संपादकीय
राहुल गाँधी के बाद अब आप सरकार की मंत्री आतिशी ने विदेश में जाकर भारत की छवि खराब करने का प्रयास किया है। कैम्ब्रिज इंडिया कान्फ्रेंस में बोलते हुए आतिशी ने दावा किया कि भारत में रोजाना 35 करोड़ लोग भूखे सोते हैं।
भारत के बाहर जाकर भारत की छवि खराब करने का यह जुनून अनेक विपक्षी नेताओं में दिख रहा है। ऐसी किसी भी घटना के बाद उनके दल के लोग इस पर खेद व्यक्त करने के स्थान पर उनके गलत और तर्कहीन बयानों का बचाव करते नजर आते हैं। वे यह भूल जाते है कि भारत उनका भी देश है और अपने देश की जगहंसाई कराने में उनका अपना भी अपमान है। दुर्भाग्य यह है कि राजनैतिक विद्वेष से पीड़ित यह राजनेता अपने इस अपमान में भी आनंद की अनुभूति करते हैं।
2014 में जब से केन्द्र द्वारा राष्ट्रीय विचार को सामने रखकर निर्णय लेने का क्रम प्रारंभ हुआ, तभी से सत्ता से बेदखल हुये समूह का यह रूदाली गायन चल रहा है। गुलामी के प्रतीकों को हटाने की हर कोशिश का विपक्ष द्वारा जिस प्रकार विरोध किया जाता है उससे संदेह उत्पन्न होता है कि वे विदेशी आक्रांताओं की निशानियों को ही तो अपनी विरासत नहीं मान बैठे हैं?
विरोध की इन घटनाओं में भी एक पैटर्न दिखायी देता है। यह घटनाऐं तेजी से बढ़ती हैं जब लोकसभा अथवा विधानसभाओं के चुनाव निकट आते हैं। 2019 के चुनाव के पहले अवार्ड वापसी का नाटक हुआ था। 2024 के चुनावों की आहट के साथ एनसीईआरटी की किताबों से नाम वापस लेने का अभियान प्रारंभ हो चुका है। बहस इस पर नहीं है कि कथित संशोधनों में कौन से तथ्यों को दस्तावेजों द्वारा प्रमाणित नहीं किया जा सकता, जिद यह है कि जो दो दशक पहले लिख दिया गया है उसे बदलना असंभव है। निस्संदेह यह व्यवहार गैर अकादमिक और अस्वीकार्य है।
यह विडम्बना ही है कि ऐसी सभी राजनैतिक संघर्षों का अखाड़ा शिक्षा क्षेत्र को बना दिया जाता है। शिक्षकों और विद्यार्थियों, दोनों के सामने यह चुनौती बनी रहती है कि साम्प्रदायिक और राजनैतिक दुष्प्रचारों को दूर कर शिक्षा को कैसे तथ्यपरक और मूल्य आधारित बनाया जा सके।
विडम्बना यह भी है कि यह राजनैतिक विषवमन लोकतंत्र के नाम पर किया जा रहा है। इसके विपरीत यह स्थापित तथ्य है कि 26 जून 1975 को देश में जब लोकतंत्र की हत्या की कोशिश हुई तो आज लोकतंत्र की दुहाई देने वाले लोग लोकतंत्र विरोधी शक्तियों के साथ थे, वहीं अभाविप जैसे संगठनों के संघर्ष के बल पर लोकतंत्र की बहाली संभव हो सकी थी।
नया संसद भवन लोकतंत्र का मंदिर तो है ही, यह उल्लेखनीय है कि इस पर गुलामी की छाया भी नहीं है। इसका विरोध कर लोग अपनी संकुचित मानसिकता का प्रदर्शन ही कर रहे हैं।
हार्दिक शुभकामनाओं सहित्
आपका, संपादक