संपादकीय
लोकतंत्र और अराजकता के बीच एक संघर्ष जारी है। यह केवल भारत ही नहीं, अपितु दुनिया के अनेक देशों को अपने जाल में जकड़ चुका है। अरब स्प्रिंग के नाम से उत्तरी अफ्रीका और मध्य-पूर्व देशों में प्रारंभ हुए इस षड़यंत्र को वैश्विक शक्तियों का समर्थन हासिल है। अपने यहां आजादी और मानवाधिकार की दुहाई देने वाले देशों के हाथ विकासशील देशों में चुनी हुई सरकारों को गिराने के खेल में लिप्त दिखते हैं।
भारत एक ऐसा देश है, जहां लोकतंत्र की जड़ें गहरी हैं। सर्वानुमति और सर्वसमावेशी दृष्टिकोण यहां की जीवनशैली का अभिन्न हिस्सा है। अतः यहां चुनी हुई सरकारों को अपदस्थ कर पाना सरल नहीं है। इसके विपरीत जिन देशों में लोकतांत्रिक ढ़ांचा अत्यंत पतली पर्त पर टिका है, वहां उसे कभी भी ढ़हा देना इन शक्तियों के लिए बाएं हाथ का खेल है।
बांग्लादेश का उदाहरण हमारे सामने है, जहां एक लाख से भी कम लोगों की अराजक भीड़ ने पूरे शासन तंत्र को बंधक बना लिया। मजहब के नाम पर न तो आम नागरिक और न ही सेना, इस अराजकता का प्रतिरोध कर सकी और निर्वाचित प्रधानमंत्री को देश छोड़कर भागना पड़ा। शेख हसीना और उनके शासन के गुण-दोषों का विश्लेषण यहां प्रासंगिक नहीं है, किन्तु सेट मार्टिन द्वीप पर नियंत्रण को लेकर जिस अमेरिकी दबाव का उल्लेख हसीना ने किया है, वह अवश्य भारत के लिए चिन्ता का विषय है।
यद्यपि पहले भी इस बात के संकेत मिलते रहे हैं कि भारत के पूर्वी सीमान्त क्षेत्र पर नियंत्रण को लेकर चीन और अमेरिका, दोनों ही सक्रिय हैं। किन्तु किसी समझौते पर आने की प्रतीक्षा करने के स्थान पर किसी देश को अराजकता में धकेल कर बांह मरोड़कर अपनी बात जबरन मनवाने की बेशर्मी और बंगाल की खाड़ी को दो महाशक्तियों द्वारा अपने स्वार्थपूर्ण हितों का अखाड़ा बनाने की कोशिश से भारत ही सबसे अधिक प्रभावित होगा।
अराजकता फैलाने के यह प्रयास गत अनेक वर्षों से भारत में भी दिखाई दे रहे हैं। असंभव मांगों को लेकर हिंसक अहिंसक प्रदर्शन, छद्म या गलत समाचार, टूल किट, समुदायों के बीच वैमनस्य पैदा करने के कुत्सित प्रयास, महीनों-महीनों तक राजमार्गों अथवा रेल मार्गों को बंद कर शासन को पंगु बनाने की चेष्टा और सरकार द्वारा कठोर कार्रवाई करने पर दमन का आरोप लगाकर पुनः आक्रोश पैदा करने के सुनियोजित षड़यंत्र का शिकार सामान्य जनमानस हो रहा है।
इतना ही नहीं, गत लोकसभा चुनाव के दौरान विभिन्न गैर-सरकारी संगठनों को विदेश से प्राप्त होने वाली आर्थिक सहायता और उन्ही व्यक्तियों एवं संगठनों द्वारा चुनावों को प्रभावित करने के लिए की गई गतिविधियों के बीच प्रथमदृष्टया संबंध स्थापित होता दिखता है। चुनाव में अपेक्षित बदलाव न आ पाने के बाद भी वह लोग और संगठन सक्रिय हैं और निरंतर देश-विघातक मांगें और शब्दों से विषवमन कर रहे हैं। यह स्थिति चिंतनीय है। एक ओर सभी छात्र युवाओं को इन परिस्थितियों से अवगत कराने और दूसरी ओर भारत विरोधी एजेंडे के सफल प्रतिकार की दोहरी चुनौती हमारे सामने है।
हार्दिक शुभकामना सहित
आपका
संपादक