकता को मान्यता भी थी। यही एक ऐसा प्रमाण है जो अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् को दूसरे छात्र और युवा संगठनों से भिन्न, और बेहतर पायदान पर खड़ा करता है। दूसरा कोई छात्र संगठन इस श्रेय का खुद को हकदार नहीं बना पाएगा। क्योंकि वह अपने विवेक और भविष्य दृष्टि से संचालित नहीं होता। वह राजनीतिक नेतृत्व से निर्देशित और संचालित होता है।

राष्ट्रीय स्तर पर जब एक नीति निर्धारित हो गई तो उसे अपने-अपने क्षेत्र में तब कार्यरूप देने की जिम्मेदारी राज्य संगठन पर आई। इस दृष्टि से देखें तो बिहार विद्यार्थी परिषद् ने अगुवाई की। उस साल के अगले महीने में बिहार विद्यार्थी परिषद् ने धनबाद में एक सम्मेलन किया। राज्य स्तरीय सम्मेलन। उसकी तारीख थी-23, 24, दिसंबर 1973। उसकी कुछ विशेषताएं हैं। पहली यह कि उसमें 1163 प्रतिनिधि आए। किसी राज्य स्तरीय सम्मेलन की यह उपस्थिति अपने आप में एक भविष्यगत आश्वासन थी। वह परिवर्तन की आकुलता  का प्रतीक भी था। दूसरी खास बात जिसे कह सकते हैं वह पर्यवेक्षक प्रतिनिधियों की उपस्थिति थी। इन दो बातों से धनबाद का बिहार विद्यार्थी परिषद् का सम्मेलन विशेष हो गया। वहां जो निर्णय हुए वे वास्तव में बिहार के छात्र आंदोलन की नींव बने। जिस आंदोलन को जे.पी. आंदोलन के नाम से भी जाना जाता है। वह इसी संज्ञा से इतिहास में विभूषित है।

 

क्या जे.पी. आंदोलन के कारण आपातकाल आया? उसमें किसकी क्या भूमिका थी? अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् ने कौन सी भूमिका और किस रूप में अदा की? ये सवाल जब आज उठते हैं तो उनका जबाव वैसा सरल नहीं हो सकता जैसा तब था। इसका कारण यह है कि अब पूरा चित्र हमारे सामने हैं। तथ्य है। उसके तर्क हैं। उसके प्रमाण हैं। उनका ऐतिहासिक विश्लेषण है। यह सब होते हुए जो बातें कही जा सकती हैं और जिनके खंडन का कोई खतरा भी नहीं हो सकता उन बातों को हीं यहां रखने का प्रयास है। पहली बात यह है कि बिहार आंदोलन की शुरूआत अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् ने कराई। उसे जे.पी. का नेतृत्व मिला। इसलिए वह पहले के छात्र आंदोलनों जैसा अल्पजीवी नहीं रहा। उसे अकाल मृत्यु प्राप्त नहीं हुई। यह अच्छा ही हुआ। वह राष्ट्रीय आंदोलन बनने की ओर तेजी से अग्रसर हो रहा था। उसके साथ ही राज्य और केन्द्र की कांग्रेसी सरकारों के पैर कांपने लगे थे। सबसे ज्यादा चिंतित इंदिरा गांधी थीं क्योंकि आंदोलन ने दिल्ली का रूख कर लिया था। नारा था-सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। जनता चल भी पड़ी थी। नेतृत्व जे.पी. कर रहे थे। पर वस्तुतः फौज तो छात्र और युवा की ही थी। जिसकी अगली कतार में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् था। उसका देशव्यापी संगठन था। उसके कार्यकर्ता तमाम विश्वविद्यालयों के छात्र संघों का नेतृत्व कर रहे थे। उसकी इस संगठन शक्ति का वक्त वे-वक्त दूसरे जमात वाले लोहा भी मानते थे। पर यह जरूर यहां जोड़ा जाना चाहिए कि वह आंदोलन सामूहिकता की शक्ति लिए हुए था। जिसमें राजनीतिक दल थे। जन संगठन थे और छात्र युवा भी थे। वह आंदोलन अपने एक पड़ाव पर पहुंचा। जिस तरह बिहार में छात्र संघर्ष समिति के समानांतर जन संघर्ष समिति काम कर रही थी उसी तरह राष्ट्रीय स्तर पर छात्र संघर्ष समिति के बराबर लोक संघर्ष समिति का गठन राजनीतिक दलों ने किया था। उसी के आह्वान पर 25 जून 1975 को रामलीला मैदान में सभा हुई। वह ऐतिहासिक थी। उस सभा के पश्चात् रात के अंधेरे में जे.पी. सहित तमाम राजनीतिक नेताओं को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया, जबकि इमरजंसी की घोषणा बाकी थी। यह वैसा ही दृश्य था जैसा 9 अगस्त 1942 को देश में अंग्रेजों ने किया था।

अपने अनुभव से यह कह सकता हूं कि कोई भी नेता और संगठन इमरजंसी लगने पर संघर्ष की पूर्व रूपरेखा नहीं बना सका था। यह एक विचित्र सी बात है कि आपातकाल से लड़ने की पूर्व तैयारी आखिर क्यों नहीं की गई? चेतावनी तो काफी पहले से मिल रही थी। तैयारी के लिए अवसर भी आए। खासकर 12 जून 1975 ने बड़ा अवसर प्रदान किया। उस दिन से भी अगर तैयारी की जाती तो संघर्ष उतना लंबा नहीं होता जितना हुआ। जनवरी 1975 से ही विभिन्न मंचों से आपातकाल लगाया जा सकता है इसकी आशंका व्यक्त की जा रही थी। अचानक जब 26 जून की सुबह सूरज निकला और अपनी तपिश से लोगों को छांव में रहने के लिए मजबूर कर रहा था तब लोगों को दोहरे सदमें झेलने पड़े। जून की गर्मी और ऊपर से आजादी पर खतरा। लोग चौंके। आश्चर्यचकित हुए। फिर संभले। संभलने में वक्त कितना लगा यह इस पर निर्भर करता था कि कौन कितना सुसंबंद्ध है। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् अपेक्षाकृत अधिक संगठित और सुसंबंद्ध था।

इसलिए वह जल्दी संभल गया। आपातकाल के प्रारंभिक दिनों में दोहरी समस्या थी। पहली कि नए ठिकाने और संगठन का भरोसेमंद तंत्र खड़ा कैसे हो? दूसरा कि गिरफ्तारियों से बच कर भूमिगत काम करने के लिए एक तौर-तरीका विकसित करना था। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् पर प्रतिबंध उस तरह से नहीं लगा जैसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सहित छब्बीस संगठनों पर लगा। लेकिन उसे वह आजादी नहीं प्राप्त थी जो एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में होती है। प्रश्न था कि तानाशाही से कैसे लड़े? इसे सरल, सहज और सतत प्रवाही बना सकने में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका कील की तरह उस समय रही। कील घुमता नहीं, उस पर चक्र घुमता है। पहिया घुमता है। कुछ ही दिनों में यह व्यवस्था बन गई कि विद्यार्थी परिषद् के कार्यकर्ता भूमिगत होकर काम करने लगे। उसका एक क्रम बना। वह लोक संघर्ष समिति के निर्देशों से संचालित होता था। जिसका शुरू में नेतृत्व (भूमिगत रहकर) नानाजी देशमुख ने किया और बाद में रवीन्द्र वर्मा ने। लोक संघर्ष समिति को संघ के देशव्यापी संगठन तंत्र का पूरा सहयोग था। तानाशाही के उन दिनों में बर्बरता के भी बहुत उदाहरण हैं। वीरेन्द्र अटल जैसे अनेक नाम गिनाए जा सकते हैं। वे संघर्ष के प्रतिरूप बन गए। आपातकाल के 18 महीनों में तीन चरण आए जब संघर्ष की शक्ल बदली। ज्यादा व्यवस्थित हुई। पहले चरण में भय दूर हो, इसके लिए उपाय किए गए। दूसरे चरण में संघर्ष की चेतना जगाई गई। तीसरे चरण में लोकतंत्र की वापसी की आवाज को बुलंद करने के कार्यक्रम चलाने में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् की भूमिका सहयोगी  के रूप में रही।

आपातकाल के आखिरी दिनों में विद्यार्थी परिषद् की कोर टीम की एक बैठक दिल्ली में थी। उस समय की दो बातें बताने लायक है। एक यह कि किदवई नगर के जिस फ्लैट में ठहराया गया था वहां देर रात रजत शर्मा मिलने आए। वे दिल्ली विश्वविद्यालय में छात्र संघ के महासचिव थे। भूमिगत रूप से आंदोलन सक्रिय थे। दूसरा यह कि नरेश गौड़ के सहयोग से ओमप्रकाश त्यागी, अटल बिहारी वाजपेयी, चौधरी चरण सिंह, चंद्रशेखर से मैं मिला। यहां वाजपेयीजी से हुई बातचीत प्रासंगिक है। एक फिरोजशाह रोड पर वे रहते थे। घर में नजरबंद थे। ओमप्रकाश त्यागी ने मुझे बताया था कि दोपहर बाद चार बजे के आसपास उनसे मिलना संभव है। गिरफ्तारी का कोई खतरा नहीं है। उन दिनों यह आम चर्चा थी कि केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री ओम मेहता से अटल बिहारी वाजपेयी की वार्ता हुई है। यही बात मिलने पर मैंने पूछी तो उन्होंने जो ब्योरा दिया वह अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् की आपातकाल में भूमिका का सरकारी प्रमाण था। सरकार ने वाजपेयीजी को बताया था कि दिसंबर 1976 के आखिरी दिनों तक देश में जो भी हिंसा, उपद्रव, तोड़फोड़ और रेल की पटरियों को उखाड़ने की घटनाएं हुई थी उनमें से 2400 घटनाओं की जिम्मेदारी का आरोप विद्यार्थी परिषद् पर था। साफ है कि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के कार्यकर्ता अपनी समझ और सूझबूझ से सक्रिय थे। उनकी सक्रियता लोकतंत्र के लिए थी। वह आम चुनाव के बाद आया। आपातकाल हटा। लोकतांत्रिक भारत ने नया अध्याय शुरू किया।

(लेखक हिन्दुस्थान समाचार एजेंसी के समूह संपादक हैं एवं जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में किये गये संपूर्ण क्रांति में आपकी प्रमुख भूमिका रही है।)

Tags: abvpEMERGENCYindira gandhijp movement
No Result
View All Result

Archives

Recent Posts

  • ऑपरेशन सिंदूर’ के तहत भारतीय सेना द्वारा आतंकियों के ठिकानों पर हमला सराहनीय व वंदनीय: अभाविप
  • अभाविप ने ‘सिविल डिफेंस मॉक ड्रिल’ में सहभागिता करने के लिए युवाओं-विद्यार्थियों को किया आह्वान
  • अभाविप नीत डूसू का संघर्ष लाया रंग,दिल्ली विश्वविद्यालय ने छात्रों को चौथे वर्ष में प्रवेश देने का लिया निर्णय
  • Another Suicide of a Nepali Student at KIIT is Deeply Distressing: ABVP
  • ABVP creates history in JNUSU Elections: Landslide victory in Joint Secretary post and secures 24 out of 46 councillor posts

rashtriya chhatrashakti

About ChhatraShakti

  • About Us
  • संपादक मंडल
  • राष्ट्रीय अधिवेशन
  • कवर स्टोरी
  • प्रस्ताव
  • खबर
  • परिचर्चा
  • फोटो

Our Work

  • Girls
  • State University Works
  • Central University Works
  • Private University Work

आयाम

  • Think India
  • WOSY
  • Jignasa
  • SHODH
  • SFS
  • Student Experience Interstate Living (SEIL)
  • FarmVision
  • MediVision
  • Student for Development (SFD)
  • AgriVision

ABVP विशेष

  • आंदोलनात्मक
  • प्रतिनिधित्वात्मक
  • रचनात्मक
  • संगठनात्मक
  • सृजनात्मक

अभाविप सार

  • ABVP
  • ABVP Voice
  • अभाविप
  • DUSU
  • JNU
  • RSS
  • विद्यार्थी परिषद

Privacy Policy | Terms & Conditions

Copyright © 2025 Chhatrashakti. All Rights Reserved.

Connect with us:

Facebook X-twitter Instagram Youtube
No Result
View All Result
  • मुख पृष्ठ
  • कवर स्टोरी
  • ABVP विशेष
    • आंदोलनात्मक
    • प्रतिनिधित्वात्मक
    • रचनात्मक
    • संगठनात्मक
    • सृजनात्मक
  • लेख
  • पत्रिका
  • सब्सक्रिप्शन
  • आयाम
    • Think India
    • WOSY
    • Jignasa
    • SHODH
    • SFS
    • Student Experience Interstate Living (SEIL)
    • FarmaVision
    • MediVision
    • Student for Development (SFD)
    • AgriVision
  • WORK
    • Girls
    • State University Works
    • Central University Works
    • Private University Work
  • खबर
  • परिचर्चा
  • फोटो

© 2025 Chhatra Shakti| All Rights Reserved.