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देशज चिंतन से सभी समस्याओं का समाधान ढूंढने वाले पं. दीनदयाल उपाध्याय जी

डॉ प्रवेश कुमार

भारत के महान चिंतन परम्परा को  विदेशियों के द्वारा धूमिल कर दिया गया हैं ,यही  भारत की अवनिति का मुख्य कारण हैं । भारत के  सभी समस्याओं का समाधान भारतीय चिंतन तथा संस्कृति में ही निहित  हैं, कहीं अन्यत्र  नहीं । दीनदयाल जी कहते हैं की  “हमारी राष्ट्रीयता का आधार भारत माता हैं, केवल भारत ही नहीं । “भारतमाता” शब्द से अगर “माता” को अलग कर दिया जाए तो भारत केवल एक ज़मीन के टुकड़े के अलावे और कुछ नहीं हैं”।

पंडित दीनदयाल जी के द्वारा भारत तथा दुनिया को दिए गये ज्ञान को वर्षों तक छिपाया गया परंतु पिछले कुछ वर्षों में बौद्धिक जगत को दीनदयाल के चिंतन ने ना सिर्फ़ प्रभावित किया बल्कि उनके सामने ये प्रश्न भी खड़ा किया की राजनीतिक अस्पृश्यता (Political Untoucbality) के कारण हमने कितने महान चिंतक  के विचारों को भारत के  बौद्धिक दायरे से अलग-थलग कर रखा है। यह सच है की दीनदयाल जी का चिंतन देशज चिंतन था, जिसे आज़ादी के बाद की बनी सरकारों के हुक्मरानो ने सिर्फ़ इस लिए अपने से दूर रखा क्योंकि पंडित जी उनके दल उनके विचार से सहमत नहीं थे, राजनीतिक अस्पृश्यता का जीता जागता उदाहरण इसे कहा जा सकता हैं।

बाबा साहब अम्बेडकर ने भी अपने जीवन में सभी प्रकार की राजनीतिक अस्पृश्यता को नकार दिया था, पंडित जी भी कहते हैं की लोकतंत्र में सभी को एक दूसरे के विचार को सुनना और सम्मान करना चाहिए।  इसीलिए दीनदयाल जी द्वारा सभी दलो से संवाद  हो इसका उन्होंने सदैव समर्थन किया परंतु आज़ादी के बाद बनी सरकार ने विदेशी ज़मीन से आयातित विचार को अपने देश के संरचना में फ़िट ( समाहित ) करने की कोशिश की जिसका नकरात्मक परिणाम हम आज भी भोग रहे हैं ।

दीनदयाल जी का मानना था की कोई भी प्रतिमान उस देश की काल और परिस्थिति के अनुसार होना चाहिए, ना की कहीं का कहीं फ़िट ( समाहित )  कर दिया जाए। दीनदयाल जी ‘साम्यवाद’ को काग़ज़ी और अव्यवहरिक सिद्धांत के रूप में देखते थे। उनके अनुसार, भारतीय परिप्रेक्ष्य में यह विचार न तो भारतीयता के अनुरुप है और ना ही व्यवहरिक ही है।

दीनदयाल जी के अनुसार, भारत के दर्शन को चलाने के लिए भारतीय दर्शन ही कारगर वैचारिक उपकरण हो सकता हैं। चाहे राजनीति का प्रश्न हो या अर्थव्यवस्था का प्रश्न हो, उन्होंने मानव मात्र के साथ जुड़े लगभग प्रत्येक प्रश्न की समाधानयुक्त विवेचना अपने वैचारिक लेखों में की है। पंडित दीनदयाल जी के अनुसार, शासन का उद्देश्य “अंत्योदय” की परिकल्पना के अनुरूप होना चाहिए।

एकात्मक मानववाद ( integral humanism ) का उद्देश्य “स्वदेशी सामाजिक-आर्थिक प्रतिमान” है, जिसमें विकास के केंद्र में मानव है। पंडित जी कहते थे, लोकतंत्र की अवधारणा पश्चिम की नहीं बल्कि ये भारत के द्वारा दुनिया को दिया गया हैं। भारत की राज्य अवधारणा प्राचीनतम लोकतंत्रवादी हैं। वे कहते हैं “वैदिक सभा और समिति का गठन जनतंत्रिय आधार पर ही होता था तथा मध्यकालीन काल खंड में अनेक गणराज्य पूर्णत: जनतंत्रीय थे । राजतंत्रीय व्यवस्था में भी हमने राजा को मर्यादाओं में जकड़कर प्रजानुरागी ही नहीं , प्रजा अनुगामी भी माना हैं।

दीनदयाल जी ने लोकतंत्र की भारतीय अवधारणा को दुनिया के सामने रखने का कार्य किया। लोकतंत्र की असली आत्मा उसके स्वरूप में नहीं, वरन जनता की उम्मीदों को सही रूप से प्रतिबिम्बित करने की भावना में हैं। जनतंत्र किसी बाहरी ढाँचे पर निर्भर नहीं रहता। सर्वभोमिक वयस्क मताधिकार तथा निर्वाचन पद्धति जनतंत्र के बहुत बड़े अभिन्न अंग हैं,परंतु सिर्फ़ इन्ही से जनतंत्र की स्थापना नहीं हो जाती हैं, मताधिकार और निर्वाचन के साथ एक भावना भी जनतंत्र के लिए आवश्यक हैं।  पंडित जी के अनुसार, केवल बहुमत का शासन ही लोकतंत्र नहीं हैं, ऐसे तंत्र में तो जनता में एक तबक़ा ऐसा हमेशा रहेगा जिसकी आवाज़ चाहे वह सही ही क्यों ना हो, वह दबा ही दी जाएगी। जनतंत्र का ये स्वरूप ‘सर्वजन सुखाय, सर्वजन हिताय’ नहीं हो सकता। उन्होने भारतीय जनतंत्र की कल्पना में निर्वाचन, बहुमत, अल्पमत आदि बाहरी व्यवस्थाओं के स्थान पर सभी मतों के सामंजस्य और समन्वय पर बल दिया।

दीनदयाल जी कहते हैं:- “अखंड भारत देश की भौगोलिक एकता का ही परिचायक नहीं अपितु जीवन के भारतीय दृष्टिकोण का घोतक है, जो अनेकता में एकता का दर्शन कराता हैं। अंत: हमारे लिए अखंड भारत कोई राजनीतिक नारा नहीं हैं बल्कि यह तो हमारे सम्पूर्ण जीवन दर्शन का मूल आधार हैं।

दीनदयाल जी के व्यवहारिक चिंतन  का प्रमाण इस बात से प्रदर्शित होता हैं की जब वे भारत की अखंडता बनाए रखने के लिए विदेश नीति पर बात करते हैं तो एक तेज़, प्रखर राजनेता की तरह हो जाते हैं। जब वे विदेश नीति की बात करते हैं तो उनके चिंतन में कोटिल्या के मंडल सिद्धांत प्रतिबिम्बित होता हैं। पंडित जी वैसे तो बहुत आदर्शवादी, सिद्धांतवादी थे परंतु भारत और दुनिया के साथ संबंधो की दृष्टि में वह अधिक व्यवहरिक भी थे।

किसी राष्ट्र की विदेश नीति उस देश के राष्ट्रहितों को केंद्र में रखकर बनाई जाती हैं इसका अर्थ यह हैं की राष्ट्र हित किसी भी देश की विदेश नीति का “प्राण” होती हैं। वो इसको मानते हुए कहते हैं की  “किसी भी देश की परराष्ट्र नीति (foriegn policy), राष्ट्र के प्रकट स्वार्थ की सिद्धि के एकमेव उद्देश्य से तैयार की जानी चाहिए। उसे यथार्थवादी ही होना चाहिए और उसे विश्व की पार्थिव प्रकृति को ध्यान में रखना चाहिए”।

पंडित जी ने अपने चिंतन के केंद्र में सदैव समाज को रखा हैं तथा  उन्होंने माना की राज्य से पहले समाज अस्तित्व में आया हैं,  इस समाज का संचालन धर्म के अनुसार होता था जहाँ सभी धर्मानुसार आचरण करते थे कोई किसी को कष्ट  नहीं पहुँचाता था, सभी “समरस भाव” से रहते थे। परंतु जब समाज में लोभ आया, मेरा-तेरा का विचार आया तब समाज में अधर्म हुआ तथा लोगों में एक – दूसरे के प्रति वैमनयस्ता , द्वेश पैदा हुआ जिसने आपस में संघर्ष  पैदा किया इसके परिणाम स्वरूप राज्य और दंड का उद्धभव हुआ । दीनदयाल जी कहते हैं “राज्य का निर्माण हमारे यहाँ सामाजिक समझोते के अनुसार हुआ , प्रारम्भ में राजा नहीं थे । महाभारत में वर्णन हैं की कृतयुग में ना राज्य था, ना राजा, ना दण्ड था, ना दण्ड देने वाला, सब प्रजा धर्म के आधार पर एक दूसरे की रक्षा करते थे।”

राज्य की उत्पति समाज में व्यक्तियों के भीतर पैदा हुई विकृत्यो का परिणाम हैं जब समाज अपने नियत पुरुषार्थों (धर्म,अर्थ,काम,मोक्ष) से अलग हुआ तो समाज में अव्यवस्था स्थापित हो गई जिसके परिणाम स्वरूप समाज में कुछ लोगों ने इस अव्यवस्था से मुक्ति प्राप्त करने हेतु आपस में समझौता करके अपने में से ही किसी को राजा चुना और उसके हाथ में दण्ड देने का अधिकार सौंप दिया, ये ही वो पल था जहाँ से राजा और राज्य का उद्भभव हुआ।

भारत में राज्य का उद्भव समाज में धर्म को स्थापित करने हेतु ही किया गया, पश्चिमी चिंतन में राज्यों  का उद्भव सम्पति  और अधिकारो के संरक्षण के साथ जुड़ा था । इसलिए हाब्स  ,लॉक ,रूसो अपने सामाजिक समझौता सिद्धांत में राज्य की स्थपाना को लोगों के अधिकारो के संरक्षक से जोड़ते हैं, उनके यहाँ का समाज एक कबिलाई  समाज था जहाँ पर “मत्स्य न्याय” था  जबकि हमारे यहाँ “धर्म का राज” था । धर्म के  नष्ट होने के परिणम स्वरूप राज्य की स्थापना हुई हैं। दीनदयाल कहते हैं “राज्य ,समाज द्वारा अपनी आवश्यकता पूर्ति के लिए बनाई गई एक संस्था है”।

दीनदयाल जी का एकात्मक मानव दर्शन का अर्थ हैं, मानव जीवन तथा सम्पूर्ण प्रकृति के एकात्म संबंधो का दर्शन। एकात्म मानव दर्शन व्यक्ति जीवन और उसके सभी अँगो को ध्यान में रखते हुए संकलित विचार करता हैं । एकत्म मानव दर्शन सोचने की एकात्मकता और समग्र दृष्टि के साथ जुडा हैं उनका मानना है की  चिंतन टुकड़ों में नहीं समग्रता में होना चाहिए।

जिस प्रकार से मनुष्य शरीर मन,बुद्धि और आत्मा का संकलित रूप हैं । इस लिए मानव का सर्वगीण विचार उसके शरीर ,मन बुद्धि और आत्मा का संकलित विचार हैं । व्यक्तित्व के इन चारों पक्षों के समुचित आवश्यकता को पूरा करने तथा उनकी विविध माँगे और इच्छा – अंकाँछाओ को पूर्ण करने और कर्तव्यों का  सर्वागिण विकास करने के लिए भारतीय संस्कृति ने व्यक्ति के सामने  चार पुरुषार्थों का आदर्श रखा हैं । यह व्यक्ति के व्यक्तित्व को  सर्वागिण विकास की ओर अभिप्रेरित करती  हैं जिससे समाज की सुयोग्य धारणा का विकास हो सके । भारत के चिंतन में धर्म ,अर्थ ,काम और अंत में मौक्ष का विचार हैं। ये ही जीवन के चार पुरुषार्थ भी हैं , धर्म से मोक्ष की और बढ़ने का क्रम हैं , व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य भोगवादी ना होकर त्याग और तपस्या से प्रभु भक्ति करते हुए मौक्ष की प्राप्ति करना करना हैं । अर्थ और काम दोनो को धर्म के अनुसार करना चाहिए । हमारे चिंतन में धर्म सबसे ऊपर हैं और व्यक्ति को इसी के अनुसार आचरण करना चाहिए। दीनदयाल जी ये भी कहते हैं की अगर धर्म के नाम पर कोई विकृत परंपरा संचालित हो रही हैं तो  उसे तत्काल छोड़ देना चाहिए ।

दीनदयाल जी अपने चिंतन में बहुत सहज थे। उनका कहना था की  जो अच्छा हैं उसको ग्रहित कर लेना चाहिए और जो समयानकुल नहीं हैं उसको त्याग देना चाहिए ।अतः हम पाते है कि जब आज आदर्श एवं लोकाभिमुख राजनैतिक विचार लगभग राजनीतिक परिदृश्य से गायब होते जा रहे हैं, ऐसे में दीनदयाल जी के विचार की प्रासंगिकता और बढ़ गई है, ताकि लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को अधिक से अधिक जन-उन्मुख बनाया जा सके तथा उनकी भारतीय दर्शन के संरक्षण तथा संवर्धन और अंत्योदय जैसी संकल्पना को मूर्तरूप प्रदान कर सके ।

(लेखक, जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक हैं।)

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