संपादकीय,
देश भर में फिर कोलाहल है। सड़कों पर अराजकता छाई हुई है और तोड़-फोड़, आगजनी और हिंसा का तांडव जारी है। इस बार बहाना नूपुर शर्मा का बयान है जिसने अपने बयान के लिये सार्वजनिक माफी मांग ली है और भाजपा ने उन्हें पद से निलंबित भी कर दिया है।
नूपुर शर्मा के बयान पर समुदाय विशेष की यह तात्कालिक उत्तेजना नहीं है। बयान के कई दिन बाद जुमे की नमाज के उपरान्त सड़कों पर उतरी भीड़ ने जिस प्रकार हिंसा का प्रदर्शन किया उससे जाहिर है कि सब कुछ योजनाबद्ध था। यह आश्चर्य है कि बयान ओवैसी दें या नूपुर, आक्रोषित एक ही समुदाय विशेष होता है, प्रतिक्रिया एक ही प्रकार की होती है, बहुसंख्यक समाज हमेशा निशाने पर होता है। परिणामस्वरूप, बहुसंख्यक समाज उसका वैसा प्रत्युत्तर तो नहीं देता किन्तु मनों में गुबार उसके भी जमाता है। समुदायों के मध्य बढ़ती दूरी और अविश्वास हिंसा और अराजकता की फसल काटने वालों के लिये अनुकूल स्थिति है।
जिस तरह जमात-उलेमा-ए-हिन्द ने विभिन्न शहरों में हुए हिंसक प्रदर्शनों के पीछे देश का माहौल खराब करने के लिये राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय षड्यंत्र का उल्लेख करते हुए मजलिसे इत्तेहादुल मुस्लमीन के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी, जमीयत उलेमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी व महमूद मदनी तथा मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और पीएफआई जैसे संगठनों को कठघरे में खड़ा किया है उससे स्पष्ट है कि मुस्लिम समाज में भी इस प्रकार की घटनाओं को लेकर विमर्श शुरू हुआ है और वे साम्प्रदायिकता के दशकों पुराने बोझ से मुक्ति पाने को आतुर हैं। यह एक स्वगत योग्य कदम है।
अब जबकि इसकी तकनीकी रूप से पुष्टि हो गयी है कि इस विवाद को भड़काने के लिये सात हजार से अधिक पाकिस्तानी सोशल मीडिया अकाउंट का उपयोग किया गया, जरूरी है कि इसे हिन्दू-मुस्लिम विवाद के स्थान पर पाकिस्तान द्वारा भारत की संप्रभुता को चोट पहुंचाने की कोशिश के रूप में देखा जाय। पाकिस्तान के इशारे पर उसके हस्तक बन कर भारत में काम करने वाले अराजक तत्वों पर कड़ी निगरानी और उनके सक्रिय होने से पहले निषेधात्मक कार्रवाई आवश्यक है।
देश के सामाजिक-राजनैतिक संगठन, जिनके सत्तारूढ़ राजनैतिक दल से वैचारिक मतभेद हैं उनकी चुप्पी भी लोकतांत्रिक मूल्यों पर कुठाराघात है। सरकार को असुविधाजनक स्थिति का सामना करना पड़े इसके लिये यदि वे विदेशी धरती से चलाये जा रहे षड्यंत्रों पर मौन साध जाते हैं तो इसकी कीमत सभी को चुकानी होगी।
यह घटनाक्रम वैसा ही मोड़ लेता दिख रहा है जैसे 2019 के चुनाव के पहले था। क्या यह 2024 के चुनावों की तैयारी है। क्या पिछले चुनावों की असफलता को देखते हुए इस बार तैयारी जल्दी शुरू की गयी है। अथवा यह उस अंतर्राष्ट्रीय डिजाइन का हिस्सा है जिसकी संभावना तालिबान के सत्ता में आने के बाद पाकिस्तान की नयी रणनीति के रूप में जतायी जा रही थी। तथ्य कुछ भी हो, भारत को इन चुनौतियों का एक राष्ट्र के रूप में सामना करना होगा जिसके लिये सभी समुदायों को विश्वास में लेना और सभी नागरिकों का सक्रिय सहभाग आवश्यक है।
हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला में संपन्न अभाविप की राष्ट्रीय कार्यकारी परिषद की बैठक में वर्तमान राष्ट्रीय परिदृश्य के साथ अन्य सभी महत्वपूर्ण विषयों पर गहन विमर्श हुआ जिसका विवरण इस अंक में समाहित है।
शुभकामना सहित,
संपादक