संपादकीय
कृतार्थता की अनुभूति से मन आह्लादित है। रोम-रोम रोमांचित । शताब्दियों का संघर्ष सार्थक हुआ, प्रतीक्षा पूरी हुई। भावनाओं का ज्वार उमड़ रहा है। आंखें अश्रुपूरित। हर भारतीय भाव-विहल है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम अपनी जन्मभूमि पर निर्मित भव्य मंदिर के गर्भगृह में वालरूप में विराजमान हो गए हैं।
प्रत्येक भारतीय मन की उस अवस्था में जा पहुंचा है जहां शांति का साम्राज्य है। आज प्रौढ़ हुई पीढ़ी के करोड़ों लोग ऐसे हैं जिन्होंने प्रभु राम के जन्मस्थान पर मंदिर बनाने के संकल्प के साथ प्रारंभ हुए आन्दोलन में प्रत्यक्ष-परोक्ष सहभाग किया है। पुलिस की लाठियां खाई हैं, जेल गए हैं, प्रताड़ना सही है। उनके लिए यह किसी स्वप्न के साकार होने के समान है।
1992 के बाद जन्म लेने वाली पीढ़ी के लिये यह उल्लास किसी स्वप्नलोक जैसा है। एक मंदिर के लिए पूरा देश इस तरह उमड़ रहा है, यह अभूतपूर्व है। वह हैरान हैं कि समाजजीवन के विविध क्षेत्रों से जुड़े ख्यातिलब्ध लोग, जो उसके रोल मॉडल हैं, आइकॉन है, जिनकी जीवनशैली, जिनके आदर्श-व्यवहार बिल्कुल अलग तरह के हैं, क्यों अयोध्या में उमड़े आ रहे हैं। क्यों सरयू की प्रशस्ति गा रहे हैं, क्यों श्रीराम के विग्रह की एक झलक पा लेने के लिए व्यग्र हैं।
समाजशास्त्री विचलित हैं कि दशकों से पढ़ा-लिखा कर तैयार किया प्रगतिशील समाज एक झटके से कैसे पुनः रामधुन गाने लगा। अर्थशास्त्री हतप्रभ हैं कि एक मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा कैसे बाजार में प्राण फूंक सकती है। राजनीतिक दलों के लिए भी यह गुत्थी सुलझाना आसान नहीं है कि जिस समाज को वह समझाते नहीं थकते कि राममन्दिर और संसद के निर्माण में होने वाले हजारों करोड़ रुपए के अपव्यय के चलते मंहगाई बढ़ी है और गरीबों का जीना दूभर हो रहा है, वही समाज मंदिर में रामलला की मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा के एक दिन के लिए अपनी जेव से सवा लाख करोड़ रुपए व्यय कर देता है।
यह न हिन्दू-मुस्लिम का प्रश्न है और न भाजपा-कांग्रेस का। प्रश्न है भारतीय मन को भारतीय दृष्टि से समझने का। जिसने इस भारतीय मन की थाह पायी, वह आज शिखर पर है। यह केवल मंदिर का मामला नहीं हैं। भारत की एकता, अखण्डता, उसके जीवनमूल्य, उसकी आस्था और विश्वास को जानने समझने के लिए उसमें रच-वस जाना होता है। जीना होता है उन मूल्यों को। जो ऐसा करने में असफल रहते हैं, वह अंततः किनारे हो जाते हैं, अप्रासंगिक हो जाते हैं।
भारत में समाज की अपनी कसौटी है जिस पर हर उस व्यक्ति को, विचार को अपने-आप को खरा सावित करना पड़ता है जो नेतृत्व की इच्छा रखता है। समाज सवको अवसर देता है लेकिन उन्हें परखने के उसके अपने तरीके हैं। नेतृत्व को हर परीक्षा के लिए तैयार रहने और अपनी योग्यता सिद्ध करने के लिए विना धैर्य छोड़े तत्पर रहना होता है। लम्बी रेखा खींचने के इच्छुक जब छोटे रास्ते तलाशते हैं तब एक विद्रूप उत्पन्न होता है। यह विद्रूप ही वर्तमान की प्रत्येक सामाजिक राजनीतिक जटिलता को सघन कर रहा है। अयोध्या में राम आए हैं तो राम राज्य भी आएगा। सत्व जीते और तम हारे, यह रामराज्य का सहज लक्षण है। देश रामराज्य का आह्वान कर रहा है, कर्तव्यानुभूति के साथ।
शुभकामना सहित,
आपका
संपादक