संपादकीय
अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् अर्थात एक निरंतर यात्रा, एक निरंतर प्रवाह, राष्ट्रीय पुनर्निर्माण की दिशा में। संगठन जब बीजरूप में था, तब भी सपने ‘विराट्’ के ही देखे। दिल्ली कार्यालय में प्रवेश करते ही सामने एक पट लगा था जिस पर लिखा था – “तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु”। परिषद की पहली पीढ़ी ने शिवसंकल्प लिये, यह संकल्प ही ऊर्जा का स्रोत बने। यह संकल्प ही फलीभूत हुए।
संगठन के प्रारंभिक वर्षो में ही परिषद् की वैश्विक भूमिका की पहचान और छात्र-युवाओं के आंदोलनों की पड़ताल का काम प्रारंभ हो गया था। ‘छात्रशक्ति’ की ‘राष्ट्रशक्ति’ के रूप में पहचान और ‘आज के छात्र की आज के नागरिक’ के रूप में भूमिका का दर्शन स्थापित हो चुका था। 1980 का दशक, नितांत विपरीत परिस्थिति और अंतर्राष्ट्रीय युवा वर्ष के अवसर पर नयी दिल्ली में राजघाट पर आयोजित राष्ट्रीय अधिवेशन। इसमें ‘विश्व विद्यार्थी युवा संघ’ के गठन की घोषणा की गयी और भारतीय विद्यार्थियों की वैश्विक भूमिका का एक नया अध्याय प्रारंभ हुआ।
जब दुनियाँ ‘सरवाइवल ऑफ फिटेस्ट’ की अवधारणा पर भरोसा करती थी और विश्व पर प्रभुत्व स्थापित करने की होड़ में दो विश्वयुद्ध लड़ने के बाद भी शीतयुद्ध की चपेट में थी, विश्व विद्यार्थी युवा संघ ने अपना आदर्श “वसुधैव कुटुम्बकम्” को बनाया।
1998 में परिषद के स्वर्ण जयंती बर्ष में आयोजित राष्ट्रीय अधिवेशन में ‘स्वर्ण संकल्प’ स्वीकार किया गया। आर्थिक सुधारों के युग में प्रवेश करने वाले भारत पर भारी वैश्विक दवाब था और राजनैतिक अस्थिरता के चलते भविष्य अस्पष्ट था। परिषद ने उस समय भी भारत को ‘विश्वमालिका में यथायोग्य स्थान दिलाने’ के लिये प्रयत्नशील होने का संकल्प लिया।
आज भारत ‘विश्वमालिका में यथायोग्य स्थान पाने’ की दिशा में तीव्र गति से अग्रसर है। यह कहना अतिशयोक्ति होगा कि यह केवल अभाविप के संकल्प का परिणाम है, लेकिन यह संतोष का विषय है कि अंधेरे के दौर में उम्मीदों की किरण जगाये रखने के अभियान में हम भी सहयात्री रहे हैं।
जी20 के अध्यक्ष के रूप में भारत अनेक समूहों की बैठकों का आयोजन कर रहा है। इसके प्रतीकचिन्ह में दर्शित “वसुधैव कुटुम्बकम” इस बात का प्रतीक है कि स्वतंत्र भारत में कोटि-कोटि भारतीयो के साथ अभाविप ने जो संकल्प लिया था वह सिद्धि की ओर बढ़ता दिख रहा है। ‘एक पृथ्वी, एक परिवार, एक भविष्य’ के जिस चिंतन को विश्व स्वीकार रहा है, परिषद अपने प्रारंभ से ही भारत के इस सनातन चिंतन के लिये आग्रही रही है। अपने शिवसंकल्प को ‘याचि देही, याचि डोला’ फलीभूत होते देखने का आनंद अप्रतिम है। रंग और रस का पर्व होली सभी के लिये मंगलमय हो इसी कामना के साथ,
आपका
संपादक