14 सितम्बर 1949 को हिंदी देश की राजभाषा बनी। तबसे हिंदी ने कई उतार-चढ़ाव देखे फिर भी हिंदी देश एवं दुनिया में सतत आगे बढ़ती जा रही है। आज हिंदी केवल भारत तक सीमित नहीं है, इसका विस्तार विश्व के लगभग 130 देशों में हो चूका है। हिंदी भारत की राजभाषा होने के साथ-साथ फ़िजी की भी राजभाषा है तथा मॉरिशस, त्रिनिदाद, गुयाना और सूरीनाम में क्षेत्रीय भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त है। साथ ही साथ संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटैन, साउथ अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, जर्मनी, सिंगापुर, कनाडा, यू.ए.ई जैसे देशों में भी हिंदी भाषी बड़ी संख्या में मौजूद हैं। यह विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं में से एक है। जहाँ विकिपीडिया हिंदी को मंडारीन (चीनी) तथा अंग्रेजी के बाद तृतीय स्थान देता है वहीं शोधकर्ता डॉ. जयंती प्रसाद नौटियाल हिंदी का प्रथम स्थान अपने शोध में सिद्ध कर चुके है। विज्ञान के इस युग में भारत जैसे विशाल देश की राजभाषा के जानकारों की संख्या का सुनिश्चित न होना बड़ी विडंबना है। सन् 2001 की जनगणना के अनुसार, लगभग 25.71 करोड़ भारतीय हिंदी का उपयोग मातृभाषा के रूप में करते हैं, जबकि 2011 के आँकड़ों के अनुसार लगभग 42.20 करोड़ लोग इसकी 50 से अधिक बोलियों में से एक इस्तेमाल करते हैं। एथनोलॉग: लैंगुएजेस ऑफ़ द वर्ल्ड, 2015 के अनुसार हिंदी का स्थान विश्व में मंदारिन (चीनी) के बाद दूसरे नंबर पर आता है। इस शोध के अनुसार मातृभाषा के रूप में हिंदी का प्रयोग करने वालों की संख्या लगभग 37 करोड़ है और द्वितीय भाषा के रूप में हिंदी का इस्तेमाल करने वालों की संख्या लगभग 12 करोड़ है। मातृभाषा के रूप में हिंदी बोलने वालों की संख्या अंग्रेजी (34 करोड़), स्पेनिश (35 करोड़) से ज्यादा है। मंदारिन बोलने वालों की संख्या लगभग 87 करोड़ है परन्तु एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है की जहाँ मंदारिन भाषा समूह की सभी भाषाओं को एकत्रित रूप में गणना की जाती है वहीं हिंदी के साथ ऐसा न कर, हिंदी को राजस्थानी, मारवाड़ी, मैथिलि, अवधी, ब्रजभाषा जैसे टुकड़ों में बांटकर प्रस्तुत किया जाता है। इस प्रकार विश्व की दो प्रमुख भाषाओं की गणना के लिए अलग-अलग पैमाने अपनाना न्यायपूर्ण नहीं है।
वर्तमान में विश्व में दैनिक समाचार पत्रों की दृष्टि से प्रथम बीस समाचार पत्रों में हिन्दी के पांच समाचार पत्रों का समावेश है। विश्व में क्रमशः दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण, अमर उजाला, हिन्दुस्तान एवं राजस्थान पत्रिका का प्रमुखतः समावेश है ।
दुनिया के लगभग 170 देशों में किसी न किसी रूप में हिंदी पढ़ाई जाती है। मॉस्को (रुस) को दुनिया में हिंदी भाषा के अध्ययन-अध्यापन के प्रमुख केंद्रों में से एक माना जाता है। मॉस्को में हिंदी भाषा का अध्ययन और शिक्षण मॉस्को राजकीय विश्वविद्यालय के साथ-साथ दो अन्य विश्वविद्यालयों में भी किया जाता है। मॉस्को विश्वविद्यालय में हिंदी में बी.ए., एम.ए. और पीएच. डी. की जा सकती है। रूस स्थित भारतीय दूतावास के जवाहरलाल नेहरू सांस्कृतिक केंद्र में हिंदी भाषा निःशुल्क पढ़ाई जाती है। मॉस्को में ऐसा विद्यालय भी है जहाँ बच्चों को छठी कक्षा से ही हिंदी भाषा पढ़ाई जाती है। रूसी वैज्ञानिकों द्वारा हिंदी भाषा के अनेक शब्दकोशों और पाठ्य-पुस्तकों की रचना एवं हिंदी साहित्य का अनुवाद बड़े पैमाने पर किया जाता रहा है। मॉस्को के अलावा रूस के ही सेण्ट-पीटरसबर्ग राजकीय विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के प्राध्यापकों ने तृतीय क्षेत्रीय अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन में रूसी छात्रों के लिए हिंदी भाषा की नई पाठ्य-पुस्तक पेश की।
संयुक्त राज्य अमेरिका में हार्वर्ड, येल, शिकागो, वाशिंग्टन, मोन्टाना, टेक्सास एवं कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालयों समेत कई अन्य विश्वविद्यालयों में भी हिंदी भाषा के पाठ्यक्रम चलाये जा रहे हैं।अमेरिका के अनेक राज्यों के पब्लिक स्कूल्स (सरकारी विद्यालयों) में भी हिंदी भाषा का विकल्प दिया जा रहा है। इसी प्रकार ऑस्ट्रेलियन नेशनल विश्वविद्यालय, टोक्यो विश्वविद्यालय, जॉन हॉपकिंस विश्वविद्यालय में भी हिंदी के पाठ्यक्रम चलाये जा रहे हैं।
पड़ोसी देश चीन के पेकिंग विश्वविद्यालय, गुआंडोंग विश्वविद्यालय सहित अनेक महाविद्यालयों में तथा बीजिंग स्थित गुरुकुल विद्यालय में हिंदी पढ़ायी जाती है। इसके अतिरिक्त इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया तथा सिंगापुर के विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में भी हिंदी पढ़ायी जाती है। सुदूर पूर्व के देश फ़िजी में हिंदी को विद्यालयों में अनिवार्य रूप से पढ़ाया जाता है। दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में भी अनेक विदेशी छात्र, जिनमें जापानी, कोरियाई छात्रों की संख्या अधिक है, भारत में स्थित विदेशी कंपनियों में आकर्षक नौकरी हेतु हिंदी में दाखिला ले रहे है।
वैश्विक स्तर पर भारत के बढ़ते आर्थिक, सामरिक, राजनैतिक प्रभाव को देखते हुए, भारत की राजभाषा हिंदी को सीखने, जानने की ललक विदेशों में बढ़ती जा रही है। इसी क्रम में 17 सितंबर, 2001 को भारत सरकार द्वारा विश्व हिंदी सचिवालय की स्थापना मॉरिशस में की गयी। हिंदी को अंतरराष्ट्रीय भाषा बनाने के प्रयासों में इस सचिवालय की स्थापना एक महत्वपूर्ण कदम है। हिन्दी का एक अन्तर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में स्थापित करने के उद्देश्य से विश्व हिन्दी सचिवालय की स्थापना की गई है। यह सचिवालय अंतरराष्ट्रीय हिंदी पत्रिका एवं अंतरराष्ट्रीय हिंदी समाचार का प्रकाशन भी करता है। हिंदी को विश्व पटल पर अंतरराष्ट्रीय भाषा के रूप में स्थापित करने के लिए कुछ और प्रयास करने की आवश्यकता है, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण कदम हिंदी भाषा के अपने विशिष्ट फॉण्ट का सृजन करना जिससे वर्तमान के तकनीकी युग में हिंदी भाषा को नयी पीढ़ी के प्रयोग के लिए सुगम बनाया जा सके। इसके अतिरिक्त हिंदी में युवा पीढ़ी केंद्रित मौलिक लेखन को बढ़ावा देना, विदेश में स्थित भारतीयों एवं अन्य विदेशी नागरिकों को हिंदी सिखाने की उचित व्यवस्था सुनिश्चित करना जैसे कदमों का समावेश है।
वैश्विक परिदृश्य में हिंदी के परिपक्व होते स्थान की तुलना में देश के अंदर हिंदी को कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। कुछ समय पूर्व कर्नाटक राज्य की राजधानी बेंगलुरू में मेट्रो ट्रैन स्थान कों (स्टेशनों) में सूचना पट्ट पर हिंदी के प्रयोग के विरोध में कुछ राजनैतिक उद्देश्यों से प्रेरित संगठनों ने हिंसक प्रदर्शन करके एक प्रकारसे भाषायी विभेद निर्माण कर देश की राजभाषा विरोधी वातावरण को बढ़ावा देने का कार्य किया है। इस सन्दर्भ में हमें यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि हिंदी संवैधानिक रूप से देश की राजभाषा भी है, जिसका सम्मान करना देश के सभी नागरिकों का कर्त्तव्य बनता है। राज्यों की अपनी राजभाषाएँ है जिनका पूर्ण सम्मान किया जाना चाहिए इसी प्रकार देश की राजभाषा का भी सम्मान किया जाना चाहिए। यह अत्यंत दुःख की बात है कि अपने राजनीतिक स्वार्थ हेतु इस प्रकार के भाषाओं के विवाद खड़े किये जाते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि सारी भारतीय भाषाएँ एक-दूसरे के समर्थन में खड़ी हों। भाषा के माध्यम से देश को तोड़ने नहीं देश को जोड़ने की आवश्यकता है।
किसी भी भाषा के संरक्षण हेतु उस भाषा में प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा का उपलब्ध होना एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है। देश में शिक्षा व्यवस्था पर वैश्वीकरण के बढ़ते प्रभाव के कारण अब मातृभाषा में शिक्षा की स्थिति कमजोर हो रही है। प्राथमिक शिक्षा में फिर भी हिंदी या मातृभाषा का विकल्प है किन्तु उच्च शिक्षा में तो अंग्रेजी का कोई विकल्प छात्रों के समक्ष दिखाई नहीं देता है। विश्व में विगत 40 वर्षों में लगभग 150 अध्ययनों के निष्कर्ष है कि मातृभाषा में ही शिक्षा दी जानी चाहिए क्योंकि बालक को माता के गर्भ से ही मातृभाषा के संस्कार प्राप्त होते हैं। महान वैज्ञानिक डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने यह स्वयं स्वीकार किया था कि मेरी विद्यालयीन शिक्षा मातृभाषा में हुई है इसलिए मैं अच्छा वैज्ञानिक बना हूँ।
देश के उच्च शिक्षा तंत्र में लगभग 60 लाख से अधिक छात्र गैर-महानगरीय क्षेत्रों से प्रवेश लेते हैं, वे अंग्रेजी से तालमेल नहीं बैठा पाते। भाषा की इस खाई के परिणाम स्वरूप देश की उच्च शिक्षा अपने वास्तविक उद्देश्यों को पूरा नहीं कर पा रही है। उच्च शिक्षा के अलग-अलग संकायों का हम विश्लेषण करें तो विसंगतियाँ देखने को मिलती हैं। उदाहरणार्थ दिल्ली विश्वविद्यालय के विधि संकाय की प्रवेश परीक्षा केवल अंग्रेजी में होती है जबकि वार्षिक परीक्षा में हिंदी अथवा अंग्रेजी में उत्तर देने का प्रावधान है। प्रश्न यह उठता है कि जब प्रवेश परीक्षा केवल अंग्रेज़ी में है आगे के चरणों में हिंदी के छात्र कैसे पहुंच पाएंगे? इसी प्रकार इस संकाय में शिक्षण का माध्यम केवल अंग्रेजी है, पाठ्य सामग्री (कोर्स मटेरियल) केवल अंग्रेजी में है तो हिंदी का विकल्प औचित्यहीन हो जाता है। देश के सबसे बड़े विधि संस्थान अर्थात् राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालयों की भी यही परिपाटी है। इसी प्रकार सारे व्यावसायिक पाठ्यक्रमों का शिक्षा का माध्यम मात्र अंग्रेजी है। अधिकतर राज्यों में सामान्य उच्च शिक्षा का माध्यम भी अंग्रेजी है।
वैश्विक स्तर पर एवं देश में भी हिन्दी का विस्तार काफी हो रहा है लेकिन दूसरी ओर विद्यालय से लेकर उच्चतम शिक्षा के स्तर पर हिन्दी एवं अन्य भाषाएँ सिकुड़ती जा रही है। हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषायी माध्यम के विद्यालयों में छात्रों की संख्या में लगातार गिरावट आ रही है। वास्तव में देश एवं दुनिया के भाषा सम्बंधित सारे अध्ययनों का निष्कर्ष यहीं है कि शिक्षा का माध्यम मातृभाषा ही होना चाहिए। महात्मा गाँधी जी ने भी कहा था हमारे बालक अंग्रेजी सीखने के लिए कम से कम ६ साल खर्च कर देते हैं, अगर इस समय का अपने विषयको सीखने में उपयोग करते हैं तो उनका विषय सम्बन्धी ज्ञान में उतनी मात्रा में अधिक उपलब्धि हो सकती है।
इसी प्रकार देश का सारा प्रशासनिक कार्य अधिकतर अंग्रेजी में किया जा रहा है। प्रतियोगी परीक्षाओं का माध्यम या तो अंग्रेजी है या अंग्रेजी का एक प्रश्नपत्र अनिवार्य किया गया है। इस प्रकार देश के अधिकतर न्यायालयों में आज भी अंग्रेजी में ही कार्य किया जा रहा है। जब तक हिंदी एवं भारतीय भाषाओं के समक्ष उपस्थित इन चुनौतियों का समाधान नहीं करेंगे तब तक हिंदी और भारतीय भाषाओं का वास्तविक उत्थान संभव नहीं होगा। उपरोक्त चुनौतियों का सामना करने के लिए राजभाषा कानून, मा.राष्ट्रपति जी के विभिन्न आदेशों का कड़ाई से अनुपालन होना चाहिए। इसी के साथ प्राथमिक शिक्षा का माध्यम अनिवार्य रूप से मातृभाषा होना चाहिए। उच्च शिक्षा के स्तर पर अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी एवं भारतीय भाषाओं का विकल्प उपलब्ध कराना होगा। हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के विकास हेतु प्रत्येक राज्य में वहां-वहां की भाषा के विश्वविद्यालय स्थापित करना होगा। सभी प्रकार की प्रतियोगी परीक्षाओं में अंग्रेजी की अनिवार्यता को समाप्त किया जाना चाहिए।
सामाजिक स्तर पर भी भारतीय भाषाओं के सम्मान, विकास एवं स्वाभिमान जगाने हेतु देशव्यापी अभियान प्रारंभ किया जाना चाहिए। इन सब प्रयासों के द्वारा ही भारतीय भाषाओं का उत्थान होगा एवं हिंदी विश्व की भाषा बन सकेगी।
(लेखक शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के राष्ट्रीय सचिव हैं।)