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Home संपादकीय

छात्रशक्ति मार्च – अप्रैल 2022

अजीत कुमार सिंह by
April 6, 2022
in संपादकीय

संपादकीय

“द कश्मीर फाइल्स” आज चर्चा के केन्द्र में है। दशकों बाद इस फिल्म को देखने के लिये दर्शकों ने सिनेमाघरों का रुख किया है। बॉक्स ऑफिस पर फिल्म ने सफलता के कीर्तिमान बनाये हैं। लागत से कई गुना अधिक कमाई फिल्म ने पहले ही सप्ताह में कर ली थी। अब तो वह पिछले सभी रिकॉर्ड तोड़ चुकी है और यह क्रम जारी है।

चर्चा की मुख्य वजह फिल्म की अपार सफलता नहीं है। उसके तकनीकी पक्ष, दृश्यांकन, लोकेशन, स्पेशल इफेक्ट्स, संवाद आदि जिन कसौटियों पर अन्य फिल्मों को कसा जाता है, प्रायः वे पक्ष भी चर्चा में प्रमुखता से नहीं उभरते। उभरता है एक बिम्ब जो उन घटनाओं को आंखों के सामने एक बार फिर परदे पर ले आता है जिसे लोगों ने तीन दशक पहले सीमित सूचना माध्यमों से जाना था। वह पीढ़ी जो इक्कीसवीं सदी में जन्मी और बड़ी हुई, इन घटनाओं से एक हद तक अनजान थी। यहाँ तक कि अनेक विस्थापित कश्मीरी हिन्दू परिवारों में भी नयी पीढ़ी को इन यादों से दूर रखने की कोशिश की जाती थी।

अपने-आप को भारतीय कहने और मानने के कारण अपने धन और धरती से बेदखल होने की इस त्रासदी का सामना 1947-48 में उन लोगों को करना पड़ा था जो मीरपुर, मुजफ्फराबाद, गिलगित और बल्तिस्तान अर्थात आज के पाक अधिक्रांत जम्मू कश्मीर में रहते थे। अमानवीय हिंसा और बर्बरता के उदाहरण तब भी सामने आये थे किन्तु पीड़ितों की आहें आजादी का जश्न मनाती दिल्ली को झकझोर न सकीं। उनमें से कुछ लोगों ने जम्मू कश्मीर में आकर नये सिरे से अपनी जिंदगी शुरू की। 1990 का दौर एक बार फिर काल बन कर आया और सब कुछ नष्ट हो गया। एक बार फिर वही मानवता को लजाने वाली घटनाओं का दोहराव, एक बार फिर मजहबी उन्माद में डूबे लोगों द्वारा आतंक, यातना और मृत्यु का नंगा नाच। और उनके आगे घुटने टेकती, गिड़गिड़ाती दिल्ली।

लाखों लोगों ने जो देखा और भोगा, उसे जान कर भी खामोश रह जाने वाली दिल्ली से उम्मीद ही क्या की जा सकती थी। इसलिये विस्थापितों ने भी अपनी आहों को घोंट दिया। मान लिया अपने घरों, बगीचों, झरनों को बीती बात। दिल्ली, मुंबई हैदराबाद, बेंगलूर और दुबई में मनाने लगे पहले हिमपात का उत्सव, छाती पर पत्थर रख कर।

गत तीन दशकों में इन स्मृतियों पर जो धुंध छा गयी थी, द कश्मीर फाइल्स ने उसे साफ कर दिया है। कश्मीर से जुड़ी वे मनोरम स्मृतियां, वे आंसू, वे घुटी हुई आहें और दिन-दिन छीजता जा रहा उस कश्यप की धरती से संबंध, मन पर लगाये सब बंधनों को तोड़ कर एक साथ प्रवाह बन बह निकले। मनों में बसी वितस्ता का बाँध टूटा है जो उमड़ कर बॉक्स ऑफिस से टकरा रहा है। केवल विस्थापित कश्मीरी हिन्दू ही नहीं, हर भारतीय के लिये स्वतंत्र भारत में हुआ यह विस्थापन उसके मर्म में बिंधा एक तीर है जो जब तक निकलेगा नहीं कसकता रहेगा और अवसर पाते ही बाहर आने की कोशिश करेगा।

अब दिल्ली बदली है, देश का नजरिया भी बदला है। इस बदलाव को विवेक अग्निहोत्री ने पहचाना और अपनी रचनात्मकता से पूरे देश का ध्यान आकर्षित किया है। यही कारण है कि चर्चा तकनीकी पक्ष पर नहीं, उस भावपक्ष पर है जिसे विवेक अग्निहोत्री ने स्पंदित कर दिया है।

बैसाखी और रामनवमी की हार्दिक मंगलकामनाओं सहित,

आपका

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