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मध्यकालीन दशगुरु परम्परा के उन्नायक श्री नानक देव जी का चिन्तन व विरासत

महाभारत के युद्ध को हुए पाँच हज़ार साल से भी ज़्यादा हो गए हैं । यह युद्ध जिसे धर्म और अधर्म के बीच युद्ध कहा जाता है , पंजाब की धरती पर ही कुरुक्षेत्र के मैदानों में हुआ था । युद्ध शुरु होने से पहले का श्रीकृष्ण का एक लम्बा व्यकतव्य मिलता है जो गीता के नाम से जगत में प्रसिद्ध है । इस व्यक्तव्य में कृष्ण ने कहा है –

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिभर्वति भारत ।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।। 4-7)

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।

धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ।। 4-8

गुरु नानक देव जी के जन्म के अवसर को भाई गुरदास ने भी चित्रित करते हुए लिखा है –

सुणी पुकारि दातार प्रभु गुरु नानक जग माहि पठाइआ ।

चरन धोइ रहरासि करि चरणामृत सिखां पीलाइआ । ( भाई गुरदास, वार-1, पउडी 23)

बाद में नानक देव जी ने स्वयं भी लिखा था कि देश में से धर्म तो मानें पंख लगा कर उड़ गया हो ।

नानक देव वेदी वंश में  पैदा हुए थे , इस वेदी कुल की उत्पत्ति एवं ऐतिहासिकता का वर्णन दशगुरु परम्परा के दशम गुरु श्री गोविन्द सिंह जी ने अपनी आत्मकथा, बिचित्र नाटक में किया है । गोविन्द सिंह जी नानक देव द्वारा स्थापित दशगुरु परम्परा के दशम गुरु थे । वे हिन्दी, पंजाबी, ब्रज भाषा, संस्कृत और फ़ारसी इत्यादि अनेक भाषाओं के ज्ञाता ही नहीं थे बल्कि अनेक विषयों के प्रकांड पंडित भी थे । भारतीय इतिहास की उनकी समझ बहुत गहरी थी । औरंगज़ेब को लिखे जफरनामा में इसके प्रमाण मिलते हैं । नानक वंश को जानने समझने के लिए गोविन्द सिंह की आत्मकथा सबसे प्रामाणिक और महत्वपूर्ण स्रोत कही जा सकती है ।  गोविन्द सिंह जी सूर्यवंश की पृष्ठभूमि का उल्लेख करते हैं ।

बनता कद्रू दिति अदिति ए रिख बरी बनाइ ।। ( बिचित्र नाटक 2-18)

महर्षि कश्यप की चार पत्नियाँ थीं । वनिता, कद्रू, दिति और अदिति । अदिति के पुत्रों से सूर्यवंश शुरु हुआ । इसी वंश में राजा रघु हुए । रघु के पुत्र का नाम अज था । अज का पुत्र दशरथ था । दशरथ के चार पुत्र हुए । राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न । राम के दो सुपुत्र थे । राम के सुपुत्र लव ने लाहौर शहर की स्थापना की और उनके दूसरे पुत्र कुश ने क़सूर नगर की स्थापना की । कालान्तर में लव के वंश में कालराय और कुश के वंश में कालकेत नाम के राजा हुए । दोनों वंशों में झगड़ा शुरु हो गया । क़सूर नरेश कालकेतु जीत गया और लाहौर नरेश कालराय पराजित हो गया । कालराय भाग कर सनौढ देश को चला गया । वर्तमान काल का मथुरा भरतपुर क्षेत्र उन दिनों सनौढ कहलाता था । सनौढ के राजा ने अपनी पुत्री का विवाह कालराय से कर दिया । कालराय के पुत्र का नाम सोढीराय था ।   उसने अनेक वर्षों तक सनौढ प्रदेश पर राज किया और उसी के नाम से वंश का नाम भी सोढी पड़ गया । लेकिन लव के पौत्र-प्रपौत्र यह भूल नहीं पाए थे कि कसूरवालों ने उन्हें पराजित कर लाहौर से भगाया हुआ है । उसी पराजय का बदला लेने के लिए सोढीवंशियों ने लाहौर पर हमला कर दिया । लववंशियों और कुशवंशियों  का भयंकर युद्ध हुआ । लववंशी विजयी हुए और कुशवंशी राजा देवराय  पराजित हो गया । कुशवंशी अपने बचे खुचे  योद्धाओं को लेकर  काशीजी को चले गए । वहाँ जाकर उन्होंने वेदों का अध्ययन करना शुरु कर दिया और वे वेदपाठी हो गए । वेदपाठी होने के कारण वे वेदी के नाम से प्रसिद्ध हो गए । गोविन्द सिंह जी ने बिचित्र नाटक में इसका उल्लेख इस प्रकार किया है –

जिनै बेद पट्ठिओ सु बेदी कहाए ।।

तिनै धरम के करम नीके चलाए ।। (4-1)

पंजाब में सोढियों को अपने भाईयों की इस विद्वत्ता का पता चला तो उन्होंने साग्रह सन्देशवाहक भेज कर  उन्हें वापिस पंजाब बुलाया । यह संदेश मिलने पर वेदी वंश के लोग प्रसन्नता पूर्वक पंजाब में आ गए । गोविन्द सिंह लिखते हैं-

सभै बेद पाठी चले मद्र देसं ।।

प्रनामं कीयो आनकै कै नरेसं ।। (4-2)

इन वेदपाठी कुशवंशियों ने सोढी राजा को वेद सुनाए । वेदपाठ सुन कर इतना प्रसन्न हुआ कि उसने अपना राजघाट अपने भाई इन कुशवंशियों को दे दिया और स्वयं राजघाट त्याग कर अरण्यगामी हुए । वेदियों की कई पीढ़ियों ने राज किया । लेकिन धीरे धीरे वेदियों में फूट पड़ गई । लड़ाई झगड़े बढ़ने लगे और धीरे धीरे उनके हाथ से राजघाट खिसकने लगा । अन्त में स्थिति यह हो गई कि वेदियों के पास केवल बीस गाँव बचे । वेदपाठ तो कभी का बन्द हो गया । अब वेदी खेतीबाड़ी का काम करने लगे थे । गोविन्द सिंह लिखते हैं–

बीस गाव तिन के रहि गए ।।

जिन मो करत क्रिसानी भए ।। (5-3)

इसी कालखंड में वेदी वंश में नानक देव जी का जन्म हुआ । गोविन्द सिंह जी लिखते हैं-

तिन बेदीअन की कुल बिखै, प्रगटे नानक राए ।

सब सिखन को सुख दऐ जह तह भए सहाए ।।( 5-4 ) (बिचित्र नाटक के दूसरे अध्याय से लेकर पाँचवे अध्याय तक में वेदी वंश की उत्पत्ति की ऐतिहासिक कथा का वर्णन किया गया है । ज्ञानी नारायण सिंह ने इन प्रसंगों की व्याख्या की है ।)

वेदियों के इस कुल में नानक देव जी का जन्म पश्चिमी पंजाब के तलवंडी (यही तलवंडी गाँव आजकल ननकाना साहिब से जाना  जाता है) नामक ग्राम में विक्रमी सम्वत 1526 के कार्तिक मास की पूर्णिमा को मेहता खत्री परिवार में हुआ था । (कुछ विद्वान उनका जन्म वैशाख मास मानते हैं)  (जनरल सर जोहन जे एच गोरडोन ने अपनी पुस्तक दी सिक्ख में गुरु नानक देव जी को जाट बताया है । इसी प्रकार उसने दशगुरु परम्परा के अन्य सभी गुरुओं को भी जाट ही लिखा है , जो सही नहीं है । पंजाब को जीतने के बाद अनेक अंग्रेज़ नौकरशाहों ने पंजाब के इतिहास व सिक्खों के इतिहास पर अनेक पुस्तकें लिखीं जिनमें तथ्यों की व व्याख्या की इस प्रकार की गल्तियों की भरमार है ।   जनरल सर जोहन जे एच गोरडोन , दी सिक्खज , पृष्ठ 13)  उस समय यह गाँव राय बुलार की तलवंडी कहलाती थी । उनके पिता का नाम कल्याण चन्द मेहता था जो आमतौर पर कालू मेहता के नाम से प्रसिद्ध हैं  । माता का नाम तृप्ता था ।  उनके पिता शासकीय सेवा में पटवारी के पद पर कार्यरत थे । नानक देव जी की एक बड़ी बहन भी थी , जिसका नाम नानकी था ।

नानक देव बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न थे । उनके पिता ने जब उनको कुछ पैसे दिए कि कोई लाभकारी व्यवसाय करो जिसमें चार पैसे का लाभ हो । कोई ऐसा सौदा जिसमें लाभ जरुर हो । वैसे तो सभी व्यवसाय लाभ के लिए ही तो किए जाते हैं । नुक़सान के लिए कौन सौदा करता है ? नानक देव ने भी ऐसा ही सौदा किया । उन्होंने उन पैसों से भूखे साधुओं को भोजन करवा दिया । भूखे साधु तृप्त हुए और नानक को लगा कि सौदे में इससे ज़्यादा और लाभ नहीं हो सकता । वे प्रसन्नता पूर्वक घर आकर पिताजी को इस सच्चा सौदा के बारे में बताने लगे लेकिन पिता को इस सौदे में कोई लाभ नज़र नहीं आया । उनके लिहाज़ में तो पूँजी लुट गई । पिता नानक को घर में बाँधना चाहते थे लेकिन नानक साधु संग घूम रहे थे । इस प्रकार के हालत में हर भारतीय माता पिता के पास इस प्रकार की स्थिति में एक ही रास्ता होता है । नानक देव के पिता ने भी वही रास्ता चुना और नानक देव जी की शादी बटाला में कर दी गई । लेकिन आजीविका का क्या हो ? इस मरहले पर नानक की बड़ी बहन नानकी और उनके पति जयराम आगे आए । वे नानक देव को अपने साथ सुल्तानपुर लोदी ले गए , वहाँ नबाबों दौलत खान के प्रशासन में नौकरी दिलवा दी । नौकरी तो ज़्यादा देर निभ नहीं पाई लेकिन तीन दिन स्थानीय नदी में समा जाने के बाद उन्होंने वह ज्ञान दिया जो कालान्तर में पश्चिमोत्तर भारत में तो एक प्रकार से मूलमंत्र ही बन गया । इक ओंकार सतिनाम । और नबाबों की नौकरी छोड़ कर वे भारत की यात्रा के लिए चल पड़े । उन्होंने अपने जीवन के लगभग पच्चीस साल इन यात्राओं में खपा दिए । सम्पूर्ण भारत को समझने-समझाने  का प्रयास । नानक देव के जीवन के संध्याकालीन में मध्य एशिया के एक बर्बर आक्रमणकारी बाबर ने भारत पर मला किया । नानक देव ने उच्च स्वर से उसका विरोध किया । नानक देव जी ने अपने देहान्त से पहले अपने शिष्य को अंगद नाम देकर अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया । इस प्रकार देश के इतिहास में दशगुरु परम्परा की शुरुआत हुई ।

भारतीय इतिहास के मध्यकाल के भक्ति आन्दोलन में अनेक सम्प्रदाय प्रफुल्लित हुए । लगभग सभी निर्गुण सम्प्रदायों ने एकेश्वरवाद की बात की । जाति पाँति के भेद भाव की केवल निन्दा ही नहीं की बल्कि उसके अपने अपने सम्प्रदाय में व्यवहारिक रूप से नकारा भी । कबीर ने तो इसके लिए अत्यन्त सख़्त भाषा का इस्तेमाल भी किया । ‘जो तू ब्राह्मण ब्राह्मणी जाया’ कबीर का कहा हुआ दोहा ही है । नामदेव, तुकाराम, रविदास , सभी जाति व्यवस्था के ख़िलाफ़ थे । अच्छे कर्म और अच्छे आचरण पर सभी ने ज़ोर दिया । ईश्वर की महिमा सभी ने गाई और सभी ने गुरु की महत्ता पर ज़ोर दिया । रहस्यवादी चेतना भी अनेक आचार्यों और सन्तों में मिल ही जाएगी ।  जैसे नानक देव जी की परम्परा आगे बढ़ी , वैसी अन्य अनेक सन्तों/सम्प्रदायों  की भी आगे बढ़ी । बाक़ी सन्तों और गुरुओं की परम्परा अपने दायरों तक सिमट कर रह गई और उन्हीं रूढ़ियों या कर्मकांडों में फिसल गई जिनके ख़िलाफ़ उन्होंने आवाज़ उठाई थी । लेकिन गुरु नानक जी ने जो परम्परा स्थापित की , वह उस ऐतिहासिक  खालसा पंथ की जन्मदाता बनी और जिसने  भारत से विदेशी मुग़ल- अफ़ग़ान सत्ता को उखाड़ फेंकने में प्रमुख भूमिका ही अदा नहीं कि बल्कि विदेशी इस्लामी शासकों द्वारा चलाए जा रहे मतान्तरण आन्दोलन को भी बहुत सीमा तक रोका । पश्चिमोत्तर भारत के विषय में तो यह बात निश्चय से ही कही जा सकती है । पश्चिमोत्तर भारत या सप्त सिन्धु का अधिकांश हिस्सा मसलन ख़ैबर पख्तूनखवा, बलोचिस्तान , सिन्ध और पश्चिमी पंजाब तो दशगुरु परम्परा के उदय होने से पहले बहुत सीमा तक मतान्तरित हो चुका था और सैयद कलन्दरों व सूफ़ियों के डेरों का अड्डा बन चुका था । गुरु नानक देव जी के उन्नायन से इन सूफ़ियों और सैयद कलन्दरों से संवाद शुरु हुआ । गुरु नानक देव जी की जन्म साथियों में ऐसे अनेकों उदाहरण भरे पड़े हैं । ऐसे सैयद डेरों के चमत्कारों का आतंक उन्होंने ख़त्म किया । गुरु नानक देव जी की समस्या इस्लाम नाम का मज़हब नहीं था । न ही उस मज़हब को मानने वाले मुसलमान थे ।  किसी मज़हब से उनका कोई विवाद नहीं था । यदि हर मज़हब ईश्वर से साक्षात्कार की बात ही करता है तो वह किसी भी तरीक़े से हो सकता है , इसलिए  किसी की भी निन्दा करने की ज़रूरत ही नहीं है । बल्कि गुरु नानक देव ने तो सच्चा मुसलमान कौन हो सकता है , उसकी परिभाषा भी मक्का मदीना में जाकर अरबों को ही समझाई । गुरु नानक देव तो हिन्दुस्तान  में उन मुसलमानों को सम्बोधित कर रहे थे जो विदेशी आक्रमणकारियों के आक्रमणों के कारण किन्हीं कारणों से मतान्तरित हो गए थे । जब वे मुसलमानों को सम्बोधित कर रहे हैं तो वे वास्तव में उन मतान्तरित भारतीय मुसलमानों को ही सम्बोधित कर रहे हैं । यह मानना पड़ेगा कि गुरु नानक देव जी की इस लोक संचारक  प्रंणाली से कुछ सीमा तक पश्चिमोत्तर भारत में मतान्तरण रुका । भारत में इरफ़ान हबीब स्कूल आफ हिस्ट्री के अध्यापक चाहे गुरु नानक देव जी के इस ऐतिहासिक योगदान की चर्चा न करें लेकिन आज पंजाब, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश मतान्तरण से बचा है उसका श्रेय नानक देव के उन्नायन को ही जाता है । उनसे पहले आक्रमणों और अत्याचारों की चक्की में पिस रहा सप्त सिन्धु विवेका में मुसलमान बन रहा था ।”In west Punjab , particularly , whole tribes like , Tiwanas, Sials, Gakhars, Janjuas ets accepted new faith Islam with a view to preserve their social status.”( Fauja Singh, Religio- cultural heritage of the Punjab, from the book , The Sikh Tradition:A continuing reality, edited by Sardar Singh Bhatia and Anand spencer, page 19)

मुग़ल आक्रमण काल में ही साहस पूर्वक बाबरवाणी सुनाने वाले नानक देव पलायनवादी नहीं थे बल्कि यथार्थ के धरातल पर खड़े होकर भविष्य की रणनीति निर्धारित करने वाले कर्मयोद्धा थे । इसलिए गुरु नानक मार्ग की खालसा पंथ में परिणती उसका स्वभाविक विकास था । लेकिन भारतीय दर्शन शास्त्र के भीतरी मर्म को अनजाने में या फिर जानबूझकर कर पकड़ पाने में असमर्थ इतिहासकार , गुरु नानक देव जी से शुरु हुई परम्परा की परिणिती जब खालसा पथ में देखते हैं तो इसे नानक देव के पथ से बिचलन बताना शुरु कर देते हैं । उनके लिहाज़ से यह बिचलन पाँचवे गुरु श्री अर्जुन देव जी से ही शुरु हो गया था और इसकी स्पष्ट गूँज छटे गुरु हरगोविन्द जी में दिखाई पड़ती है , जब उन्होंने मीरी और पीरी की दो तलवारें धारण कीं । सांसारिक कार्यों की साधना के लिए तलवार धारण करना उनकी दृष्टि में नानक के मार्ग से बिचलन है । गोकुल चन्द नारंग ने इसे अंग्रेज़ी भाषा के शब्द ट्रांसफोरमेशन से सम्बोधित किया है ।  ( transformation of Sikhism , Gokul Chand Narang ) लेकिन एक बात ध्यान में रखनी चाहिए , दश गुरु परम्परा के प्रथम गुरु श्री नानक देव जी से लेकर दशम गुरु श्री गोविन्द सिंह जी एक ही वैचारिक परम्परा के वाहक हैं । उस परम्परा में वैचारिक निरन्तरता भी है और कर्म की निरन्तरता भी विद्यमान है । उस परम्परा में विचलन  की तलाश करना , परम्परा को ठीक से न समझ पाने और तत्कालीन भारतीय जनमानस को न पढ़ सकने के कारण ही हो सकती है । इसलिए पंचम गुरु अर्जुन देव जी की शहादत , मीरी पीरी के संकल्प , नवम गुरु श्री तेगबहादुर की शहादत और दशम गुरु द्वारा राष्ट्र और धर्म के लिए सर्वस्व अर्पित कर देने के इतिहास के बीज हमें गुरु नानक देव जी की वाणी और उनकी जीवन यात्रा के प्रसंगों में से ही तलाशने होंगे । गुरु गोविन्द सिंह जी , गुरु नानक देव के सन्देश और परम्परा को ही युगानुकूल बना कर प्रसारित कर रहे थे । एक बात का ध्यान रखना चाहिए , विदेशी इस्लामी राज्य का जो क़ाज़ी सुल्तानपुर लोदी में गुरु नानक देव जी के पीछे पड़ गया था और उन्हें मस्जिद में नमाज़ पढ़ने के लिए राज्यादेश से ले गया था , उसने दशगुरु परम्परा का पीछा दशम गुरु गोविन्द सिंह तक किया और उनके दो सुपुत्रों को सरहिन्द की दीवारों में ज़िन्दा चिनवा कर ही दम लिया । इस्लाम का यह क़ाज़ी दशगुरु परम्परा के उदय काल से ही , उसके पीछे पड़ गया था और यह परम्परा के दशम गुरु तक उसका पीछा करता रहा । यदि इसको हम प्रतीक भी मान लें तो ऐतिहासिक सन्दर्भों में इसका शिनाख्त भारत में इसके आगमन से भी  की जा सकती है , जब यह पहली बार सिन्ध में मोहम्मद बिन क़ासिम के साथ दाख़िल हुआ था । जब हम दशगुरु परम्परा का अध्ययन और मूल्याँकन करते हैं तो हमें इस क़ाज़ी की भूमिका को भी ओझल नहीं होने देना चाहिए ।

खालसा पंथ की स्थापना , गुरु नानक परम्परा द्वारा किया गया ऐतिहासिक चमत्कार ही कहा जाएगा ।  गुरु नानक जी ने भारतीय समाज में यह जो चमत्कार किया , उसका कारण यह है कि उन्होंने सामाजिक जीवन का आध्यात्मिकीकरण किया । यह ठीक है कि नानक देव जी भी अन्तत: परमात्मा से साक्षात्कार की साधना कर रहे थे लेकिन उनके साक्षात्कार का रास्ता हिमालय की कन्दराओं से होकर नहीं जाता था बल्कि उनका रास्ता तो इन्हीं सांसारिक गली मुहल्लों में से होकर गुज़रता था जिसके रास्तों में , कलि काते राजे कसाई बैठे थे और जिनके रास्ते में मध्य एशिया क एक निर्दलीय तुर्क पाप की जंज लेकर भारत पर आक्रमण कर रहा था । जिसने हिन्दुस्तान डराइया हुआ था । गुरु नानक को एक साथ लोभ मोह अहंकार जैसी वृत्तियों को पराजित करने की साधना भी करनी थी और उसके साथ कसाई राजा और पाप की जंज लेकर आक्रमण कर रहे बाबर को परास्त करने का रास्ता भी तलाशना था । इसीलिए सीता राम कोहली  बाबरवाणी को दमन के ख़िलाफ़ प्रथम अभिव्यक्ति मानते हैं  । लेकिन कुछ आधुनिक इतिहासकार इस बात को स्वीकारने को तैयार नहीं हैं कि नानक देव जी की वाणी व कर्मशीलता के सामाजिक सरोकार भी थे । उनके अनुसार नानक देव विशुद्ध रूप से आध्यात्मिक पथ के पथिक थे । गुरतेज सिंह ने ऐसे कुछ उदाहरण विशेष रूप से अपने एक आलेख में उद्धृत किए हैं । इनमें sir Charles Gough, C.H. Payne , John J.H.Gordon , W.L.M. Gregor का विशेष उल्लेख किया जा सकता हे ।  ।” ( Gurtej Singh, Political ideas of guru Nanak, The originator of the Sikh faith, Recent researches in Sikhism, edited by Jasbir Singh Mann and Kharak Singh में संकलित में से उद्धृत, पृष्ठ 68 and 63) ये सभी विदेशी लेखक बिना गुरुवाणी पढ़े यह दावा करते हैं कि नानक देव ने जिस मार्ग का अनुसरण किया था वह विशुद्ध रूप से पार्थिव या रिलिजियस था । उनकी वाणी में कोई राजनैतिक या सामाजिक स्वर नहीं है । लेकिन गुरतेज सिंह इसके साथ ही एक व्यंग्यात्मक टिप्पणी भी करते हैं कि “गुरुवाणी को लेकर इस प्रकार का निष्कर्ष निकालने वाले अधिकांश तथाकथित विद्वान ब्रिटिश साम्राज्य के समर्थक ही हैं । ( गुरतेज सिंह पृष्ठ 63) नानक वाणी का कोई राजनैतिक स्वर है या नहीं , इस पर तो फिर भी दो मत हो सकते हैं लेकिन इसमें कोई बहस नहीं हो सकती कि इन विदेशी लेखकों का यह निष्कर्ष उनके राजनैतिक स्वार्थ साधना की पूर्ति का हिस्सा है । नानक देव तो ये दो दो साधनाएँ एक साथ करते दिखाई देते हैं । लेकिन यह उनकी व्यक्तिगत साधना मात्र नहीं थी बल्कि वे तो भविष्य के भारत का भी साक्षात्कार कर रहे थे । वे भविष्यद्रष्टा भी थे । उन्हें तो एक ऐसी परम्परा स्थापित करनी थी जो उनके बताए रास्ते पर चलकर उनके अधूरे काम को पूरा कर सके । और सचमुच उनकी दशगुरु परम्परा ने यह कर दिखाया । जिस परम्परा ने हिन्दुस्तान को डरा रहे बाबर को देखा था , उसी परम्परा ने ‘हिन्द की चादर’ को पैदा किया । भारतीय संत परम्परा के अध्येता डा० कृष्ण गोपाल का मानना है “गुरु नानक देव के जीवन का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण पहलू, इस्लाम के अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के लिए संघर्ष हेतु वातावरण तैयार करना भी है । श्री गुरु नानक देव ने वह फ़ौलाद तैयार किया है , जिससे आगे चलकर , राष्ट्र और समाज की रक्षा के लिए , इस्लाम की आततायी शक्ति से दीर्घकाल तक संघर्ष करने वाली संत तलवार का निर्माण पंजाब में हुआ । “( कृष्ण गोपाल, भारत की संत परम्परा और सामाजिक समरसता, पृष्ठ 210)

 

( लेखक हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय धर्मशाला के कुलपति हैं )

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