भारत ब्रिटिश दासता से मुक्ति के 75 वर्ष के समारोह का आयोजन करने जा रहा है। 15 अगस्त 1947 का दिन भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है जब सैकड़ों वर्षों के निरंतर संघर्ष और दासता के अंधकार को चीर कर स्वतंत्रता का सूर्योदय हुआ था। भारतीय नेतृत्व के हाथ में सत्ता की बागडोर आयी थी। हर भारतीय का सपना पूरा हुआ था।
स्वतंत्रता के सूर्य को विभाजन का ग्रहण लग चुका था। जिस सिंधु के तट पर भारत की संस्कृति पल्लवित हुई, जहाँ उसके जीवन मूल्य गढ़े गये, जिस रावी के तट पर पूर्ण स्वराज्य का संकल्प लिया गया, उसका एक बड़ा भाग भारत में नहीं था। जिस स्व के लिये पीढ़ियों तक लाखों लोगों ने बलिदान किये उसे बाँट कर स्वतंत्रता और स्वराज पाने का प्रयास अधूरा और एकांगी बना रहा। राजनैतिक सत्ता प्राप्त हुई किन्तु सांस्कृतिक वितान छीजता चला गया।
हिमालय और सागर के मध्य स्थित इस भारत वर्ष की रचना प्रकृति ने की है। शासन व्यवस्थाएं बदलती रहीं किन्तु इस भू-भाग की सांस्कृतिक चेतना निरंतर अक्षुण्ण बनी रही। राजनैतिक रूप से कभी किसी चक्रवर्ती सम्राट का पूरे भारत पर शासन रहा तो कभी केन्द्रीय सत्ता के अभाव में छोटे-छोटे राज्य अस्तित्व में आये। किन्तु जिस तत्व को मनीषियों ने राष्ट्र की चिति के रूप में पहचाना उसके प्रति पूरे देश का भाव सदा समान रहा। इसने ही देश की सांस्कृतिक एकात्मता को कभी कमजोर नहीं होने दिया।
अंग्रेजों ने भारत की इस अंतर्निहित शक्ति को पहचाना और ब्रिटिश शिक्षा पद्धति से निकले लोगों के मन में इस सनातन के प्रति अवहेलना और तिरस्कार का भाव भरा। भारतीय ज्ञान परम्परा प्रतिगामी और आजीविका देने में अक्षम है, इस धारणा ने शिक्षा के परम्परागत स्वरूप को हाशिये पर धकेल दिया। इसके साथ ही भारतीय मूल्य व्यवस्था, स्वत्व की अनुभूति और उसके रक्षण के लिये प्राण-पण से संघर्ष का संकल्प भी जीवन से तिरोहित होता चला गया।
शताब्दियों तक बर्बर आक्रमणों का सामना राष्ट्र ने जिस प्रेरणा के बल पर सफलतापूर्वक किया था, स्व की वह प्रेरणा यूरोपीय संस्कारों में पले-बढ़े तत्कालीन नेतृत्व के मानस से ओझल हो गयी। ब्रिटिश शासकों ने योजनापूर्वक अपने लिये अनुकूल नेतृत्व गढ़ा था परिणामस्वरूप, देशभक्ति और समर्पण में रंचमात्र कमी न होने बाद भी वह नेतृत्व भारत की आत्मा से साक्षात्कार करने में असफल रहा और पश्चिम की मोहक शब्दावली और आयातित विचारों को भारत की धरती पर रोपने की कोशिश करता रहा।
स्वतंत्रता का प्रश्न केवल विदेशियों के चले जाने भर से हल होने वाला नहीं था। यह तो भारतीय मूल्यों की पुनर्स्थापना का प्रश्न था जिसके लिये भारत की समझ आवश्यक थी, उसकी ज्ञान परम्परा में अभिनिवेश आवश्यक था। जब तक भारतीय समाज का नेतृत्व करने वाले महापुरुषों द्वारा स्व की चेतना को संघर्ष की कसौटी बनाये रखा गया, स्वतंत्रता के लिये बलिदानों की अटूट श्रंखला बनी रही। इस स्वतंत्रता में स्वधर्म, स्वराज्य और स्वदेशी की त्रयी आधारभूत थी। समर्थ रामदास से लेकर लोकमान्य तिलक तक स्वराज्य की यह अवधारणा सर्वत्र परिलक्षित होती है। यहाँ तक कि द्वितीय विश्वयुद्ध के समय जब नेताजी सुभाष ने अण्डमान-निकोबार द्वीपों पर नियंत्रण प्राप्त किया तो उन्हें क्रमशः स्वतंत्र और स्वराज द्वीप नाम दिया। अपने भाषण में उन्होंने कहा कि स्वतंत्रता के लिये समझौते नहीं, संघर्ष हुआ करते हैं, बलिदान हुआ करते हैं।
इस मौलिक समझ और भारतीयता मेंअभिनिवेश के अभाव में समझौतों के द्वारा किस्तों में स्वतंत्रता प्राप्त करने को राजनैतिक विजय के रूप में प्रस्तुत किया गया और इसके लिये भारत विभाजन की कीमत चुकाने में संकोच नहीं हुआ। अंग्रेजों की लिखी पटकथा को अपनी जीत का दस्तावेज मानते हुए, ब्रिटिश संसद में पारित प्रस्ताव के परिणामस्वरूप हुए सत्ता हस्तांतरण को लालकिले की प्राचीर से नियति से साक्षात्कार कह कर संबोधित किया गया।
निस्संदेह यह वह स्वराज नहीं था जिसके लिये सैकड़ों वर्षों तक संघर्ष और लाखों बलिदान हुए थे। लेकिन यह स्वातंत्र्य संघर्ष के इतिहास में एक महत्वपूर्ण पड़ाव था, जिससे आगे की यात्रा इस राष्ट्र को करनी थी। आन्तरिक व वैश्विक परिस्थिति चाहे अनुकूल रही हो अथवा प्रतिकूल, देश धीमी गति से ही सही, किन्तु दृढ़ कदमों से स्वराज के उदात्त लक्ष्य की ओर बढ़ता रहा। इसका ही परिणाम है कि भारत आज विश्वमालिका में अपना यथोचित एवं स्वाभाविक स्थान प्राप्त करने की ओर तेजी से अग्रसर है। यह संतोष का विषय है कि देश की युवा पीढ़ी स्वत्व की खोज में है और अपनी जड़ों की तलाश की बेचैनी उसमें साफ देखी जा सकती है।
1947 में औपनिवेशिक शक्तियों से मिली स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूरे होने का यह अवसर इस यात्रा के सिंहावलोकन करने तथा स्वत्व के प्रकाश में स्वधर्म, स्वराज और स्वदेशी की संस्थापना हेतु संकल्प का प्रसंग है।
युवा दिवस एवं गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामना सहित,
आपका,
संपादक