Thursday, May 15, 2025
No Result
View All Result
Rashtriya Chhatra Shakti
  • मुख पृष्ठ
  • कवर स्टोरी
  • ABVP विशेष
    • आंदोलनात्मक
    • प्रतिनिधित्वात्मक
    • रचनात्मक
    • संगठनात्मक
    • सृजनात्मक
  • लेख
  • पत्रिका
  • सब्सक्रिप्शन
  • आयाम
    • Think India
    • WOSY
    • Jignasa
    • SHODH
    • SFS
    • Student Experience Interstate Living (SEIL)
    • FarmaVision
    • MediVision
    • Student for Development (SFD)
    • AgriVision
  • WORK
    • Girls
    • State University Works
    • Central University Works
    • Private University Work
  • खबर
  • परिचर्चा
  • फोटो
Rashtriya Chhatra Shakti
  • मुख पृष्ठ
  • कवर स्टोरी
  • ABVP विशेष
    • आंदोलनात्मक
    • प्रतिनिधित्वात्मक
    • रचनात्मक
    • संगठनात्मक
    • सृजनात्मक
  • लेख
  • पत्रिका
  • सब्सक्रिप्शन
  • आयाम
    • Think India
    • WOSY
    • Jignasa
    • SHODH
    • SFS
    • Student Experience Interstate Living (SEIL)
    • FarmaVision
    • MediVision
    • Student for Development (SFD)
    • AgriVision
  • WORK
    • Girls
    • State University Works
    • Central University Works
    • Private University Work
  • खबर
  • परिचर्चा
  • फोटो
No Result
View All Result
Rashtriya Chhatra Shakti
No Result
View All Result
Home लेख

पंडित दीनदयाल उपाध्याय और एकात्म मानव-दर्शन

अजीत कुमार सिंह by प्रो. रसाल सिंह
September 25, 2020
in लेख
pt.-deen-dayal-upadhyay-jee

pt. deen dayal upadhyaya jee

सहृदयता, बुद्धिमता, सक्रियता एवं अध्यवसायी वृत्ति वाले पंडित दीनदयाल उपाध्याय एक व्यक्ति नहीं, अपितु एक विचार और जीवन-शैली हैं। भारत और भारतीयता उनके जीवन और चिंतन का आवृत्त हैI राष्ट्रसेवा को सर्वोपरि मानने वाले और राष्ट्र एवं समाज के प्रति आजीवन समर्पित रहने वाले पंडित जी ने अपने मौलिक चिंतन से राष्ट्र-जीवन को प्रेरित और प्रभावित कियाI वे ‘राष्ट्रधर्म प्रकाशन’ के संस्थापक एवं ‘राष्ट्रधर्म’, ‘पांचजन्य’, ‘दैनिक स्वदेश’ व ‘तरुण भारत’ जैसी राष्ट्रवादी पत्रिकाओं के प्रेरणास्रोत भी रहे हैं। भारतीय समाज-जीवन को सुखी, संपन्न एवं मंगलकारी बनाने के निमित्त उन्होंने ‘एकात्म मानव-दर्शन’ व ‘अन्त्योदय’ की अद्भुत संकल्पना प्रस्तुत की। पंडित दीनदयाल उपाध्याय भारत के सबसे तेजस्वी, तपस्वी एवं यशस्वी चिंतक रहे हैं। उनके चिंतन के मूल में लोकमंगल एवं राष्ट्र-कल्याण का भाव समाहित है। उन्होंने राष्ट्र को धर्म, अध्यात्म एवं संस्कृति का सनातन पुंज बताते हुए राजनीति की नयी व्याख्या की। वह गाँधी, तिलक एवं सुभाष की परंपरा के वाहक थे। वह दलगत एवं सत्ता की राजनीति से ऊपर उठकर वास्तव में एक ऐसे राजनीतिक दर्शन को विकसित करना चाहते थे जो भारत की प्रकृति एवं परंपरा के अनुकूल हो एवं राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति करने में समर्थ हो। अपनी व्याख्या को उन्होंने ‘एकात्म मानववाद’ का नाम दियाI एक ओर उन्होंने जहाँ समाजवाद, मार्क्सवाद एवं पूँजीवाद सरीखे अभारतीय विचारधाराओं को भारतीय चिंतन-परंपरा, भारतीय दृष्टिकोण एवं भारतीय जीवन-शैली के सर्वथा प्रतिकूल माना है। उन्हें अस्वीकार किया है। वहीं, दूसरी ओर भारतीय मानस के अनुकूल ‘एकात्म मानव-दर्शन’ व ‘अन्त्योदय’ की संकल्पना प्रस्तुत कर ‘भारत को भारत की दृष्टि से’ देखने-समझने का एक सार्थक सूत्र भी दिया है। पंडित जी का यह दर्शन अपनी संपूर्णता में मानव-जीवन को संतुलित, सुखी, संपन्न व आनंदमय बनाने का सूत्र प्रस्तुत करता है। इसमें संयमित उपभोग,अर्थायाम, अन्त्योदय, सृष्टि, व्यष्टि, समष्टि, परमेष्टि एवं ‘पुरुषार्थ चतुष्ट्य’ जैसे सूत्रों का प्रणयन किया गया है। ये सर्वथा दुर्लभ एवं अनिवार्य सूत्र हैं। ये सूत्र हमें मानव-मात्र के सम्यक मूल्याङ्कन की दिशा प्रदान करते हैं। कदाचित् अभारतीय विचारधाराओं के अनुशीलन से हमें यह दिशा प्राप्त नहीं हो सकती।

‘वसुधैव कुटुम्बकं’ की मान्यता से अनुप्राणित उनका चिंतन ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ भाव-साधना का सिद्धांत हैI उन्होंने राजनीतिक लोकतंत्र के साथ-साथ सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र की प्रस्तावना करते हुए बताया कि ये अन्यान्योश्रित हैंI वे उत्पादन में वृद्धि,उपभोग में संयम और वितरण में समानता के पक्षधर थेI व्यष्टि,समष्टि, सृष्टि और परमेष्टि की एकात्मता और शरीर,मन, बुद्धि और आत्मा के उन्नयन की चिंता उनका मूल ध्येय है I अभारतीय विचारधाराओं में मानव-मात्र को टुकड़ों में बाँट कर देखने की पद्धति अपनायी गई है। अतः वहाँ सम्यक मूल्याङ्कन का कोई अवकाश नहीं होता। दीनदयाल जी का स्पष्ट मत है कि एकांगी होकर मनुष्य को केवल ‘आर्थिक प्राणी’ के रूप में देखने की परंपरा नितांत अभारतीय है। इससे मानव-सभ्यता के विकास के उन लक्ष्यों को प्राप्त नहीं किया जा सकता, जो किसी राष्ट्र को ‘परम वैभव’ तक पहुँचाने में सहायक सिद्ध होते हैं। उनकी दृष्टि में मनुष्य को सर्वप्रथम ‘मनुष्य’ ही माना जाना चाहिए। उसकी समस्त आवश्यकताओं, उसके जीवन के सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक व आर्थिक आयामों को ध्यान में रखकर चिंतन करते हुए संतुलित-विकास के पथ पर निरंतर आगे बढ़ना चाहिए। पंडित जी सदैव इस बिंदु को रेखांकित करते थे कि समाजवाद, साम्यवाद एवं पूँजीवाद जैसी अभारतीय विचारणाएँ व्यक्ति के एकांगी विकास को महत्त्व देती हैं। तथापि व्यक्ति की समस्त आवश्यकताओं एवं उसके जीवन के विविध  आयामों का मूल्याङ्कन किये बिना कोई भी दर्शन या विचार भारत व भारतीय समाज-जीवन के विकास के अनुकूल नहीं हो सकता। अतः पाश्चात्य वैचारिक दिग्भ्रमिता से भारतीय जनमानस को सचेत रहना चाहिए। यही कारण है कि उन्होंने अपने चिंतन-मनन में भारत की मूल आत्मा को ध्यान में रखा है। भारतीय समाज-जीवन के अनुकूल विशुद्ध भारतीय चिंतन के रूप में ‘एकात्म मानव-दर्शन’ की संकल्पना प्रस्तुत की है।

भारत में स्वाधीनता के सत्तर वर्षों के पश्चात् भी आज एक तिहाई जनता स्वास्थ्य, शिक्षा एवं सम्मान आदि अपनी मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित है। विगत कई दशकों में सत्ता के माध्यम से अनेक अभारतीय विचारधाराएँ भारत में आरोपित की गईं हैं। किंतु भारतीय समाज की स्थिति सुखद एवं स्वस्थ होने के स्थान पर अधिक दुखद एवं समस्याग्रस्त होती चली गई है। इसका कारण क्या है? इसे समझना आवश्यक है। पाश्चात्य विचारधाराएँ मूलतः ‘उपभोगवाद’ पर आधारित हैं। ऐसी विचारधाराओं का क्रियान्वयन कर भारत में उपलब्ध अपार प्राकृतिक संसाधनों का असंतुलित व असंयमित उपभोग किया जाता रहा है। इसके कारण कुछ भौतिक विकास तो अवश्य हुआ है, किंतु साथ ही अनेक प्रकार की समस्याएँ व्यक्ति के जीवन को संकटग्रस्त बना चुकी हैं। पर्यावरण असंतुलन इनमें से सर्वाधिक गंभीर संकट है। आज विश्व समुदाय द्वारा पर्यावरण संकट से निपटने के लिए अनेक विचार-गोष्ठियाँ और सम्मेलन आयोजित किये जा रहे हैं। किंतु इन सबका परिणाम शून्य ही है। कदाचित् ‘उपभोगकेन्द्रित’ विचारधाराओं ने समाज को अराजकता की स्थिति में धकेल दिया है। समाज निरंतर बिखर रहा है। सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों का विघटन चरम पर है। ‘परिवार’ एवं ‘विवाह’ जैसी पारंपरिक एवं महत्त्वपूर्ण सामाजिक संस्थाएँ क्रमशः टूट रही हैं। बच्चे ‘क्रेच’, तो बुजुर्ग माता-पिता ‘वृद्ध आश्रम’ में रहने को विवश हैं। मनुष्य के अंतःकरण में एक भिन्न प्रकार की उद्विग्नता एवं असंयम की स्थिति उत्पन्न हो चुकी है। शीघ्र-अति-शीघ्र सफलता एवं समृद्धि प्राप्त कर लेने की कामना लोगों का स्थायीभाव बन चुकी है। दीनदयाल जी को इस प्रकार की अनेक समस्याओं का पूर्व-बोध था। उन्होंने समाज-जीवन में उत्पन्न होने वाले ऐसे संकटों की परिकल्पना अपने समय में ही कर ली थी। वे इन सबके प्रति सावधान एवं सचेत थे। यही कारण है कि उन्होंने भारतीय समाज-जीवन के सर्वथा अनुकूल प्रमाणित होने वाले ‘एकात्म मानव-दर्शन’ की संकल्पना प्रस्तुत की। इसके द्वारा भारतीय समाज के ऐसे तमाम संकटों के समाधान का मार्ग प्रस्तुत किया। दीनदयाल जी भारतीय चिंतकों में अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। इसका कारण यह है कि उनके सारग्रही चिंतन-दर्शन में भारतीय चिंतन-परंपरा का सार और सर्वश्रेष्ठ है। वैदिक चिंतन से लेकर स्वामी विवेकाननद, गुरुवर रवीन्द्रनाथ टैगोर,महामना पंडित मदनमोहन मालवीय,महात्मा फूले, महात्मा गांधी, डॉ. हेडगेवार, श्री गुरूजी, वीर सावरकर और डॉ. अम्बेडकर के चिंतन से दीनदयाल जी ने अपने ‘एकात्म मानव-दर्शन’ को समृद्ध किया  है।

दीनदयाल जी भारत की ‘चिति’ और ‘विराट’ को अपने चिंतन-मनन के केंद्र में रखते हैं। भारतीय समाज-जीवन की समस्याओं के मूल्यांकन एवं उनके हल के लिए भारतीय ‘चित्तवृत्तियों’ से अनुप्राणित दर्शन के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं हो सकता। यही कारण है कि डॉ. महेश चन्द्र शर्मा ने दीनदयाल जी के विचारों का अध्ययन करते हुए इसकी प्रासंगिकता पर बल दिया है। वे लिखते हैं- “स्वतंत्रता के तुरंत बाद जब देश का राजनीतिक व बौद्धिक जगत पाश्चात्य विचारों से पूरी तरह आच्छादित था। राजनेता भारतीय परंपरा के ऋषि व्यक्तित्व महात्मा गांधी को भुलाते जा रहे थे। राजनीति लोकमान्य तिलक, श्री अरविंद व स्वामी विवेकानंद की विचार परंपरा से अपना नाता तोड़ रही थी। स्वतंत्रता-संग्राम व भारतीय पुनर्जागरण की विभूतियाँ राजनीति में प्रतिबिंबित नहीं हो रही थीं। राजनीतिक दल पाश्चात्य विचारों से अभिभूत हुए जा रहे थे, तब पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने हस्तक्षेप करते हुए भारतीय प्रज्ञा को झकझोरा तथा आह्वान किया कि हम विदेशी परिस्थिति एवं विदेशी चित्त में उत्पन्न विचारों का अध्ययन तो करें, किंतु स्वतंत्र भारत की विचारधारा का स्रोत तो भारतीय चित्त ही होना चाहिए। दीनदयाल जी के इसी आग्रह को सामान्य भावबोध के स्तर पर उतारने के अनेक प्रयत्न आज भारत में किए जा रहे हैं। अनेक तपस्वी विचारक पंडित जी के चिंतन-मनन को जन-जन तक पहुँचाने हेतु सक्रिय हैं। परमपूजनीय डॉ. हेडगेवार एवं दीनदयाल जी के सपनों को साकार करने के लिए भारत की वर्तमान राजनीतिक सत्ता भी उनके दर्शन से अनुप्राणित होकर भारतीय समाज-जीवन एवं राजनीति को एक नया आयाम दे रही है। यह भारत के उज्ज्वल एवं सुखद भविष्य का शुभ संकेत है।

दीनदयाल जी ने भारतीय संस्कृति को ‘खंडित संस्कृति’ नहीं, अपितु ‘एकात्मवादी संस्कृति’ माना है। उनकी दृष्टि में “भारतीय संस्कृति की पहली विशेषता यह है कि वह संपूर्ण जीवन का, संपूर्ण सृष्टि का संकलित विचार करती है। उसका दृष्टिकोण एकात्मवादी है। टुकड़े-टुकड़े में विचार करना विशेषज्ञ की दृष्टि से ठीक हो सकता है, परंतु व्यावहारिक दृष्टि से उपयुक्त नहीं। पश्चिम की समस्या का मुख्य कारण उनका जीवन के संबंध में खंडशः विचार करना तथा फिर उन सबको थेगली लगाकर जोड़ने का प्रयत्न है।” विकेन्द्रित विचारों की केन्द्रीयता ही सार्वजनिक जीवन की सहजता का दर्शन है। दीनदयाल जी इस दर्शन से भली-भांति परिचित थे। यही कारण है कि उन्होंने ‘एकात्म-दर्शन’ की अनिवार्यता पर बल दिया है। कई अभारतीय चिंतक भारतीय जनमानस को पुरातनपंथी एवं परंपरावादी कह कर पिछड़ा हुआ एवं आधुनिक मूल्यों से असंपृक्त मानने की भूल करते हैं। पंडित जी ने उन्हें सटीक उत्तर भी दिया है। भारतीय जनमानस को उसकी सही दिशा एवं क्षमता का स्मरण भी कराया है। उन्होंने लिखा है कि “हम अतीत के गौरव से अनुप्राणित हैं, परंतु उसको भारत के राष्ट्र-जीवन का सर्वोच्च बिंदु नहीं मानते हैं। हम वर्त्तमान के प्रति यथार्थवादी हैं, किंतु उससे बंधे नहीं हैं। हमारी आँखों में भविष्य के स्वर्णिम स्वप्न हैं, किंतु हम निद्रालु नहीं हैं, बल्कि उन स्वप्नों को सच करने वाले कर्मयोगी हैं। अनादि, अतीत, अस्थिर, वर्त्तमान एवं चिरंतन भविष्य की कालजयी संस्कृति के हम पुजारी हैं। विजय का विश्वास, तपस्या का निश्चय लेकर चलें।” इस प्रकार दीनदयाल जी ने अभारतीय चिंतकों एवं विचारधाराओं द्वारा भारत में आरोपित की जाने वाली एकांगिकता, कालबाध्यता तथा निहित स्वार्थपरता सरीखी संक्रमित धारणाओं एवं षड्यंत्रों के प्रति भारतीय जनमानस को सचेत किया है। साथ ही पारंपरिक श्रेष्ठता के नाम पर ‘यथास्थितवाद’ बनाए रखने वाली सांस्कृतिक बुद्धि का भी निषेध किया है। उनकी स्पष्ट धारणा है कि हमें अपनी प्राचीन संस्कृति का विचार अवश्य करना चाहिए। किंतु हम इस बात के प्रति भी सचेत रहें कि हम पुरातत्ववेत्ता नहीं हैं। हमारा ध्येय अपनी संस्कृति का संरक्षण करना ही नहीं, अपितु उसे गति देकर सजीव व सक्षम बनाए रखना भी होना चाहिए। हमें अपनी रूढ़ियाँ समाप्त करनी चाहिए। अपनी कमियों की परख कर उनमें सुधार करना चाहिए। सामाजिक जीवन में मौजूद भेदभाव, छुआछूत एवं अस्पृश्यता जैसी विभेदकारी धारणाओं को तोड़ना चाहिए। हमें प्रत्येक मनुष्य से सबसे पहले मनुष्य के रूप में जुड़ना चाहिए। क्योंकि सांस्कृतिक एकता एवं राष्ट्र की एकता के लिए उपरोक्त विभेदकारी विचार सर्वथा घातक हैं।

‘संस्कृति’ शब्द अपने आप में ‘एकात्म’ का अर्थ ध्वनित करती है। कदाचित्, इसीलिए दीनदयाल जी ने भारतीय संस्कृति को ‘एकात्मवादी’ कहा है। वे लिखते हैं-“सृष्टि की विभिन्न सत्ताओं तथा जीवन के विभिन्न अंगों के दृश्य-भेद स्वीकार करते हुए वह उनके अंतर में एकता की खोज कर उनमें समन्वय की स्थापना करती है। परस्पर विरोध एवं संघर्ष के स्थान पर वह परस्परावलंबन, पूरकता, अनुकूलता एवं सहयोग के आधार पर सृष्टि की क्रियाओं का विचार करती है। वह एकांगी न होकर सर्वांगीण है। उसका दृष्टिकोण सांप्रदायिक अथवा वर्गवादी न होकर सर्वात्मक एवं सर्वोत्कर्षवादी है। एकात्मकता उसकी धुरी है।” अनेक भारतीय वांग्मयकारों ने समय-समय पर इस ‘एकात्मकता’ को एक ‘मूल्य’ के रूप में स्थापित करते हुए इस विचार को आत्मसात करने पर बल दिया है। मानव-जीवन को सहज एवं आनंदमय बनाने के लिए अपने आत्म का विस्तार करना आवश्यक है। अपने आत्म का विस्तार करके ही हम सर्वात्मक एवं सर्वोत्कर्षवादी हो सकते हैं। करुणा का भाव जब मनुष्य के जीवन का सार तत्व बन जाता है, तभी वह ममस्य एवं परस्य के बंधन से मुक्त होकर सुख एवं आनंद का अनुभव कर पाता है।

ऐसी स्थिति में ही वह अपने ‘अहं’ की सत्ता को ‘वयं’ की सत्ता में बदल देता है। दीनदयाल जी का संस्कार-निर्माण ऐसे वैदिक वांग्मय के अनुशीलन से ही हुआ था। वे पश्चिमी समाज की त्रासद स्थितियों से भी अनभिज्ञ न थे। वे लिखते हैं -“व्यष्टि एवं समष्टि के बीच संघर्ष की कल्पना कर दोनों में से किसी एक को प्रमुख एवं संपूर्ण क्रियाओं का अंतिम लक्ष्य मानकर पश्चिम में अनेक विचारधाराओं का जन्म हुआ है। किन्तु दृश्य व्यक्ति अदृश्य समष्टि का भी प्रतिनिधित्व करता है। ‘अहं’ के साथ ‘वयं’ की सत्ता भी प्रत्येक ‘अहं’ के द्वारा जीती है। प्रत्येक ‘इकाई’ में समुदाय की प्रवृत्ति परिलक्षित होती है। व्यक्ति ही समष्टि के उपकरण हैं, उसके ज्ञान तंतु हैं।” इस प्रकार दीनदयाल जी ने व्यष्टि एवं समष्टि के बीच के समीकरण को स्पष्ट किया। मानव जाति की संकटग्रस्त स्थितियों को सामने रखा। पश्चिम के समाज में मनुष्य के जीवन की त्रासदी का कारण यह है कि वहाँ व्यष्टि एवं समष्टि, ज्ञान एवं क्रिया के बीच संतुलन को महत्त्व नहीं दिया गया है। यही कारण है कि विकसित होने के बावजूद वहाँ के समाज-जीवन में अस्थिरता की स्थिति लगातार बनी रही है। भारत में भी कुछ राजनीतिक दुराग्रहों के कारण उत्पन्न वैचारिक दिग्भ्रमिता व अंधानुकरण से ऐसी त्रासद स्थितियाँ उत्पन्न होती रही हैंI यही कारण है कि वे अपने दर्शन-चिंतन में व्यष्टि एवं समष्टि, ज्ञान एवं क्रिया, शरीर, मन, बुद्धि एवं आत्मा के बीच के संतुलन एवं सामंजस्य पर बल देते हैं। वे व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के सूत्र को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि “व्यक्ति शरीर, मन, बुद्धि एवं आत्मा का समुच्चय है। व्यक्ति के सर्वांगीण विकास में चारों का ध्यान रखना होगा। चारों की भूख मिटाए बिना व्यक्ति न तो सुख का अनुभव एवं न अपने व्यक्तित्व का विकास कर सकता है। भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों प्रकार की उन्नति आवश्यक है। आजीविका के साधन, शांति, ज्ञान एवं तादात्म्य भाव से ये भूखें मिटती हैं। सर्वांगीण विकास की कामना ही व्यक्ति को समाज-हित में कार्य की प्रेरणा देती है।” इसके साथ ही पुरुषार्थ चतुष्ट्य को महत्त्व देते हुए वे कहते हैं कि “व्यक्ति के विकास एवं समाज के हित का संपादन करने के उद्देश्य से धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष इन चार पुरुषार्थों की कल्पना की गई है। धर्म, अर्थ एवं काम एक-दूसरे के पूरक एवं पोषक हैं। मनुष्य की प्रेरणा का स्रोत तथा उसके कार्यों का मापक किसी एक को ही मानकर चलना अधूरा होगा।” आज अभारतीय विचारधाराओं के आरोपण एवं पश्चिम के अंधानुकरण के कारण भारतीय मानस इन सबके मध्य के संतुलन एवं सामंजस्य को तोड़ता हुआ केवल भौतिक एवं शारीरिक सुख-भोगी बनने की होड़ में हांफ रहा है। यह भारतीय समाज-जीवन के लिए गंभीर चिंता का विषय है।

मनुष्य के जीवन की अनिवार्य आवश्यकताएँ क्या हैं? इनकी आवश्यकता एवं पूर्ति के बीच सामंजस्य स्थापित करना क्यों आवश्यक है? दीनदयाल जी ने ऐसे महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर भी विचार किया है। उनकी दृष्टि में धर्म, अर्थ एवं काम की पूर्ति व इनके सामंजस्य से मोक्ष की प्राप्ति ही मनुष्य जीवन की अनिवार्य आवश्यकताएँ हैं। इनमें से किसी एक के प्रति भी विशेष आग्रह या असंतुलन व्यक्ति के जीवन को समस्याग्रस्त बना सकता है। उनके अनुसार, “उपनिषद् में तो स्पष्ट शब्दों में कहा है कि ‘नाsयमात्मा बलहीनेन लभ्यः’—-दुर्बल (व्यक्ति) आत्मा का साक्षात्कार नहीं कर सकता। इसी प्रकार की सूक्ति है कि ‘शरीरमाद्यम खलु धर्मसाधनम’—-अर्थात् शरीर धर्म का प्रधान साधन है। दूसरे लोगों से हमारा यही अंतर है कि उन्होंने शरीर को साध्य माना है, परन्तु हमने उसे साधन समझा है। इस नाते से हमने शरीर का विचार किया है। जितनी भौतिक आवश्यकताएँ हैं, उनकी पूर्ति का महत्त्व हमने माना है, परन्तु उन्हें सर्वस्व नहीं माना। मनुष्य के शरीर, मन, बुद्धि एवं आत्मा की आवश्यकताओं की पूर्ति, उसकी विविध कामनाओं, इच्छाओं तथा ऐषाणाओं की संतुष्टि एवं उसके सर्वांगीण विकास की दृष्टि से व्यक्ति के सामने कर्त्तव्य के रूप में हमारे यहाँ चतुर्विध पुरुषार्थ की कल्पना रखी गई है।” स्पष्ट है कि दीनदयाल जी व्यक्ति को केवल शरीर के रूप में देखने के पक्षधर नहीं हैं। उनके लिए शरीर एक साधन मात्र है, जबकि साध्य है—-मोक्ष की प्राप्ति। जहाँ व्यक्ति चरम आनंद का साक्षात्कार करता है। यहाँ पहुँचने से पूर्व वह निष्काम भाव से भौतिक आकर्षण एवं असंयमित उपभोग की आकांक्षा से मुक्त हो जाता है।

वास्तव में, इन चारों पुरुषार्थों में दीनदयाल जी ‘धर्म’ को आधारभूत पुरुषार्थ मानते हैं। ‘धर्म’ चारों पुरुषार्थों में आधारभूत पुरुषार्थ इसलिए है, क्योंकि वह उस व्यवस्था को जन्म देता है जो लोकमंगल का विधान करने में सहायक होती है। धर्म की धारणा व्यक्ति एवं समाज का उत्थान करती है। वह व्यष्टि एवं समष्टि के बीच संबंध कायम करने का मार्ग प्रशस्त करती है। धर्म परमेष्टि की आकांक्षा रखने वाले व्यक्ति को ‘साधनावस्था’ में ले जाता है। दीनदयाल जी के चिंतन की पृष्ठभूमि ऐसे महान साहित्य व साहित्यकारों के अनुशीलन से निर्मित हुई है। इसीलिए वह कहते हैं कि ‘धर्म’ चारों पुरुषार्थों में आधारभूत पुरुषार्थ है। किंतु वे आगाह भी करते हैं कि धर्म को महत्त्व देते समय हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ‘अर्थ के अभाव’ में धर्म टिक नहीं पाता। इस संदर्भ में पंडित जी “ ‘बुभुक्षितः किं न करोति पापं, क्षीणा नराः निष्करुणः भवन्ति,’ अर्थात् भूखा सब पाप कर सकता है” का उदहारण सामने रखते हैं।

इसके साथ ही वे सावधान करते हैं कि ‘अर्थ के प्रभाव’ से भी व्यक्ति का धर्म संकट में पड़ सकता है। ‘अर्थ का अभाव’ व ‘अर्थ का प्रभाव’ दोनों ही धर्म के लिए घातक सिद्ध हो सकते हैं। यहाँ ‘अर्थ के प्रभाव’ को समझना आवश्यक है। पंडित जी लिखते हैं कि अर्थ के “प्रभाव का अभिप्राय आधिक्यमात्र नहीं है। जब व्यक्ति और समाज में अर्थ साधन न रहकर साध्य बन जाए तथा जीवन की सभी विभूतियाँ अर्थ से ही प्राप्त हों, तो वहाँ अर्थ का प्रभाव उत्पन्न हो जाता है और वह अर्थ संचय के लिए नानाविध पाप करता है। इसी प्रकार जिस व्यक्ति के पास अधिक धन हो, उसके विलासी बन जाने की संभावना बनी रहती है। जहाँ व्यक्ति को अर्थ के सदुपयोग का ज्ञान नहीं होता, वहाँ भी अर्थ का प्रभाव होता है। जहाँ ‘गौण अर्थ’ अर्थात् मुद्रा तथा उपभोक्ता वस्तुओं के लिए लगनेवाली उत्पादक वस्तुओं का आधिक्य हो, वहाँ भी अर्थ का प्रभाव होता है।”  दीनदयाल जी व्यक्ति को इन सभी प्रकार के ‘अर्थ के प्रभावों’ से सचेत रहने व बचने की सलाह देते हैं। इसके लिए ‘अर्थायाम’ की आवश्यकता पर बल देते हैं। क्योंकि अर्थ के उत्पादन, विनिमय एवं योगक्षेम को व्यवस्थित करने के लिए ‘अर्थायाम’ अनिवार्य है। किंतु यह तभी संभव है जब व्यक्ति में उसके बाल्यावस्था से ही औचित्यपूर्ण शिक्षा-दीक्षा, ज्ञान व संस्कार का बीजारोपण किया जाए। इनके द्वारा समाज में दैवी संपदायुक्त प्रेरक व्यक्तित्वों का निर्माण किया जाए। अर्थव्यवस्था का उपयुक्त, प्रभावी व संतुलित ढाँचा खड़ा किया जाए। इस प्रकार ‘एकात्म मानव-दर्शन’ में पंडित जी ने ‘धर्म’ तथा ‘अर्थ’ के बीच के संबंधों तथा संतुलन को व्याख्यायित किया है। ‘अर्थ द्वारा अनर्थ की संभावनाओं’ पर गंभीर चिंता व्यक्त की है।

‘धर्म’ तथा ‘अर्थ’ के पश्चात् ‘धर्म’ एवं ‘काम’ के बीच के संबंध-सूत्रों व इनके संतुलन-असंतुलन के प्रभावों-दुष्प्रभावों को भी दीनदयाल जी ने इस दर्शन में व्याख्यायित किया है। आनंदमय जीवन व्यतीत करने के निमित्त शेष दो पुरुषार्थों सहित ‘काम’ रूपी पुरुषार्थ भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। किंतु उनकी दृष्टि में इसका आधार भी धर्मसम्मत होना चाहिए। इन तीनों का सामंजस्य एवं संतुलन ही चतुर्थ पुरुषार्थ अर्थात् ‘मोक्ष’ का मार्ग प्रशस्त करता है। इनके सामंजस्य एवं संतुलन से ही व्यक्ति अपने जीवन को आनंदमय बना सकता है। वहाँ व्यक्ति कहीं ‘धार्मिक’ व्यक्ति है, तो कहीं ‘आर्थिक’। कहीं ‘कामुक’ व्यक्ति है, तो कहीं ‘साधक’। पश्चिम का व्यक्ति ‘संपूर्ण-व्यक्ति’ नहीं है, जिसमें इन चारों पुरुषार्थों की उपस्थिति एक साथ हो। व्यक्ति वहाँ टुकड़ों में विभाजित है। यही कारण है कि भौतिक विकास के पश्चात् भी वहाँ मनुष्य का जीवन अवसादग्रस्त बना रहा है। भारत में भी ऐसी विचारधाराओं के प्रति एक आकर्षण उत्पन्न करने की होड़ निरंतर दिखती रही है। कदाचित् इस होड़ पर अंकुश लगाने के निमित्त पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने ‘एकात्म मानव-दर्शन’ के भीतर इन चारों पुरुषार्थों के महत्त्व को रेखांकित किया है। संयमित उपभोग एवं संतुलित जीवन का एक विकल्प हमारे सामने रखा है। फलतः पंडित जी द्वारा प्रणीत ‘एकात्म मानव-दर्शन’ का अनुशीलन और अनुपालन वर्त्तमान परिवेश में अत्यंत अनिवार्य एवं प्रासंगिक हो जाता है।

ऐसा इसलिए है, क्योंकि दीनदयाल जी अपने पूरे चिंतन में बारंबार इस विचार पर बल देते हैं कि “मानव केवल एक व्यक्ति मात्र नहीं है। शरीर, मन, बुद्धि एवं आत्मा का समुच्चय है। व्यक्ति केवल एकवचन ‘मैं’ तक सीमित नहीं, उसका बहुवचन ‘हम’ से भी अभिन्न संबंध रखता है। अतः हमें समाज व समष्टि का विचार करना होगा।” वास्तव में, दीनदयाल जी व्यष्टि एवं समष्टि या कहें कि व्यक्ति एवं समाज को एक-दूसरे की सापेक्षता में देखने के आग्रही हैं। यह विचार पश्चिम के दार्शनिक-विचारों से सर्वथा भिन्न है। उनकी दृष्टि में “मानव न केवल व्यक्ति है, मानव न केवल समाज है, वरन मानव व्यक्ति एवं समाज की एकात्मता में से पैदा होता है। व्यक्ति एवं समाज को बाँट दें तो मानव मर जाता है। अस्तित्व में ही नहीं आता। व्यष्टि एवं समष्टि एकात्म इकाई है। इस एकात्म इकाई का नाम मानव हैI इसलिए मानव को सुखी करना है तो व्यक्तिवादी होकर नहीं कर सकते, क्योंकि व्यक्तिवादी समाज की उपेक्षा करता है। समाजवादी होकर भी नहीं कर सकते, क्योंकि समाजवाद व्यक्ति के व्यक्तित्व को कुचल देता है।” स्पष्ट है कि व्यष्टि से समष्टि एवं परमेष्टि  तक पहुँचने की मनुष्य की यात्रा अलग-अलग खण्डों में विभाजित नहीं है। उसे अलग-अलग घेरे हुए नहीं है। यह एक-दूसरे से पूर्णतः असंबद्ध नहीं है। वह एक ही केंद्र से निसृत समग्र जीवन में सातत्य के साथ प्रवाहमान कहीं पर भी खंडित न होने वाला आवृत है। ‘एकात्म मानव-दर्शन’ व्यष्टि, समष्टि,सृष्टि व परमेष्टि तक की इसी यात्रा, इसी संबद्धता, मानव-जीवन की इसी समग्रता, इसी सातत्य व प्रवाह एवं इसी आवृत को समझने का सहज-सूत्र है।

‘एकात्म मानव-दर्शन’ की संकल्पना दीनदयाल जी के चिंतन का फलक बहुत व्यापक एवं सुगठित है। वे एक साथ व्यक्ति, समाज, राजनीति, धर्म, राष्ट्र आदि न जाने कितने विषयों पर विचार करते हैं। किंतु प्रत्येक जगह उनके विचारों में एक सह-संबंध, पारस्परिकता एवं नयापन परिलक्षित होता है। समाज के विषय में वे लिखते हैं कि “….समाज ‘स्वयंभू’ है। जिस प्रकार व्यक्ति पैदा होता है, उसी प्रकार समाज भी पैदा होता है। व्यक्ति मिलकर कभी समाज को नहीं बनाते। ……वास्तव में समाज तो एक ऐसी सत्ता है, जिसकी अपनी आत्मा है, जिसका अपना एक जीवन है, इसलिए यह भी उसी प्रकार से जीवमान सत्ता है, जैसे मनुष्य जीवमान सत्ता।” वास्तव में, यह समाज की भौतिक व्याख्या नहीं, अपितु तात्विक व्याख्या है। इसलिए यहाँ समाज को पश्चिम के ‘द्वंद्वात्मक भौतिकवाद’ के सूत्र के आधार पर स्पष्ट नहीं किया जा सकता। ‘राष्ट्र’ पर चिंतन करते हुए पंडित जी ने लिखा है कि किसी “राष्ट्र का अस्तित्व उसके नागरिकों के जीवन का ध्येयभूत आधार है। जब एक मानव-समुदाय के समक्ष एक व्रत, विचार या आदर्श रहता है एवं वह समुदाय किसी भूमि विशेष को मातृभाव से देखता है तो वह राष्ट्र कहलाता है। इनमें से एक का भी अभाव रहा तो राष्ट्र नहीं बनेगा।” स्पष्ट है कि भारतीय चिंतन परंपरा में ‘राष्ट्र’ केवल भौतिक सीमाओं पर आधारित भौगोलिक इकाई या भौतिक सरणि नहीं है। इसका संबंध समानधर्मी, समनादर्शी एवं समानुभूति पर आधारित सामूहिक समभाव से है। यही कारण है कि पंडित जी ‘राष्ट्र’ की ऐसी परिकल्पना कर ‘भू-सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ को महत्त्व देते हैं। ‘भू-सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ की विचार- सरणि को मानने वाला प्रत्येक व्यक्ति समान व्रती, सामान दर्शन व सामान मूल्यों को मानने वाला होता है। कश्मीर  से कन्याकुमारी तक, कच्छ से कामरूप तक प्रत्येक भारतीय एक-दूसरे से ‘एकात्म-भाव’ से जुड़ा हुआ है। भले ही उसकी भाषा अलग हो, संस्कृति अलग हो, रहन-सहन अलग हो, पंथ-संप्रदाय अलग हो—-किंतु वह संपूर्ण भारत-भूमि के कण-कण को पवित्र मनाता है। सबके हित की कामना करता है।

इतना ही नहीं, समान व्रत, समान दर्शन, समान मूल्यों को मानने वाले व्यक्ति संसार में जहाँ भी उपस्थित हैं, वे सभी इस भारत-भूमि, इस राष्ट्र के समभाव एवं संकल्पना में समाहित हैं। इस प्रकार दीनदयाल जी की ‘राष्ट्र’ की संकल्पना व ‘भू-सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ की विचार-प्रणाली भी संपूर्णता एवं सामूहिकता की भावना से अनुप्राणित है। यह दृष्टि पश्चिम की ‘नेशन’ एवं ‘नेशनलिज्म’ अर्थात ‘राष्ट्र’ एवं ‘राष्ट्रवाद’ की दृष्टि से सर्वथा भिन्न है। वे ‘एकात्म मानव-दर्शन’ के तहत ‘राष्ट्र’ की भी तात्विक व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। उनके अनुसार, “राष्ट्र की भी एक आत्मा होती है। उसका एक शास्त्रीय नाम है। इसे ‘चिति’ कहा गया है।” इस प्रकार दीनदयाल जी ‘राष्ट्र’ की संकल्पना में व्यक्ति को एक साधन के रूप में देखते हैं। व्यक्ति स्वयं के अतिरिक्त अपने राष्ट्र का भी प्रतिनिधित्व करता है। स्पष्ट है कि दीनदयाल जी द्वारा प्रस्तावित ‘एकात्म मानव-दर्शन’ एक वायवीय विचार नहीं है, बल्कि एक कालजयी सिद्धांत है।

(लेखक जम्मू केन्द्रीय विश्वविद्यालय के छात्र कल्याण अधिष्ठाता हैं।)

 

Tags: abvpBJPdeen dayal upadhyaypt. deen dayal upadhyayrss
No Result
View All Result

Archives

Recent Posts

  • ऑपरेशन सिंदूर’ के तहत भारतीय सेना द्वारा आतंकियों के ठिकानों पर हमला सराहनीय व वंदनीय: अभाविप
  • अभाविप ने ‘सिविल डिफेंस मॉक ड्रिल’ में सहभागिता करने के लिए युवाओं-विद्यार्थियों को किया आह्वान
  • अभाविप नीत डूसू का संघर्ष लाया रंग,दिल्ली विश्वविद्यालय ने छात्रों को चौथे वर्ष में प्रवेश देने का लिया निर्णय
  • Another Suicide of a Nepali Student at KIIT is Deeply Distressing: ABVP
  • ABVP creates history in JNUSU Elections: Landslide victory in Joint Secretary post and secures 24 out of 46 councillor posts

rashtriya chhatrashakti

About ChhatraShakti

  • About Us
  • संपादक मंडल
  • राष्ट्रीय अधिवेशन
  • कवर स्टोरी
  • प्रस्ताव
  • खबर
  • परिचर्चा
  • फोटो

Our Work

  • Girls
  • State University Works
  • Central University Works
  • Private University Work

आयाम

  • Think India
  • WOSY
  • Jignasa
  • SHODH
  • SFS
  • Student Experience Interstate Living (SEIL)
  • FarmVision
  • MediVision
  • Student for Development (SFD)
  • AgriVision

ABVP विशेष

  • आंदोलनात्मक
  • प्रतिनिधित्वात्मक
  • रचनात्मक
  • संगठनात्मक
  • सृजनात्मक

अभाविप सार

  • ABVP
  • ABVP Voice
  • अभाविप
  • DUSU
  • JNU
  • RSS
  • विद्यार्थी परिषद

Privacy Policy | Terms & Conditions

Copyright © 2025 Chhatrashakti. All Rights Reserved.

Connect with us:

Facebook X-twitter Instagram Youtube
No Result
View All Result
  • मुख पृष्ठ
  • कवर स्टोरी
  • ABVP विशेष
    • आंदोलनात्मक
    • प्रतिनिधित्वात्मक
    • रचनात्मक
    • संगठनात्मक
    • सृजनात्मक
  • लेख
  • पत्रिका
  • सब्सक्रिप्शन
  • आयाम
    • Think India
    • WOSY
    • Jignasa
    • SHODH
    • SFS
    • Student Experience Interstate Living (SEIL)
    • FarmaVision
    • MediVision
    • Student for Development (SFD)
    • AgriVision
  • WORK
    • Girls
    • State University Works
    • Central University Works
    • Private University Work
  • खबर
  • परिचर्चा
  • फोटो

© 2025 Chhatra Shakti| All Rights Reserved.