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Home लेख

जन्मजात राष्ट्रभक्त व अनुपम योद्धा, क्रांतिदृष्टा – विनायक सावरकर

श्रीनिवास by श्रीनिवास
May 28, 2020
in लेख
वीर सावरकर

वीर सावरकर

मां भारती की राष्ट्र मलिका के धागे में एक से एक बेशुमार मोती समाये है। ऐसे ही एक क्रांति सूर्य की आज जयंती है। राष्ट्र का कण – कण अपने इस सपूत विनायक दामोदर सावरकर जी को शत-शत नमन करता है। 28 मई 1883 को नासिक में आपका जन्म हुआ। वीर सावरकर जन्मजात देशभक्त थे। बचपन से ही राष्ट्रीयता का भाव हिलोरें ले रहा था। यह वही समय था जब 1857 की क्रांति के बाद अंग्रेज अधिक क्रूरता से स्वाधीनता प्राप्ति के आंदोलन को कुचल रहा था। 22 जून 1897 को जब चापेकर बंधु ने क्रूर अंग्रेज अधिकारी रॅड को गोली से उड़ाया था, उस समय  विनायक मुश्किल से  14 वर्ष के किशोर थे।

सावरकर को इस घटना ने इतना प्रेरित किया कि उन्होंने मां भवानी के सामने देश को सशस्त्र क्रांति से स्वतंत्र कराने की शपथ ले ली। भारत में अंग्रेजो के खिलाफ विरोध के स्वर तेज हो रहे थे। सावरकर भी अब खुल कर मुखर विरोध के अगुवा बन गए थे। 1905 में पहली बार बड़ी मात्रा में विदेशी वस्त्रों की होली उनके नेतृत्व में जली। वीर सावरकर प्रखर बुद्धि व दूरगामी दृष्टि के धनी थे । उन्होंने निश्चय किया कि अंग्रेजो को उन्हीं के घर मे ललकारा जाए अर्थात लंदन जाया जाए। उस समय लंदन धीरे-धीरे भारतीय क्रांतिकारियों की उपजाऊ भूमि बन रही थी।

श्याम जी कृष्ण वर्मा के सहयोग से 1906 में वीर सावरकर लंदन पहुंच गए। उनकी प्रखर बुद्धि के कारण उनका ‘सिटी लॉ स्कूल’ में  उनको प्रवेश मिल गया। परन्तु वे तो बैरिस्टर की उपाधि लेने आये ही नही थे । उनका लक्ष्य तो बहुत महान था। 1907 में भारत के स्वतंत्रता समर 1857 के स्वर्ण जयंती आ रही थी। शायद बहुत कम आज की पीढ़ी के लोग जानते होंगे वीर सावरकर ने बहुत हिम्मत के साथ लंदन यूनिवर्सिटी, उनके लॉ कॉलेज व अन्य भारतीय छात्रो के साथ लंदन की सड़कों पर बड़ा जलूस निकाला। प्रदर्शनकारी अपने छाती पर यह सन्देश लिखे बिल्ले लगा कर चल रहे थे,”भारतीय स्वतंत्रता  संग्राम चिरायु हो’।

वास्तव में 1857 के इस स्वतंत्रता समर को अंग्रेजो सहित आज तक वामपंथी साहित्यकार सैनिकों का असफल विद्रोह कह कर ही सम्बोधित करते है। सावरकर जी यहीं नहीं रुके अपितु उन्होंने धीरे-धीरे अन्य लोगो को एकत्रित व प्रेरित करना शुरू किया इंडिया हाउस उनका नया ठिकाना बना। वहां की एक अंग्रेज अधिकारी के सम्पर्क से वे ‘ब्रिटिश म्यूजियम’ के सदस्य बने। एक वर्ष तक वहां 1857 के संग्राम पर उपलब्ध 1500 से ज्यादा किताबें पढ़ी,उनके सामने पूरा घटनाक्रम का पटापेक्ष हो गया। यह सत्य चीख – चीख कर बोल रहा था कि 1857 सिपाहियो का विद्रोह नहीं,अपितु एक सुनियोजित स्वतंत्रता संग्राम था। अंग्रेजों के साक्ष्यों पर उन्होंने अपनी पुस्तक लिखी, ‘1857 का स्वतंत्रता समर’।

अंग्रेज कितना डरा होगा यह विश्व की पहली ऐसी पुस्तक है जिस पर प्रकाशन से पहले ही प्रतिबन्ध लगा दिया गया। मूल मराठी, फिर अंग्रेजी अनुवाद हुआ। अंततः यह पुस्तक पोलैंड से छपी व वितरित भी हुई। वीर सावरकर की यह पुस्तक क्रांतिकारियों की गीता बन गई।

वे एक योद्धा ही नही अपितु शौधार्थी के साथ – साथ प्रभावी लेखक भी थे। उनकी यह पुस्तक क्रांति के नए सन्देश देती आगे बढ़ी । इसका दूसरा संस्करण अमेरिका से गदर पार्टी के संस्थापक लाल हरदयाल ने छपवाया। प्रथम दोनों संस्करणों में लेखक के स्थान पर नेशनलिस्ट लिखा था। आजकल वामपंथी लोग  सरदार भगतसिंह को लेकर भ्रम उत्पन्न करते है वो भी यह ठीक से पढ़ लें कि भारत के क्रांतिकारी आंदोलन में वीर सावरकर जी व उनके साहित्य का क्या महत्वपूर्ण स्थान था। पुस्तक का तीसरा संस्करण 1929 में प्रतिबन्ध के बावजूद सरदार भगतसिंह जी ने गुप्त रूप से भारत में छपवाया था। और इतना ही नही इस तीसरे संस्करण में उन्होंने लेखक के स्थान पर वी. डी. सावरकर लिखा था। साथ ही उन्होंने इसका पंजाबी अनुवाद भी करवाया था।

वीर सावरकर निडर व राष्ट्र के लिये समर्पित व्यक्तित्व थे। उन्होंने ‘सिटी लॉ स्कूल’ से बैरिस्टर की डिग्री अच्छे अंको में पास की वहां की मान्यता के अनुसार उनको डिग्री लेने के लिये इंग्लैंड के राजा के प्रति वफादार रहने की शपथ लेने के लिये कहा गया। सावरकर जी ने शिक्षा अधिकारी जी को निर्भीकता से कहा कि मैं यह शपथ कदापि नही लूंगा, अधिकारी ने कहा तो बैरिस्टरी की डिग्री नही मिलेगी। सावरकर जी ने तपाक से कहा तुम्हारे इस कागज की डिग्री की परवाह किसे है? मैं ज्ञान लेने आया था, वह मुझे मिल गया। ऐसे राष्ट्रहित में सर्श्व अर्पण करने वाले क्रांतिवीर सबके प्रेरणा स्त्रोत बन गए।

शहीद मदन लाल धींगड़ा ने इनकी ही प्रेरणा से कर्जन वायली को 1 जुलाई 1909 गोली से उड़ा दिया। कुछ समय के लिये वीर सावरकर फ्रांस चले गए। थोड़े समय में ही सावरकर वापिस लंदन आ गए उनको गिरफ्तार कर लिया गया। उनको एस. एस. मारिया नाम के जहाज से भारत लाया जा रहा था। दुनिया में ऐसा साहस किसी भी व्यक्ति ने नही किया होगा। जब जहाज फ्रांस के मार्सेलस बन्दरगाह के पास था यानि 8 जुलाई 1910 प्रातः शौचालय के रास्ते से समुद्र में छलांग लगा दी। और तैर कर फ्रांस की धरती पर पहुंच गए। परन्तु अंग्रेजो ने उन्हें पुनः गिरफ्तार कर लिया।

वीर सावरकर जी को ऐसे ही स्वतंत्रता के पुजारी नही माना है। वह दुनिया के एक मात्र ऐसे युद्ध बंदी थे जिनको अंग्रेजो ने क्रमश 25 दिसम्बर 1910 को पहला आजन्म कारावास की सजा सुनाई व फिर दूसरे आरोप में 30 जनवरी 1911 को दूसरे आजन्म कारावास की सजा। क्या दुनिया में आजतक किसी के साथ हुआ है ऐसा, परन्तु चंद देश के गद्दार जिनका आज़ादी के आंदोलन में कोई योगदान भी नही वो आज बोलते है कि वीर सावरकर ने माफीनामा लिखा था। वह अनुपम राष्ट्रभक्त जिसको दो आजन्म यानी 50 साल एक के बाद दूसरी सजा वो भी काले पानी की। बड़े भाई गणेश सावरकर भी उस समय उसी जेल में कैदी थे।

दो कौड़ी के भेड़िये प्रश्न पूछते है कि उन्होंने माफीनामा क्यों लिखा? मित्रो प्रश्न तो आज पूरा देश पूछ रहा है उनलोगों से जिन्होंने आज तक इस असली भारत रत्न को भारत रत्न क्यों नही दिया? हालांकि उन्होंने अपना जीवन किसी व्यक्तिगत चाह के लिये नहीं अपितु स्वाधीनता की देवी के लिये होम किया था।

वीर सावरकर जी के बारे में पूज्य महात्मा गांधी जी, नेता जी सुभाष चन्द्र बोस जी सहित सभी क्रांतिकारी देशभक्तों ने बहुत कुछ लिखा है । वे लोग जो वीर सावरकर के बारे में अनर्गल बातें करते हैं उन्हें 18 मई 1921 को ‘यंग इंडिया’ समाचार पत्र में छपे सावरकर के प्रति महात्मा गांधी के विचार के पढ़ लेना चाहिए। गांधी जी लिखते हैं –  “सावरकर बंधुओं की प्रतिभा का उपयोग जन-कल्याण के लिए होना चाहिए। अगर भारत इसी तरह सोया पड़ा रहा तो मुझे डर है कि उसके ये दो निष्ठावान पुत्र सदा के लिए हाथ से चले जाएंगे। एक सावरकर भाई को मैं बहुत अच्छी तरह जानता हूं। मुझे लंदन में उनसे भेंट का सौभाग्य मिला था। वे बहादुर हैं, चतुर हैं, देशभक्त हैं. वे क्रांतिकारी हैं और इसे छिपाते नहीं। मौजूदा शासन प्रणाली की बुराई का सबसे भीषण रूप उन्होंने बहुत पहले, मुझसे भी काफी पहले, देख लिया था। आज भारत को, अपने देश को, दिलोजान से प्यार करने के अपराध में वे कालापानी भोग रहे हैं।”

वीर सावरकर जी 11 साल काले पानी की उस क्रूरतम जेल में क्रूरतम जेलर बारी के अधीन रहे। वह जेल में भी सभी कैदियों के लिये आदर्श बन गए। हथकड़ी से संकेत भाषा में बात करने का प्रयोग हो,16 हजार पंक्तियों को लिख कर कंठस्थ करने की मेधा हो, या मौत से भी लड़ने की निर्भीकता हो, जेलर बारी को भी झुका देने की संकल्प शक्ति हो ऐसे एक अद्भुत नेतृत्व का अहसास सभी कैदियों ने किया । और उस अंधकार में भी सावरकर एक आशा का दीप बन गए। जेलर ने एक दिन उनको कहा सावरकर तुम दो जन्म अर्थात 50 साल जीवित भी रहोगे?

सावरकर किस मिट्टी के बने थे उन्होंने क्रूर जेलर के अंहकार को नष्ट करते हुए पूछा  अगले 50 वर्षो तक तुम्हारी अंग्रेजी हकूमत भी कायम रहेगी? वीर सावरकर क्रांतिकारी इतिहास के मुकटमणि थे। वह निर्भीक निडर तो थे ही साथ ही दुर्दम्य आशावाद के प्रतीक थे। वीर सावरकर ने यह विचार किया कि अगर में पूरा जीवन यही जेल में ही रह कर मर जाऊंगा तो हमारी स्वतंत्रता का स्वप्न धूमिल पड़ जायेगा। इसलिए उन्होंने अन्य युद्ध बंदियो की तरह उनके साथ भी वही व्यवहार करने का पत्र लिखा। जिसको पूज्य गांधी जी ने भी अपने लेख व भाषण में कहा है कि यह उनका अधिकार है। उनको मिलना चाहिए। ज्ञात रहे आजकल वामी इसी को उनका माफीनामा कहते है।

वीर सावरकर जी का सम्पूर्ण जीवन भारत की स्वतंत्रता को समर्पित है। अपने युवा अवस्था में ही उन्होंने ‘अभिनव भारत’ नाम का संगठन बनाया। स्वतंत्रता आंदोलन के समय मे भी सामजिक समरसता के लिये व प्रयासरत रहे। अनेक उपक्रम उन्होंने चलाये। पूज्य गांधी जी, आम्बेडकर जी, नेता जी सुभाष बाबू हों, पूज्य डॉ. हेडगवार जी हों या अन्य जितने भी समकालीन राष्ट्रभक्त हो सभी ने उनसे प्रेरणा ली।

भारत के सांस्कृतिक पहचान व हिंदुत्व एवम राष्ट्र को लेकर उनकी  धारणा बहुत स्पष्ट थी। वह कहते थे कि जो भी भारत मे पैदा हुए है और भारत को अपनी मातृभूमि, पितृभूमि व पुण्यभूमि मानते है वे सब हिन्दू हैं। वीर सावरकर जी का व्यक्तित्व बहुआयामी है। वह एक कुशल वक्ता, लेखक, कवि, अनुपम योद्धा ,साथ ही अपनी बातों को तर्क के साथ कहने वाले।

राष्ट्र सर्वोपरि का भाव स्वाश- स्वाश में जीने वाले एक दूरद्रष्टा थे। द्वितीय विश्वयुद्ध में उन्होंने भारत के युवाओ का आह्वान किया था कि वे अधिक से अधिक संख्या में अंग्रेजो की सेना में शामिल हो जाये। ताकि भारतीय लोग अंग्रेजो से युद्ध कौशल सिख जाए। उन्होंने कहा था युद्ध का परिणाम चाहे जो  हो, हम हम बंदूक चलाना सीख गए तो यह तो कभी भी तय कर लेंगे की निशाना किस तरफ लगाना है।

आज उनकी जयंती पर यह 2020 का भारत यह अवश्य विचार करे कि ऐसे एक महान योद्धा जिससे अंग्रेज इतना डरता था। जो स्वतंत्रता के बाद 26 फरवरी 1966 तक जीवित रहे। स्वतंत्र भारत में भी नेहरू जी की सरकार में 2 बार उनको जेल में डाला गया। आखिर किनके हितों को साधने के लिये वीर सावरकर को विवादित व्यक्तित्व बना दिया। जिन्होंने स्वतंत्र भारत मे भी अपना जीवन साहित्य लेखन, सामजिक समरसता,युवाओ को जागृत कर समाज कार्य मे लगाना । स्पर्शबंदी, रोटीबंदी, बेटीबंदी, व्यवसायबंदी, सिंधुबंदी, वेदोक्तबंदी, तथा शुद्धिबंदी इन सात प्रकार की बेड़ियों से जकड़े हुए हिंदू समाज को मुक्त करने के लिए सावरकर जी द्वारा चलाया गया अभियान केवल एक अभियान ही नहीं अपितु समाज में  समरसता एवं एकात्मता का वृहद सेतु है।

आइए आज उनकी जयंती पर हम सब भारतीय इस महान व्यक्तित्व के जीवन से प्रेरणा ले,जीवन में एक बार सेलुलर अंडमान निकोबार की उस जेल के दर्शन करें।  स्वातन्त्र्यवीर  विनायक दामोदर राव सावरकर जी को सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित करे और उनके शब्दों को सदैव अपने स्मरण रखें कि राष्ट्र ईश्वर का रूप है, राष्ट्र का अपमान ईश्वर का अपमान है।

वंदेमातरम।

(लेखक अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के राष्ट्रीय सह – संगठन मंत्री हैं, ये लेखक के निजी विचार हैं।)

Tags: abvpsavarkarvd savarkarवीडी सावरकरसावरकरस्वातंत्र्य वीर सावरकर
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