संपादकीय,
जुलाई माह करगिल के संघर्ष की स्मृति लेकर आता है। बड़ी संख्या में अपने वीर सैनिकों ने सर्वोच्च
बलिदान देकर यह विजय अर्जित की थी।
भारत को हजार घाव देने की पाकिस्तान की नीति का ही विस्तार करगिल का युद्ध था। हिमालय
की हिमाच्छादित चोटियों पर लड़ा गया यह युद्ध न केवल सैनिकों के शौर्य का प्रकटीकरण था
बल्कि पूरे देश में जिस प्रकार की राष्ट्रीय भावनाएं जाग्रत हुई थीं वह अभूतपूर्व थी। राजनैतिक
मतभेदों को दूर कर पूरा देश एक साथ उठ खड़ा हुआ था।
करगिल के उस भावनात्मक दौर के बाद देश ने शासकीय दृष्टि से दो कालखण्डों का साक्षात्कार किया
है। 2004 से 2014 के बीच आर्थिक, नैतिक और लोकतांत्रिक पतन का दुर्भाग्यशाली कालखण्ड आया
जब राजनैतिक मतभेदों ने रंजिश का रूप धारण किया। इसी समय हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार के मामले
सामने आये, सार्वजनिक सम्पत्ति की खुली लूट हुई और राष्ट्रीय मुख्यधारा को अपमानित करने के
लिये भगवा आतंकवाद जैसे जुमले गढ़े गये।
2014 के बाद स्थिति में बदलाव आया। सत्ता परिवर्तन हुआ। भ्रष्टाचार पर प्रभावी लगाम लगी।
किन्तु जिन नीतियों के चलते जनता ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया उन पर पुनर्विचार करने के
बजाय पिछले कार्यकाल में जो राजनैतिक कटुता उत्पन्न हुई उसे बढ़ाने का ही काम किया गया।
जनता के निर्णय पर ही प्रश्नचिन्ह लगाया गया।
करगिल के संदर्भ में पिछले दशकों की चर्चा इसलिये क्योंकि पिछले कुछ समय से जिस प्रकार की
गतिविधियाँ देश में जारी हैं वह देश को साम्प्रदायिक विभाजन की ओर ले जाती दिख रही हैं। नूपुर
शर्मा के बहाने देश में तनाव पैदा करने की कोशिश और गला काटने की घटनाओं पर विपक्ष की
चुप्पी अच्छे संकेत नहीं देती। भले ही इन घटनाओं पर चुप्पी साधने वाले लोग केवल अपने
राजनैतिक हिताहित के आधार पर यह स्टैं ले रहे हों किन्तु उन्हें अपनी नीति निर्धारित करते समय
इस बात का अवश्य ध्यान रखना चाहिये कि वे अनजाने में देश के सद्भावपूर्ण वातावरण को चोट
पहुंचाने का पाप तो नहीं कर रहे।
इन चिंताजनक परिस्थितियों मे एक आशा किरण के रूप में स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव है जिसे
राष्ट्रीय पर्व के रूप में समारोहपूर्वक मनाने से देशभक्ति का माहौल बनाया जा सकता है। शताब्दियों
से हर मतभेद, हर खाई को पाटने और सभी देशवासियों को एकजुट करने में राष्ट्रीयता का भाव
केन्द्रीय बिन्दु रहा है। वन्दे मातरम इसका सिद्ध मंत्र है। अभाविप ने इस 15 अगस्त को देश के दो
लाख गाँवों में जाकर तिरंगा फहराने का जो लक्ष्य लिया है वह समाज को विभाजित करने वाली सभी
गतिविधियों का रचनात्मक प्रत्युत्तर है।
हार्दिक शुभकामना सहित,
आपका संपादक