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Home लेख

अंबेडकर की वैचारिक विरासत का हकदार संघ

अजीत कुमार सिंह by सुजीत शर्मा
April 14, 2020
in लेख
   बाबा साहब भीमराव रामजी अम्बेडकर :  एक व्यक्ति कई आयाम  

dr. bhimrao ambedkar

बाबा साहब भीमराव राम जी अंबेडकर वर्तमान सदी के सर्वाधिक चर्चित एवं प्रासंगिक भारतीय विचारकों में से एक हैं। समय-समय पर विभिन्न संगठनों और दलों ने अपनी सुविधानुसार अंबेडकर के विचारों का राजनैतिक उपयोग भी किया है। यह भी कोशिश होती रही है कि बाबासाहेब जैसे विशाल व्यक्तित्व के स्वामी को सिर्फ ‘दलित’ वर्ग के नायक के तौर पर स्थापित कर दिया जाए। पूर्वाग्रह से ग्रसित बुद्धिजीवी और दलित समाज के कुछ स्वघोषित ठेकेदार तो स्वयं को बाबा साहब के विचारों का असली वारिस बताते हुए अन्य संगठनों या दलों को बाबा साहब के विचारों के प्रबल विरोधी के रूप मे स्थापित करने तक की कोशिश मे लगे रहते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और अम्बेडकर के मध्य भी कुछ ऐसा ही स्थापित करने का प्रयत्न किया गया। बुद्धिजीविता का सर्टिफ़िकेट बनाने वाली वामपंथी कंपनी ने तो संघ को अम्बेडकर के विचारों का दुश्मन तक घोषित कर दिया। जब की सच्चाई इसके बिल्कुल विपरीत है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का मानना है कि अंबेडकर को किसी भी वैचारिक चँहरदीवारी में बांधना उचित नही है। उनके विचार सर्व समाज के लिये उपयोगी है। संघ अम्बेडकर को समाज सुधारक के साथ-साथ एक बहु-आयामी व्यक्तित्व का राष्ट्रवादी विचारक, विधिवेत्ता, अर्थशास्त्री और संघ से प्रभावित एक स्वयंसेवक मानता है। इस वर्ष जब हम अम्बेडकर जयन्ती मना रहें हैं तो, दुनिया के सबसे बडे सामाजिक/सांस्कृतिक संगठन आरएसएस और अंबेडकर की वैचारिक साम्यता को उद्धृत करना आवश्यक है। तथ्यों के विश्लेषण के आधार पर यह कहा जा सकता है की कुछ विषयों पर मतभेद के वावजूद भी अम्बेडकर और संघ के विचार एक दूसरे के पूरक हैं। संघ अंबेडकर के सिद्धांतों को समाज मे स्थापित कर रहा है।

जाति प्रथा का उन्मूलन

बाबा साहब बाल्यकाल से ही तत्कालीन समाज मे व्याप्त अस्पृश्यता एवं जाति व्यवस्था की कुरीति के खिलाफ थे। वे जाति से मुक्त अविभाजित हिन्दू समाज की बात करते थे। उनका मानना था कि जाति व्यवस्था ही हिन्दू समाज की सबसे बड़ी दुश्मन है। जिसका उल्लेख उन्होने अपनी पुस्तक “फिलोसोफी ऑफ़ हिंदुज्म” मे किया है। वहीं दूसरी तरफ 1942 ईस्वी से ही संघ हिंदुओं में अंतरजातीय विवाह का पक्षधर रहा है और हिंदुओं की एकजुटता को लेकर प्रयासरत है। संघ का यह स्पष्ट मत है कि अस्पृश्यता दूर हो और शोषितों और वंचितों को समानता का अधिकार मिले। संघ समाज मे अपने अनेक कार्यक्रमो के माध्यम से जाति व्यवस्था के उन्मूलन के लिये प्रयासरत है। संघ की संगठनात्मक संरचना से लेकर व्यावहारिक जीवन तक जाति का कोई उल्लेख नही होता है। भोजन की पंक्ति मे बैठे स्वयंसेवक को यह नही ज्ञात होता की उसके बगल बैठे स्वयंसेवक की जाति क्या है। संघ की शाखाओं मे स्वयंसेवको को उनकी ऊचाई के क्रम मे कतारबद्ध किया जाता है, जाति या वर्ग के क्रम मे नही। संघ 40 के दशक से ही प्रत्येक गांव में  “एक मंदिर, एक कुआं और एक श्मशान” की अवधारणा पर जोर देता रहा है। हाल ही मे सरसंघचालक मोहन भागवत ने अपने वक्तव्य में इसे संघ की प्रतिबद्धता करार दिया। अम्बेडकर स्वयं 1949 में पुणे में आरएसएस के एक कार्यक्रम में शामिल हुए और यह जानकर आश्चर्यचकित थे कि आरएसएस में एक-दूसरे की जाति पूछना वर्जित था। यही बात महात्मा गांधी ने भी 1932 में वर्धा में संघ की एक शाखा के दौरे के बाद आरएसएस के संस्थापक केबी हेडगेवार को बताया था। गांधीजी भी एक हिंदू संगठन में एक दूसरे की जाति नहीं पूछने की इस अनूठी संस्कृति से प्रभावित हुए थे।

अनुच्छेद 370 एवं समान नागरिक संहिता

तत्कालीन केंद्रीय कानून मंत्री के रूप में, अंबेडकर समान नागरिक संहिता के पक्षधर थे और जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 को लागू करने का विरोध कर रहे थे। अंबेडकर ने शेख अब्दुल्ला से कहा कि “आप चाहते हैं कि भारत आपकी सीमाओं की रक्षा करे, उसे आपके क्षेत्र में सड़कों का निर्माण करना चाहिए, उसे आपको खाद्यान्न की आपूर्ति करनी चाहिए, और कश्मीर को भारत के बराबर होना चाहिए, लेकिन भारत सरकार की केवल सीमित शक्तियां होनी चाहिए और भारतीय लोगों को कश्मीर में कोई अधिकार नहीं होना चाहिए।  इस प्रस्ताव को सहमति देना, भारत के हितों के खिलाफ एक विश्वासघाती बात होगी और मैं, भारत के कानून मंत्री के रूप में, ऐसा कभी नहीं करूंगा।” दूसरी तरफ शुरुआत से ही संघ अनुच्छेद 370 का विरोधी रहा है। इस दिशा मे संघ ने जम्मू-कश्मीर के भारत मे विलय के लिये हरसंभव प्रयास किया था। तत्कालीन गृह मन्त्री सरदार पटेल के आग्रह पर तत्कालीन सरसंघचालक गोलवरकर जी ने अक्तूबर 1947 मे राजा हरि सिंह से मुलाकात कर जम्मू-कश्मीर के भारत मे विलय की बात भी की। अनुच्छेद 370 के विरोध मे ही श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने नेहरु मंत्रिमंडल से इस्तीफा देकर जन संघ की स्थापना की, जो आगे चलकर भाजपा के रूप मे सामने आयी। “एक निशान, एक विधान और एक प्रधान” के संकल्प पर कार्य करते हुये मुखर्जी ने अपना सर्वोच्च बलिदान दिया। 1967 में, गोलवलकर ने संघ के मुखपत्र ऑर्गनाइज़र को दिए एक साक्षात्कार में यह बात दोहराई, “कश्मीर को रखने का केवल एक ही तरीका है – और वह है पूर्ण एकीकरण। अनुच्छेद 370 जाना चाहिए;  अलग झंडा और अलग संविधान भी जाना चाहिए। तब से लेकर अनुच्छेद 370 के उन्मूलन तक संघ अपनी इस माँग पर अडिग रहा। आज जब भारत सरकार ने अनुच्छेद 370 को समाप्त कर जम्मू-कश्मीर का भारत मे पूर्ण एकीकरण किया तो यह संघ के एक सपने के साकार होने जैसा था, जिसके पीछे संघ का एक बहुत बड़ा आन्दोलन, लम्बी रणनीति एवं समर्पण भाव था।

इस्लामिक कट्टरता एवं भारत विभाजन का विरोध

अंबेडकर ने मुस्लिम समाज मे फैली कट्टरता और विशेष रूप से पाकिस्तान के समर्थक रवैये के बारे में बहुत मजबूत विचार रखे थे। उनका हमेशा यह मानना था कि राष्ट्र धर्म से पहले होता है। इसलिये स्वयं के विषय मे उनका प्रसिद्ध वाक्य है कि “हम सबसे पहले और अन्त मे भारतीय हैं”। मुस्लिम समुदाय पर उनके विचार “थाट्स ऑन पाकिस्तान” और “पार्टिशन ऑफ़ इंडिया” मे मिलते हैं। जहाँ वह लिखते हैं कि “मुसलमानों को किसी भी संघर्ष में गैर-मुसलमानों का पक्ष नहीं लेने का इस्लामी निषेध, इस्लाम का आधार है। यह भारत में मुसलमानों को यह कहने के लिए प्रेरित करता है कि वह मुस्लिम पहले हैं, भारतीय बाद में। यह भावना है जो बताती है कि भारतीय मुस्लिम ने भारत की उन्नति में इतना छोटा हिस्सा क्यों लिया है, इस्लामिक कट्टरता कभी भी एक सच्चे मुसलमान को भारत को अपनाने की अनुमति नहीं दे सकती है। एक चेतावनी के रूप मे उन्होने कहा कि “अगर भारतीय मुस्लिम अपने आपको देश की धरती से जोड़ नहीं सका और मुस्लिम साम्राज्य स्थापित करने के लिए विदेशी मुसलमान देशों की ओर सहायता के लिए देखने लगा, तो इस देश की स्वतंत्रता पुन: खतरे में पड़ जाएगी।” इन दो पुस्तकों में व्यक्त की गई मुस्लिमों की उनकी धारणा लगभग सावरकर के साथ मेल खाती है, जिनकी पुस्तक “हिंदुत्व” पर आरएसएस का दर्शन काफी हद तक आधारित है। जाहिर है, अंबेडकर ने जिस भाषा का इस्तेमाल किया है वह आरएसएस की तुलना में तीखी कही जा सकती है।

इन प्रमुख मुद्दों के अतिरिक्त भी संविधान मे पंथनिरपेक्ष शब्द के प्रयोग, वामपंथी विचारधारा के भारत विरोधी एजेण्डे, संस्कृत भाषा को राजभाषा बनाने जैसे अनेक विषयों पर अंबेडकर और संघ के विचार ना सिर्फ समान हैं, बल्कि एक दूसरे के पूरक भी हैं। यही वजह थी कि अम्बेडकर 1940 से ही संघ के सम्पर्क मे थे। वे संघ के कार्यों से बहुत प्रभावित थे। संघ के वरिष्ठ नेता एवं स्वदेशी जागरण मंच के संस्थापक दात्तोपंत ठेंगडी से उनका विशेष लगाव था, जिनसे वे समय समय पर अनेक सामाजिक मुद्दोँ एवं संघ की कार्यपद्धति पर विमर्श किया करते थे। एक तरफ अपने राजनैतिक हितों की वजह से अनेक दलों और संगठनों मे संघ और अम्बेडकर को एक दूसरे का विरोधी साबित करने की होड़ सी लगी हुई है। दूसरी तरफ संघ निरंतर समाज मे समानता, समरसता, एकता और राष्ट्रीयता जैसे विचारों को स्थापित करने के कार्य मे लगा हुआ है। संघ का काम करने का अपना एक “धीरे धीरे जल्दी चलो” का तरीका है। जिसके माध्यम से वह एकीकृत हिन्दू राष्ट्र की स्थापना मे निरत है।

(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के शोध छात्र हैं।)

 

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