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माटी का लाल: लाल बहादुर शास्त्री – एक अनुकरणीय जीवन

अजीत कुमार सिंह by प्रो0 राजीव सिजरिया
October 2, 2020
in लेख
माटी का लाल: लाल बहादुर शास्त्री – एक अनुकरणीय जीवन

shastri ji

पूर्व प्रधानमन्त्री श्री लाल बहादुर शास्त्री की जयन्ती विशेष

भारत जैसे प्रचुर मानव सम्पदा वाले देश में जहाँ अनेकों ऐसे उदाहरण मिलते रहे हैं, जब समाज के बेहद साधारण वर्ग से अपने जीवन की शुरूआत करके किसी ने देश के सबसे बड़े पद को प्राप्त किया है। चाहे वर्तमान प्रधानमन्त्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी हों या देश के दूसरे प्रधानमन्त्री श्री लाल बहादुर शास्त्री जी, जिन्होंने 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में ‘जय जवान-जय किसान’ का नारा दिया, दोनों ने ही सार्वजनिक जीवन में श्रेष्ठता के जो प्रतिमान स्थापित किए हैं, उसके बहुत कम उदाहरण मिलते हैं।

अनुकरणीय जीवन का आधार बचपन में मिले संस्कार एवं आदतों से बन जाता है, जो समय के साथ विराट व्यक्तित्व में परिवर्तित हो जाता है। 2 अक्टूबर 1904 को उ.प्र. के मुगलसराय में कायस्थ परिवार में जन्में छोटे कद के, साधारण जीवन शैली को अपनाने वाले श्री लाल बहादुर जी का लालन-पोषण अपने मामा के यहाँ हुआ। उनके पिता जी ने जब संसार को छोड़ा तब लाल बहादुर जी अल्पायु के ही थे। बचपन से ही मितव्ययता, सादगी, कठोर परिश्रम, दृढ़ता, ईमानदारी आदि अनेक सद्गुण आपमें कूट-कूट कर भरे थे।

जातिवादी व्यवस्था से किनारा

शास्त्री जी ने बचपन से ही जातिवादी व्यवस्था को न मानते हुए अपने कायस्थ सरनेम का उपयोग नहीं किया। जब उन्हें काशी विद्यापीठ से शास्त्री की उपाधि मिली, तब से उन्होंने अपने नाम के बाद ‘शास्त्री’ लिखना प्रारम्भ किया।

प्रखर राष्ट्रवादी

16 वर्ष की आयु में महात्मा गाँधी के आह्वान पर असहयोग आंदोलन से जुड़े, देश के स्वाधीनता आन्दोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया एवं जेल भी गए। ‘राष्ट्र प्रथम’ का भाव उनमें था। जब 1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय देश में खाद्यान्न संकट उत्पन्न हुआ तो उन्होंने प्रधानमंत्री रहते हुए अपने स्वयं के उदाहरण से देशवासियों से सप्ताह में एक दिन का उपवास रखने का आह्वान किया।

दूरद्रष्टा नेता

शास्त्री जी दूरद्रष्टा नेता थे, उन्होंने खाद्यान्न संकट के दूरगामी परिणामों के दृष्टिगत तात्कालिक उपाय अपनाने के बजाय स्थायी उपाय अपनाने पर जोर दिया। देश में हरित क्रान्ति का बीज आपकी ही प्रेरणा से पढ़ा एवं देश खाद्यान्न संकट से बाहर निकल सका। आपने ‘आत्मनिर्भर भारत’ के सिद्धान्त को अपनाया एवं अमेरिका के दबाव के आगे न झुकते हुए खाद्यान्न के आयात के संकट का सामना किया एवं अमेरिका द्वारा युद्ध बंद करने के दबाव को नहीं माना।

सादा जीवन-उच्च विचार

वह  दहेज प्रथा के विरोधी एवं विलासिता जीवन शैली को देश की व्यवस्था के प्रतिकूल मानते थे। साधारण कपड़े पहनना, बहुत ही सीमित आवश्यकताओं में जीवन व्यतीत करना, अभावों में रहते हुए भी प्रभावपूर्ण सार्वजनिक जीवन जीने की कला हमारे युवाओं को उनके जीवन से सीखना चाहिए।

ईमानदारी

सार्वजनिक जीवन में शुचिता- प्रधानमंत्री रहते हुए कभी सरकारी सुविधाओं का लाभ निजी कार्य हेतु नहीं लेना, सरकारी कार निजी/पारिवारिक उपयोग में नहीं लाना, पारिवारिकजनों को अनुचित लाभ न मिलने पाए इसको सुनिश्चित करना, यह उनके स्वभाव में था। एक समय जब उन्हें लगा कि उनके अपने पुत्र को अनुचित तरीके से प्रोन्नति दी गयी है तो उन्होंने उस निर्णय को परिवर्तित करा दिया। रेलमंत्री रहते हुए रेल दुर्घटना की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए उन्होंने त्याग-पत्र दे दिया। ऐसे अनेकों उदाहरण उनके सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी एवं शुचिता के प्रति उनके निश्चय को दर्शाते हैं।

अनेकों बार मंत्री एवं बाद में प्रधानमन्त्री रहने के बाद भी उनकी मृत्यु के बाद उनकी सम्पत्ति में मात्र कुछ किताबें आदि ही थीं। शास्त्री जी ने पूरे जीवनकाल में बच्चों के आग्रह पर एक कार ही खरीद सके थे वह भी बैंक से ऋण लेकर। अपने जीवनकाल में कार का ऋण भी पूरा जमा नहीं करा सके, जिसे उनकी मृत्यु के बाद उनकी पेंशन से उनकी पत्नी ने चुकता किया।

दृढ़ता

भारत-पाक युद्ध के दौरान उनकी दृढ़ता एवं कुशल नेतृत्व की आज भी भूरि-भूरि प्रशंसा होती है। पाकिस्तान द्वारा हमला करने पर उन्होंने कहा कि पाकिस्तानी सेना के हमले का जवाब हमारी भारतीय सेना ही देगी। ताशकंद समझौते की पृष्ठभूमि भी यही थी कि वो मानते थे जब युद्ध थोपा गया तो हमने पूरी ताकत से युद्ध किया एवं जीत हासिल की किन्तु भविष्य की शांति के प्रयास भी उतनी ही ताकत से करना चाहिए।

अनुशासन

समयवद्ध जीवनचर्या, अनुशासन के कठिन मापदण्ड शास्त्री जी को अनुकरणीय व्यक्तित्व बनाते हैं। शास्त्री जी को किसी यात्रा पर अपने बेटे के साथ जाना था, जो 5 मिनट देरी से पहुँचे किन्तु वो नियत समय पर अपने बेटे को छोड़कर अकेले ही चल दिए थे।

छोटे कद के व्यक्ति के बड़े फैसले- भारतीय सेना के पश्चिमी कमान के तत्कालीन प्रमुख जनरल ‘हरबख्श सिंह’ के अनुसार- युद्ध का सबसे बड़ा फैसला (भारतीय फौज लाहौर तक बढ़ेगी) सबसे छोटे कद के व्यक्ति ने लिया।

जब ताशकंद में अयूब पर भारी पड़े शास्त्री जी

26 सितम्बर, 1965 को भारत के प्रधानमन्त्री लाल बहादुर शास्त्री जब दिल्ली के रामलीला मैदान पर हज़ारों लोगों को संबोधित कर रहे थे तो वो कुछ ज्यादा ही प्रफुल्लित मूड में थेः

शास्त्री ने कहा था ‘‘सदर अयूब ने ऐलान किया था कि वो दिल्ली तक चहलकदमी करते हुए पहुँच जाएँगे, वो इतने बड़े आदमी हैं, लहीम शहीम हैं, मैंने सोचा कि उनको दिल्ली तक पैदल चलने की तकलीफ क्यों दी जाए, हम ही लाहौर की तरफ बढ़ कर उनका इस्तेकबाल करें।’’

ये शास्त्री नहीं, 1965 के युद्ध के बाद भारतीय नेतृत्व का आत्मविश्वास बोल रहा था। ये वही शास्त्री थे जिनके नाटे कद और आवाज का अयूब खाँ ने मखौल उड़ाया था।

शास्त्री जी को कमजोर समझने वालों को झटका

पाकिस्तान में भारत के पूर्व उच्चायुक्त शंकर बाजपेई याद करते हैं, ‘‘अयूब ने सोचना शुरू कर दिया था कि हिन्दुस्तान कमजोर है। एक तो लड़ना नहीं जानते हैं और दूसरे राजनीतिक नेतृत्व बहुत कमजोर है। वो दिल्ली आने वाले थे लेकिन नेहरू के निधन के बाद उन्होंने यह कह कर अपनी दिल्ली यात्रा रद्द कर दी कि अब किससे बात करें। शास्त्री ने कहा आप मत आइए हम आ जाएंगे। यही नहीं अयूब से सबसे बड़ी गलती तब हुई जब उन्होंने ये अनुमान लगाया कि कश्मीर पर हमले के बाद भारत अंतर्राष्ट्रीय सीमा नहीं पार करेगा।

भारतीय सैनिकों ने लाहौर की तरफ बढ़ना शुरू किया

अयूब पर किताब लिखने वाले अलताफ़ गौहर लिखते हैं ‘‘दिल्ली में पाकिस्तान के उच्चायुक्त मियाँ अरशद हुसैन ने तुर्किश दूतावास के ज़रिए पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय को एक कूट संदेश भिजवाया कि भारत-पाकिस्तान पर 6 सितम्बर को जवाबी हमला करने वाला है। 6 सितम्बर की सुबह 4 बजे भारतीय सैनिकों ने लाहौर की तरफ बढ़ना शुरू कर दिया था एवं पाकिस्तानी सेना पर प्रभावी बढ़त हासिल कर ली थी। दूसरी तरफ लड़ाई के बाद लाल बहादुर शास्त्री की छवि काफी बेहतर हो गई। खासकर ये देखते हुए कि देश अभी भी नेहरू की मौत से उबरने की कोशिश कर रहा था और उनको भारत और उनकी खुद की पार्टी में एक कामचलाऊ व्यवस्था के तौर पर ही देखा जा रहा था।

स्वदेश के प्रति स्वाभिमान

उनके बेटे अनिल शास्त्री याद करते हैं ‘‘लड़ाई के दौरान उस समय अमेरिका के राष्ट्रपति लिंडन जाॅनसन ने शास्त्री जी को धमकी दी थी कि अगर आपने पाकिस्तान के खिलाफ लड़ाई बंद नहीं की तो हम आपको पीएल 480 के तहत जो लाल गेहूँ भेजते हैं, वो बंद कर देंगे। उस समय हमारे देश में इतना गेहूँ नहीं पैदा होता था। शास्त्री जी को ये बात बहुत चुभी क्योंकि वो एक स्वाभिमानी व्यक्ति थे।’’

इसके बाद ही शास्त्री ने देशवासियों से कहा कि हम हफ्ते में एक समय भोजन नहीं करेंगे। इसकी वजह से अमेरिका से आने वाले गेहूँ की आपूर्ति हो जाएगी।

अनिल शास्त्री याद करते हैं ‘‘लेकिन उस अपील से पहले उन्होंने मेरी माँ ललिता शास्त्री से कहा कि क्या आप ऐसा कर सकती हैं कि आज शाम खाना न बने। मैं कल देशवासियों से एक वक्त का खाना न खाने की अपील करने जा रहा हूँ। मैं देखना चाहता हूँ कि मेरे बच्चे भूखे रह सकते हैं या नहीं। जब उन्होंने देख लिया कि हम लोग एक वक्त बिना खाने के रह सकते हैं तब उन्होंने देशवासियों से भी ऐसा करने के लिए कहा।

आह्वान

श्री लाल बहादुर शास्त्री जी के जीवन से युवा प्रेरणा लें एवं उनके विराट व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं को अपने जीवन में उतारें। ईमानदारी, कर्मठता, दृढ़ता, देशभक्ति, राष्ट्रीय स्वाभिमान, सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता एवं शुचिता, निर्णय क्षमता जैसे सद्गुणों को अवश्य ही अपनाया जाना चाहिए। यह तभी सम्भव है जब उनकी जन्म जयंती 2 अक्टूबर को मात्र ‘गाँधी जयन्ती’ के रूप में ही न मनायें अपितु उतना ही महत्व ‘शास्त्री जयंती’ को भी मिले। इस हेतु हमारे युवा अभियान ले सकते हैं। शास्त्री जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को सोशल मीडिया के माध्यम से जनमानस तक पहुँचाने का हम सभी संकल्प लें तो उचित रहेगा।

‘जय जवान-जय किसान’

(लेखक अभाविप मेरठ प्रांत के प्रदेश संपर्क प्रमुख हैं।)

Tags: jai jawan - jai kisanlal bahadur shastrishstri ji
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