झांसी की रानी लक्ष्मीबाई एक ऐसी भारतीय वीरांगना थी, जिन्होंने स्वतंत्रता के लिए रणभूमि में हंसते-हंसते अपने प्राण न्योछावर कर दिए थे। 1857 में हुए भारत की स्वतंत्रता संग्राम इन्होंने अपने रक्त से लिखा था जो भारतीय इतिहास के पन्ने में सदा के लिए अमर हो गई। हम सभी के लिए महारानी लक्ष्मीबाई जी का जीवन आदर्श के रूप में है । भारतीय वसुंधरा को गौरवान्वित करने वाली महारानी लक्ष्मीबाई वास्तविक अर्थ में आदर्श थी। सच्चा वीर कभी विपत्तियों से नहीं घबराता है, इस उक्ति को रानी लक्ष्मीबाई के जीवन ने सार्थक किया है। कभी कोई प्रलोभन उन्हें अपनी कर्तव्य पालन से विमुख नहीं कर सका अपने पवित्र उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने दृढ़ आत्मविश्वास और शौर्यपूर्वक अंग्रेजों से लोहा लिया। वह सच में कर्तव्य परायण, स्वाभिमानी और धर्मनिष्ठ थी।
लक्ष्मीबाई का वास्तविक नाम मनु था। ये नानाजी पेशवा राव की मुंह बोली बहन थी उन्हीं के साथ खेलकूद कर बडी हुई थीं। नानाजी उन्हें प्यार से छबीली कह कर पुकारते थे। महारानी लक्ष्मी बाई का जन्म 19नवंबर 1835 को हुआ। इनके पिता का नाम मोरोपंत ताम्बे और माता का नाम भागीरथी बाई था। ये मूलत :महाराष्ट्र के रहनेवाले थे पर लक्ष्मी बाइ का पालन पोषण बिठूर में हुआ था जब वह चार पांच साल की थी तब ही इनकी माँ का देहांत हो गया था। बचपन से ही वो पुरुषों के साथ ही खेलना कूदना तीर तलवार चलाना घुड़सवारी करना सीख लिया था। इसी के कारण उनके चरित्र में भी वीर पुरुषों की तरह गुणों का विकास हो गया था। बाजीराव पेशवा ने अपनी स्वतंत्रता की कहानियों से लक्ष्मी बाई के हृदय मेंउनके प्रति बहुत प्रेम उत्पन्न कर दिया था।
रानी लक्ष्मीबाई का विवाह 1850 में गंगाधर राव से हुआ जो झांसी के राजा थे। विवाह के बाद यह मनु भाई और छबीली से रानी लक्ष्मीबाई कहलाने लगी थी। 1851में लक्ष्मी बाई को पुत्र पैदा हुआ इस खुशी में राजमहल में आनंद मनाया। गया घर-घर में दीया जलाया गए परंतु जन्म के 4 माह बाद ही उसका निधन हो गया। रानी लक्ष्मीबाई के पति को इस बात का गहरा सदमा लगा। पुत्र वियोग में गंगाधर राव बीमार पड़ गए तब उन्होंने दामोदर राव को गोद ले लिया। कुछ समय बाद 21नवंबर 1853 में राजा गंगाधर राव भी स्वर्ग सिधार गए। उनकी मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने झांसी की रानी लक्ष्मीबाई को अनाथ और असहाय समझ कर उनके दत्तक पुत्र को अस्वीकार कर दिया और रानी लक्ष्मीबाई को झांसी छोड़ने को कहने लगे परन्तु रानी लक्ष्मीबाई ने साफ शब्दों में उनको उत्तर भेज दिया और कहा झांसी मेरी है और मैं इसे नहीं छोड़ सकती।
अपनी जनता से उन्होंने अपना सारा जीवन झांसी को बचाने के लिए संघर्ष करने का आह्वान किया, इस हेतु उन्होंने गुप्त रूप से अंग्रेजों के विरुद्ध अपनी शक्ति संचय करनी प्रारंभ कर दी। अवसर पाकर एक अंग्रेज सेनापति ने रानी को साधारण स्त्री समझ के झांसी पर आक्रमण कर दिया परन्तु रानी पूरी तैयारी किये बैठी थी, दोनों में घमासान युद्ध हुआ। उन्होंने अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए। रानी लक्ष्मीबाई ने 7 दिनों तक वीरता पूर्वक झांसी की सुरक्षा की ओर अपनी छोटी सी शस्त्र सेना से अंग्रेजों का बड़ी बहादुरी से मुकाबला किया । रानी ने खुले रूप से शत्रु का सामना किया और युद्ध में अपने वीरता का परिचय दिया। वे अकेले ही अपने पीठ के पीछे दामोदर राव को कसकर घोड़े पर सवार हो अंग्रेजों से युद्ध करती रही, अंत में लक्ष्मी बाई को वहां से भाग जाने के लिए विवश होना पड़ा। झांसी से निकलकर रानी लक्ष्मीबाई कालपी पहुंची गवालियर में रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों से डटकर मुकाबला किया परन्तु अंत में रानी का घोड़ा पूरी तरह से घायल हो गया और वह वीरगति को प्राप्त हुई। इस प्रकार रानी लक्ष्मीबाई ने एक नारी होकर पुरुषों की भांति अंग्रेजों से लड़कर उनकी हालात खराब कर दिया था और उन्हें बता दिया कि स्वतंत्रता के लिए तुम अंग्रेजो के लिए एक महिला ही काफी है। वह मर कर भी अमर हो गई और स्वतंत्रता की ज्वाला को भी अमर कर गई। रानी लक्ष्मीबाई का शौर्यगाथा भारत के अनेक पीढ़ियों को प्रेरित करती रहेगी।