संपादकीय
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल की गिरफ्तारी ने एक नए राजनीतिक विमर्श को जन्म दिया है। नौ बार प्रवर्तन निदेशालय के बुलावे को टालने के बाद जब उन्होंने जांच में सहयोग नहीं किया तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उच्च न्यायालय के समक्ष उन्होंने जमानत की प्रार्थना करने के स्थान पर गिरफ्तारी को ही चुनौती दी। उच्च न्यायालय ने उनकी याचिका को इस टिप्पणी के साथ निरस्त किया कि प्रस्तुत साक्ष्यों के आधार पर प्रथम दृष्टया मामला बनता है और इसकी जांच आरोपी की सुविधा के अनुसार नहीं हो सकती। इस निर्णय के विरुद्ध केजरीवाल ने सर्वोच्च न्यायालय का रुख किया, जिसने इस पर तुरंत सुनवाई से इंकार कर दिया।
न्यायालयों में इस वाद का अंतिम परिणाम क्या आएगा, यह तो समय ही बताएगा, किन्तु देश से भष्टाचार उखाड़ फेंकने की घोषणा के साथ सत्ता में आए केजरीवाल और उनके साथियों पर प्रथम दृष्टया मामला बनने की सूचना भी जनमानस को विचलित करने के लिए काफी है। यह आपातकाल के दौरान उपजी राजनेताओं की पीढ़ी के भ्रष्टाचार में आकंठ डूब जाने की घटना की पुनरावृत्ति है, जिसका साक्षी पूरा देश है।
इस बीच यह अन्तर अवश्य आया है कि तब उच्च न्यायालय के निर्णय को नकार कर आपातकाल लागू करने का निर्णय किया गया, जबकि अब संवैधानिक और न्यायिक प्रक्रिया को ही चुनौती दी जा रही है। तब एक सत्तापक्ष था और दूसरा प्रतिपक्ष, किन्तु अब दोनों ही पक्ष सत्ता में हैं। एक पक्ष केन्द्र की सत्ता में है तो दूसरा पक्ष विभिन्न राज्यों में सरकार चला रहा है। केन्द्र के विरुद्ध विपक्षी दलों द्वारा संचालित राज्य सरकारे रणनीतिक गठबंधन में हैं और संसद द्वारा पारित विधानों को भी अपने राज्य में लागू करने को तैयार नहीं है। शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसे अराजनीतिक मुद्दे भी इस राजनीति की भेट चढ़ गए हैं।
हठधर्मिता की यह राजनीति संघ-राज्य संबंधों में भी खटास उत्पन्न कर रही है। वैचारिक विरोध का रंजिश में बदल जाना और इसके चलते मूल्यों में गिरावट के नए उदाहरण सामने आ रहे हैं। केन्द्रीय सत्ता को चुनौती देने के जुनून में उन समूहों का भी समर्थन जुटाया जा रहा है, जो भारतीय संविधान को नकारते हैं तथा हिंसा को एक राजनीतिक अस्त्र के रूप में प्रयोग करने के समर्थक हैं। इस समर्थन के प्रतिदान के रूप में उनकी संविधान-विरोधी गतिविधियों का संरक्षण और बचाव करना मजबूरी है।
विडंबना यह है कि राजनीति के इस विकृत रूप पर जहां से सवाल उठने चाहिए थे, वहां सन्नाटा पसरा है। देश का बुद्धिजीवी वर्ग, जिसे इस परिस्थिति में आगे आना और देश का बौद्धिक नेतृत्व करना चाहिए वह चुप है। विश्वविद्यालयों में जहां राजनीतिक दलों द्वारा परोसे गए आश्वासनों, वादों और प्रस्तावित नीतियों का तथ्यों और तर्कों के आधार पर मूल्यांकन होना चाहिए था, वहां अधिकांश ऐसे विषयों पर शोध हो रहे हैं, जिनका न कोई नीतिगत मूल्य है, न ही उपयोगिता। अधिकांश बुद्धिजीवी लेखक, पत्रकार, शिक्षाविद राष्ट्रीय विमर्श को धार देने के स्थान पर अपनी रुचि के अनुसार इस या उस राजनीतिक बाड़े में अपनी जगह बना चुके हैं अथवा बदलती व्यवस्था का पूर्वानुमान कर राजनेताओं की तरह ही नए अवसरों की तलाश में हैं।
इस अंधेरे के बीच शिक्षा जगत में अभाविप एक दीप स्तंभ की भांति अपने मूल्यों पर टिकी हुई है, सक्रिय है, निरंतर वर्धमान है। राष्ट्रीय पुनर्निर्माण को संकल्पित छात्रशक्ति तैयार करने का यह अभियान और अधिक गति से चले, यह आज की आवश्यकता है और चुनौती भी। नवसंवत्सर में हमारा यह संकल्प और अधिक दृढ़ और बलवती हो, इस शुभकामना के साथ…
आपका
संपादक