e-Magazine

#JanajatiGauravDiwas : भारत का गौरव है जनजाति समाज जीवन दर्शन

देवेन्द्र पनिका

भारत विविधताओं से भरा देश है, परन्तु उस विविधता में भी एकता का दर्शन करवाने वाली संस्कृति, सभ्यता यहां की विरासत है। भारत की संस्कृति विश्व के कल्याण का संदेश देते हुए भारत वासियों में जीव मात्र के कल्याण के लिए ईश्वरीय प्रार्थना का केन्द्र भी है।भारतवासी अपनी प्रार्थना में विश्व समुदाय के कल्याण, उसके स्वास्थ्य के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते हैं।केवल प्राणी मात्र के सरंक्षण के लिए ही भारतवासी अपनी योग्यता साबित नहीं करते, बल्कि इस समस्त ब्रह्मांड, पृथ्वी, वायु, जल, आकाश, धरती, पर्यावरण, के लिए भी अपने कौशल के माध्यम से, अपने विचारों के आधार पर नए नए कीर्तिमान स्थापित करता है।

भारत के संस्कृति के संरक्षण की बात हो या पर्यावरण के लिए सर्वस्व समर्पित करने के लिए समाजिक पहल,यह कार्य अनादि काल से ही भारत का जनजाति समाज करते आ रहा है। भारत का जनजाति समाज सुख सुविधाओं से, नगरों, महानगरों की बसाहट से स्वयं को दूर रखकर वनों में उनके रक्षा के लिए, उनके संवर्धन के लिए, वन्य जीवों के बीच उन्हें अभय प्रदान करने के लिए, पवित्र नदियों की गोद में अपने आराध्यों की पूजा भक्ति करते हुए सनातन संस्कृति का पालन करते आ रहा है। भारत का जनजाति समाज भारत के लिए सांस्कृतिक और आध्यात्मिक रूप में गौरव का केंद्र रहा है, भारत वैभवशाली देश रहा है, और है।

आज जिस प्रकार हम अपने देश के वास्तविक इतिहास के बारे में अध्ययन करते हैं, तो जानते हैं कि भारत में रहने वाले लोग ज्ञान विज्ञान में विश्व के लिए गुरु थे। विश्व को शिक्षा प्रदान करने के लिए भारत एकमात्र केंद्र रहा है, इसी ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में जनजाति समाज के युवा भी अकल्पनीय योग्यता वाले थे, जिनमे से एक नाम है एकलव्य। यह एक भील बालक था, जिसने बिना गुरु के भी उसकी मूर्ति बनाकर उसके सामने नित्य अभ्यास के बल पर धनुर्विद्या प्राप्त की, गुरु के मिलने पर उसके द्वारा गुरुदक्षिणा मांगने पर अपने दाहिने हाथ का अंगूठा काटकर भेंट करके गुरु शिष्य के रिश्ते को अमर कर गया। यह है जनजाति समाज का गौरव।

भक्ति की पराकाष्ठा देखें, तो सबसे पहले हमें माता शबरी का ही स्मरण आता है, माता शबरी ने भगवान श्रीराम को भक्ति के बल पर उन्हें वनों तक स्वयं से मिलने के लिए बाध्य कर दिया। भक्ति भी इतनी पावन, इतनी पवित्र, की भगवान उनके द्वारा स्वयं चखकर खिलाये जा रहे बेरियों को बड़े ही चाव से खाते हैं। इसी भक्ति का एक उदाहरण और दूँ, तो इसमें निषादराज का भी नाम शामिल करना होगा, जिसे भगवान श्रीराम वन में जाकर अपने गले से लगाते हैं, उसे अपना मित्र बनाते हैं। यह जनजाति समाज का गौरव ही तो है, जिसके कारण आज भी जनजाति समाज के लोग अपने शरीर को ही राम नाम लिखा कर राममय हो जाते हैं। जनजाति समाज की सुबह भी राम राम से शुरू होती है,तो रात्रि की थकान भी राम नाम से ही मिट जाती है।

आज हम जानते हैं, की जब हमारा देश सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और शिक्षा केंद्र के रूप में विश्व गुरु रहा है, तब कई कबीले, कई देश, कई सम्प्रदाय व कई पंथ इसके संस्कृति, सभ्यता, एकता अखंडता को क्षत विक्षत करने के उद्देश्य से यहां पर षडयंत्र पूर्वक लूट मार काट करने आये। पहले भी जिक्र किया गया की भारत विश्व कल्याण के लिए अपने विचार को जीते आ रहा है, उसी के पालन के लिए उसने हमेशा अपने ऊपर आक्रमण करने वाले शत्रुओं के प्रति भी करुणा का भाव रखते हुए उन्हें जीने का अवसर दिया। परंतु दुष्ट दुराचारियों ने भारत के इस करुणा के बदले विश्वासघात किया, उन्होने धोखा किया,उसके कारण भारत को कई वर्षों तक धर्म, अध्यात्म, संस्कृति की रक्षा के लिए अपने वीर वीरांगनाओं को बलिदान करना पड़ा। ऐसे ही मातृभूमि के लिए, अपने धर्म में रक्षणार्थ, भारत के जनजाति वीरों ने, वीरांगनाओं ने भी अपने प्राणों को बलिदान किया है। जब मुगलिया आततायियों और उसके बाद अंग्रेजों का अत्याचार चरम पर था, जब वो अपने पंथ के विचारों को तलवार और बंदूक, तोपों के बल पर भारत के लोगों पर थोपने का कुकृत्य करने लगे,तब उसके विरोध में भारत के कई वीर शूरमाओं ने अपने आपको मातृभूमि को समर्पित कर दिया,इन्हीं योद्धाओं में जनजाति वीरों में राणा पुंजा भील, राजा शंकरशाह, उनके पुत्र कुंवर रघुनाथशाह, तिलका मांझी, सिद्धोकान्हू, भगवान बिरसा मुंडा, रानी दुर्गावती, झलकारी बाई, वीर नारायण शाह, चकर बिसोइ, रानी गाइदिन्ल्यू, बुधु भगत, भीमा नायक जैसे हजारों लाखों मातृभूमि के वीर योद्धाओं, वीरांगनाओं ने अपने प्राणों को बलिदान किया, ये हैं मातृभूमि के लिए बलिदानी क्रांतिकारी, जिनपर आज भी देश वासियों को गर्व है, जो आज भी हमारे गौरव हैं।

वनों में रहकर भी अपने सनातन संस्कृति के लिए निरंतर संघर्ष करते रहे, वनों में रहकर उनकी भी रक्षा के लिए लड़ते रहे। मिशनरियों के धर्म परिवर्तन के कुचक्र को भगवान बिरसा मुंडा बनकर तोड़ने का काम किया, तो महाराणा प्रताप के मातृभूमि के लिए उनके किये त्याग में उनके साथ राणा पुंजा भील बनकर खड़ा हुआ। 1857 की क्रांति से भी पहले अंग्रेजों की जिसने नींद हराम कर दी थी, जो अंग्रेजों के लिए काल बन गया था,वह जनजाति वीर योद्धा तिलका मांझी था,जिसने 1778 ईसवीं में ही अंग्रेजों के खिलाफ जंग छेड़ दी थी। सिदो- कान्हू मुर्मू जैसे वीर भी जनजाति समाज में हुए जिन्होंने अंग्रेजी शासन की जड़ें हिला कर रख दी थी। उनकी याद में आज भी हुल दिवस मनाया जाता है। हमारी जनजाति समाज की मातृशक्तियां भी समाज, देश और धर्म के उत्थान में हमेशा प्रथम पंक्ति में ही रही हैं, उनका योगदान, उनका बलिदान भी आज युवाओं के अंदर मातृभूमि के प्रति समर्पण का भाव जागृत करता है, हम सभी ने राजा शंकरशाह एवं उनके पुत्र के बलिदान को अपना गौरव माना है, इन्हीं पिता पुत्र को अंग्रेजों ने राजा जी के पत्नी के सामने दोनो को तोप के मुंह में बांधकर मौत की सजा दी, धन्य है वो रानी, जिसने अपनी आंखों के सामने अपने पति और पुत्र के शरीर के टुकड़ों को हवा में उड़ते देखकर भी विचलित नहीं हुई, बल्कि उनके अंदर अंग्रेजों से बदला लेने का एक साहस जागृत हुआ। और वो रानी फुलकुँवर बाई अंग्रेजों से युद्ध भी लड़ती हैं, लड़ते लड़ते युध्द में घायल होने पर खुद को कटार मार कर अपने प्राणों को मातृभूमि की रक्षा में बलिदान कर देती हैं, ऐसी जनजाति समाज की बेटी माँ पत्नी भी स्वाधीनता की लड़ाई में बलिदान हुई है। ये भारत के गौरव हैं, ये जनजाति गौरव हैं, ये सनातन के गौरव हैं।

एक ओर जहां विश्व शहरीकरण की आड़ में प्रकृति का शोषण कर रहा है, विश्व शक्ति बनने के लिए सम्पन्न देश पृथ्वी को खोखला किये जा रहे है, वहीं भारत की जनजाति, शहरीकरण से अब भी दूर सुदूर गांवों में प्रकृति की गोद में शतायु जीवन व्यतीत कर रहे हैं। वह वनों में रहते हुए भी वनों का दोहन नहीं करते, उनकी दिनचर्या में ही प्रकृति का संरक्षण समाहित होता है।

जनजाति समाज का जीवन दर्शन ही भारत का गौरव है। आज जिस प्रकार से देश में अपनी पाक शैली, व्यंजन परंपरा को छोड़कर विदेशी खान पान अपनाने की गलत लत लग गई है, उसके कारण भारत के लोग भी अकाल समय ही मृत्यु को प्राप्त हो रहे हैं, वहीं अगर जनजाति समाज के खान पान की बात करूँ तो वह पूर्ण रूपेण प्राकृतिक होता है, वनोपज होता है, जैविक कृषि की उपज होता है।

आज जहां रासायनिक खाद के प्रयोग से पैदा होने वाले अनाज चावल गेहूं से रक्तचाप, मधुमेह, केंसर जैसी घातक बीमारी हो रही हैं, तो दूसरी ओर जनजाति समाज की प्राचीनकाल की खेती परंपरा से उपज, जैविक खाद का प्रयोग इनसे हुई उपज स्वास्थ्यवर्धक होता है। कोदो, कुटकी महुआ, चार चिरौंजी, तेंदू, हर्रा बहेड़ा, ये सब जनजाति समाज के प्रमुख खाद्य पदार्थ है, जो पूर्णतः प्राकृतिक हैं, जैविक कृषि की उपज है। आज जिस प्रकार हाइब्रिड बीजों के प्रयोग से रासायनिक खादों, कीटनाशकों का प्रयोग बढ़ा है, तो जनजाति समाज में, गांवों में आज भी देशी बीजों का संग्रह, उनका संरक्षण करने का पूर्वजों के द्वारा अपनाए विधियों का प्रयोग किया जा रहा है,जिसके कारण आज भी गांवों में जनजाति समाज में शुद्ध अनाज की उपज हो रही है। यही परंपरा, यही कृषि की विधियां हमारे देश के लिए गौरव हैं, जिसे हमें सहेजने और संवर्धित करने की आवश्यकता है।

 

मुगलों और अंग्रेजों से आहत होने के बाद स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात देश पुनः अपने गौरव को प्राप्त करने के लिए सामार्थ्यवान बनने जा रहा है, समाज भेदभावों से दूर समरस जीवन जीने को आतुर हैं, परन्तु देश विखंडन करने की योजना लेकर चल रही शक्तियां जनजाति समाज में सनातन विरोधी गतिविधियों के माध्यम से उन्हें उनके मूल परंपराओं से अलग करने का कुचक्र रच रही हैं, मिशनरियां जनजाति समाज में सेवा के भाव के दिखावे, छल कपट के प्रपंच के साथ उन्हें उनके मूल धर्म से अलग कर धर्मांतरण करने के लिए बाध्य करती है।परंतु आज भी छत्तीसगढ़ जैसे जनजाति बाहुल्य राज्यों में जनजाति समाज के लोगों में पूरे शरीर में गोदने परंपरा द्वारा अपने आराध्य भगवान श्रीराम के नाम को अंकित करवाना यह भारत के लिए, सनातन धर्म के लिए गौरव है। देश की अस्मिता की सुरक्षा की बात हो, देश की संस्कृति, सभ्यता, परंपराओं को निभाने की बात हो, प्रकृति के लिए चिंतन, वनों का संरक्षण का कार्य हो। इन सब कार्य में जनजाति समाज सर्वस्व समर्पित करके अपना जीवन यापन कर रहा है।।

हर प्रकार से भारत का जनजाति समाज अपने देश की संस्कृति, सभ्यता, विचार के लिए अपने पूर्वजों के द्वारा अपनाए गए मार्ग का ही अनुकरण करते आ रहा है। भारत के जनजाति समाज की आस्था का केंद्र ही सनातन धर्म है, जनजाति समाज अपने तीज, त्योहारों, व्रत अनुष्ठानों में सनातन की झलक, उसकी खुशबू को आज भी शामिल किये हुए अपना दायित्व निभा रहा है। आज अगर सनातन संस्कृति की झलक कहीं सटीक नजर आती है तो वह जनजाति समाज का आंगन है।आज सम्पूर्ण देश को ही अपने जनजाति समाज के जीवन पद्धति पर गर्व है, जनजाति समाज वास्तव में सनातन का ही अंग है,सनातन का गौरव है। भारत का गौरव है।

×