संपादकीय
पृथ्वी के परितः जो आवरण है, उसने इस ग्रह को जीवन धारण करने योग्य बनाया। यही पर्यावरण समस्त प्राणियों के उत्पन्न होने, बढ़ने तथा विनाश को प्राप्त होने का क्रम निर्धारित करता है। साथ ही सभी प्रजातियों, वनस्पतियों, प्राकृतिक संसाधनों तथा ऊर्जा के विविध रूपों के बीच संतुलन बनाए रखने का भी काम करता है।
मनुष्य ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना है। वह अकेला प्राणी है जो अपने प्राकृतिक कर्मों के अतिरिक्त भी बुद्धि एवं विवेक का प्रयोग कर प्रकृति के रहस्यों की खोज कर सकता है, विकास के नए प्रतिमान गढ़ सकता है। आत्मतत्व, अमृततत्व और सुख की खोज में प्रारंभिक मानव ने जो प्रयत्न प्रारंभ किए, वही विकास के विभिन्न चरणों से गुजरते हुए वहां आ पहुंचे हैं, जहां वह प्रकृति की सीमाओं को लांघ कर अन्य ग्रहों पर मानव जीवन का विस्तार करने की दिशा में प्रवृत्त है।
धरती के अलग-अलग भागों में सभ्यता के अंकुर फूटे जो स्थानीय परिस्थिति और उपलब्ध संसाधनों के अनुकूल विकसित हुए। जैसा उनका जीवन-संघर्ष रहा, तदनुरूप ही उनकी जीवन शैली विकसित हुई। प्रकृति और पर्यावरण की ओर देखने की दृष्टि भी वैसी ही बनी। भारत में जीवनयापन के संसाधन सहज ही उपलब्ध थे, प्रचुरता में थे, इसलिए भारत में पनपी सनातन जीवनशैली में पड़ोसी से छीन कर खाने के स्थान पर अतिथि को खिलाकर खाने की पद्धति प्रचलित हुई। संघर्ष नहीं था, इसलिए उदात्त जीवनमूल्य विकसित हुए। ऋषियों ने यह अनुभूति की कि जो हम में है, वहीं कण-कण में व्याप्त है।
प्रकृति के प्रति मानव का दृष्टिकोण और दैनिक जीवन में मानव के क्रिया-कलाप इसी आत्मबोध और इन्हीं संस्कारों से नियंत्रित होते हैं। भारतीय मान्यता है कि पर्यावरण के पांच मूल तत्वों भूमि, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश से ही देह का निर्माण हुआ है और प्रकृति का भी। इसलिए जितना आवश्यक इस देह का संरक्षण है, उतना ही अनिवार्य प्रकृति का संरक्षण भी है।
इसी विचार प्रक्रिया में से जगत के साथ एकात्मता का भाव, पृथ्वी के साथ मातृवत संबंध, आरण्यक जीवन की सात्विकता, जीव-जन्तुओं तथा वनस्पतियों के साथ सहजीवन तथा अन्योन्याश्रितता, जल की शुचिता और प्रबन्धन, प्रकृतिप्रदत्त संसाधन साझे और सभी के लिए हैं, इसलिए उनका त्यागपूर्वक भोग इत्यादि शाश्वत मूल्य निःसृत हुए।
इसके विपरीत पश्चिम में, जहां संसाधनों का अभाव था, जीवनयापन के लिए कठोर संघर्ष आवश्यक था, जीवन के प्रति भिन्न दृष्टि उत्पन्न हुई। शक्तिशाली की संभाव्यता और अधिकतम उपभोग की प्रवृत्ति पनपी। आज जब पर्यावरण के क्षरण के कारण मानव के अस्तित्व पर ही संकट के बादल मंडरा रहे हैं, तब भय के कारण प्रकृति के संरक्षण का विचार चर्चा में आया है। इसके लिए भी विकसित देश अपने उपभोग को सीमित करने के स्थान पर विकासशील और पिछड़े देशों से प्रयास करने की उम्मीद के साथ ही दबाव बनाते दिख रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र द्वारा पर्यावरण के संरक्षण का संदेश देने के लिए 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस घोषित कर देना एक महत्वपूर्ण कदम है, किन्तु केवल दिवस मना लेने मात्र से दायित्व की इतिश्री नहीं हो सकती। इसके लिए प्रकृति के साथ तादात्म्य, प्राणीमात्र के साथ एकात्मता तथा विकास को पुनः परिभाषित करना आवश्यक है। ‘यत्पिंडे तत् ब्रह्माण्डे’ इसी भारतीय चिंतन का संदेश है जो आने वाली प्राकृतिक एवं मानव निर्मित चुनौतियों से मानवजाति का संरक्षण कर सकता है।
हार्दिक शुभकामना सहित,
आपका
संपादक