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Home संपादकीय

छात्रशक्ति मई 2022

अजीत कुमार सिंह by
May 13, 2022
in संपादकीय

संपादकीय

सर्वोच्च न्यायालय ने राजद्रोह कानून पर तात्कालिक रोक लगा दी है। सुनवाई जारी है। भारतीय संविधान की धारा 124 ए के दुरुपयोग की शिकायत लेकर अनेक संगठनों ने न्यायालय में याचिका दायर की थी  जिस पर विचार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने यह कदम उठाया है।

वादियों ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि यह कानून भारतीय संविधान के लागू होने पूर्व का है और अंग्रेजों की औपनिवेशिक सोच का प्रतीक है। इसे लेकर सभी विपक्षी राजनेताओं ने मिलती जुलती-टिप्पणियां की जिसमें कांग्रेस के प्रमुख नेता बढ़-चढ़ कर शामिल थे। याचिकाकर्ताओं की ओर से अधिवक्ता के रूप में भी कांग्रेस के ही प्रमुख नेता कपिल सिब्बल बहस कर रहे थे।

प्रश्न उठता है कि जब संविधान सभा में संविधान के प्रारूप पर चर्चा हो रही थी तो वे कौन लोग थे तो इस और इस जैसे अनेक औपनिवेशिक कानूनों को भारतीय संविधान में शामिल करने के पक्ष में थे। निस्संदेह अटल बिहारी वाजपेयी और नरेन्द्र मोदी तो नहीं थे। जनता पार्टी के संक्षिप्त प्रयोग को छोड़ दें तो स्वतंत्रता के बाद लगभग 50 वर्षों तक कांग्रेस ने देश पर एकछत्र राज्य किया है और कठिन समय में उनके तारनहार बन कर वामपंथी दल हमेशा सामने आये हैं। आज जब वे सत्ता से बाहर हैं तो उन्हें इन कानूनों में खामी नजर आ रही है।

‘जब जागे तभी सबेरा’ की कहावत मानते हुए अगर यह दल अपनी राजनैतिक हैसियत गंवाने के बाद जागे हैं तो भी इसमें कुछ गलत नहीं। बड़ा प्रश्न यह है कि आज भी वे इसे सरकार के खिलाफ एक हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं या इसमें कुछ वैचारिक ईमानदारी भी है। 50 वर्षों से अधिक तक इन कानूनों के भारतीय संविधान में बने रहने ही नहीं बल्कि इसके निरंतर दुरुपयोग के उदाहरण उनकी ईमानदारी को संदिग्ध बनाते हैं।

आपातकाल में जिन राजनैतिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया था उनमें से अधिकांश पर राजद्रोह के मामले चले थे। ‘मीसा’ और ‘डीआईआर’ जैसे काले कानून कौन लाया था और अपने राजनैतिक विरोधियों के विरुद्ध इसका किसने इस्तेमाल किया था, यह छुपा हुआ नहीं है। अंतर यह है कि जब अभाविप सहित तमाम राष्ट्रीय विचार वाले संगठनों के कार्यकर्ता ‘वन्देमातरम’ और ‘भारत माता की जय’ के नारे लगाते सड़कों पर उतरते थे तो पुलिस थानों में अमानुषिक अत्याचारों का सामना करना पड़ता था और इन्हीं अंग्रेजों के बनाये कानूनों अथवा उनके भारतीय संस्करणों के अंतर्गत लम्बी सजायें काटनी होती थीं। आज जब यह कानून ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ जैसे नारे लगाने वालों के विरुद्ध उपयोग हो रहा है तो चुनिंदा राजनैतिक-सामाजिक संगठन और एनजीओ वाले उद्वेलित हो उठे हैं।

एक अन्य संदर्भ में झारखण्ड उच्च न्यायलय में राज्य के मुख्य सचिव के समक्ष एकल पीठ की मौखिक टिप्पणी इसे रेखांकित करती है। पीठ ने कहा कि एक सीनियर आईएएस अधिकारी जेल गयीं तो उन्हें मच्छर काटने लगे। गंदगी दिखी तो उन्हें गुस्सा आ गया और मौजूद कर्मचारी को फटकार लगा दी। जब अधिकारी उच्च पदों पर काम करते हैं तो उस दौरान व्यवस्था नहीं सुधारते। जब खुद पर बीतती है तो सब कुछ नजर आने लगता है। यह तथ्य समूचे शासनतंत्र पर ही खरा है।

जिन लोगों ने इन कानूनों का अपने राजनैतिक हित के लिये दशकों तक जम कर दुरुपयोग किया, अगर आज वे किसी भी कारण से सही, औपनिवेशिक काल के कानूनों की समीक्षा को तैयार हैं तो यह अवश्य किया जाना चाहिये। साथ ही यह भी याद रखने की जरूरत है कि इस प्रक्रिया में राष्ट्रीय हितों की अनदेखी न हो और देश के सामने मौजूद भीतरी और बाहरी चुनौतियों तथा वैश्विक आतंकवाद के विरुद्ध जारी अभियान पर समझौता न हो।

शुभकामना सहित,

आपका

संपादक

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